दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
आलेख | सांस्कृतिक आलेख प्रियंका सौरभ1 Nov 2024 (अंक: 264, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
आधुनिकता के दौर में दीपोत्सव पर मिट्टी की दीये जलाने की परंपरा विलुप्त हो रही है। इससे सामाजिक रूप से व पर्यावरण पर ग़लत प्रभाव पड़ने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता है। पर्यावरण को बचाने के लिए ज़रूरी है आमजन दीपावली पर मिट्टी के दीये जलाने व पटाखे नहीं चलाने का संकल्प लें। इस दीपावली मिट्टी के दीये जलाएँ, तभी पर्यावरण बचाने में हम सफल हो पायेंगे।
— प्रियंका सौरभ
आज की भागती दौड़ती-ज़िन्दगी में लोग अपनी परंपरा को भूलते जा रहे हैं। इसका परिणाम है कि आज देश में पर्यावरण संकट के साथ-साथ कई तरह की समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। जिसके चलते सभी लोग और जीव-जंतु के जीवन पर संकट है। इस परंपरा में एक दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीये जलाना भी है। जिसको आज लोग भूलते जा रहे हैं और उसकी जगह पर इलेक्ट्रॉनिक लाइटों का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन जो सुंदरता मिट्टी के दीये जलने पर दिखती है वह इलेक्ट्रॉनिक लाइटों के जलने से नहीं। इस बात को स्वयं लोग भी स्वीकार कर रहे हैं और इस परंपरा को लोगों के भूलने पर चिंता भी व्यक्त कर रहे हैं। मिट्टी के दीये जलाना परंपरा के साथ हमारी संस्कृति है। अपनी संस्कृति को कोई कैसे भूल सकता है। इसका सभी लोगों को ध्यान रखना चाहिए। मिट्टी के दीये जलाने के कई लाभ है। जिसका उल्लेख कई जगहों पर देखने और सुनने को मिलता है। इसलिए सभी लोग मिट्टी के दीयें जलाएँ।
दीपावली का त्योहार मिट्टी के दीये से जुड़ा हुआ है। यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा हुआ है। दीया जलाने की परंपरा आदि काल से रही है। भगवान राम की अयोध्या वापसी की ख़ुशी में अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाया था, तब से ही कार्तिक महीने में दीपों का यह त्योहार मनाये जाने की परंपरा रही है। पिछले दो दशक के दौरान कृत्रिम लाइटों का क्रेज़ बढ़ा है। आधुनिकता की आँधी में हम अपनी पौराणिक परंपरा को छोड़कर दीपावली पर बिजली की लाइटिंग के साथ तेज़ ध्वनि वाले पटाखे चलाने लगे हैं। इससे एक तरफ़ मिट्टी के कारोबार से जुड़े कुम्हारों के घरों में अँधेरा रहने लगा, तो ध्वनि और वायु प्रदूषण फैलानेवाले पटाखों को अपना कर अपनी साँसों को ही ख़तरे में डाल दिया। अपनी परंपराओं से दूर होने की वज़ह से ही कुम्हार समाज अपने पुश्तैनी धंधे से दूर होता जा रहा है। दूसरे रोज़गार पर निर्भर होने लगे हैं। एक समय था जब दीपावली पर्व को लेकर लोग मिट्टी के दीये ख़रीदने के लिए पहले ही कुम्हार को ऑर्डर कर देते थे। तब गाँव या अन्य किसी गाँव के कुम्हार के घर के सभी सदस्य काम में व्यस्त होते थे।
दीपावली पर्व पर कई लोगों के ऑर्डर को पूरा करने में दिन रात एक कर मेहनत करते थे। हालाँकि उस समय उतनी आमदनी नहीं होती थी, लेकिन कुम्हारों को भी एक रुचि रहती थी कि इस परंपरा को जीवंत रखना है। लेकिन आज लोग मिट्टी के दीये जलाना धीरे-धीरे कम कर दिया है, इससे अब कुम्हार भी इसमें रुचि नहीं ले रहे। जिसका नतीजा है कि आज दीपावली पर्व में लोग घर में दो-चार मिट्टी के दीये जला कर सिर्फ़ एक परंपरा को किसी तरह निर्वहन कर रहे हैं। ज़्यादातर लोग इलेक्ट्रॉनिक लाइटों, झालर और अन्य लाइटों को जला कर ही दीपावली पर्व में अपने घर को रोशनी से जगमग करने की कोशिश कर रहे हैं। हम सभी अब दीपावली के नाम पर पर्यावरण को दूषित कर रहे हैं। अब हमें पुनः अपनी परंपरा को समझना होगा। हमें मिट्टी के दिये जलाने की परंपरा की पुनः शुरूआत करनी होगी। इससे कीड़े मकोड़े मरते हैं। झालर और लाइट से कीड़े नहीं मरते। हमारी संस्कृति सरसों के तेल के दिये जलाना है, अच्छे पकवान बनाना, मिठाइयाँ खाना और पड़ोसी को भी खिलाना, लोगों को उपहार देना आदि है। लेकिन लोग अब उतने समझदार नहीं हैं इसलिए पटाखे छूटेंगे।
लोग मिट्टी के दीये जलाएँ। इससे प्रदूषण भी नहीं होगा और परंपरा भी जीवंत रहेगी। दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीये जलाना पूर्वजों के द्वारा बनाई गई परंपरा है। इसे हम सभी लोगों को बरक़रार रखना चाहिए। दिवाली में मिट्टी के दीये जलाना हमारी संस्कृति और प्रकृति से जुड़ने का बहुत ही सुगम साधन है। यह भारतीय संस्कृति में बहुत ही शुभ और पवित्र माना जाता है। मिट्टी के दीये प्रेम, समरसता और ज्ञान के प्रतीक हैं। सामाजिक व आर्थिक आधार पर भी दीयों की ख़ूबसूरती जगज़ाहिर है। इस बार दीपावली के दिन मिट्टी के दीये जलाने का संकल्प लेकर संस्कृति का बचाव करना है। सभी लोग मिट्टी के दिये ही जलाएँ। आज की युवा पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक लाइटों के प्रति अधिक रुचि रख रही है। घरों को सजाने से लेकर दीये जलाने में इलेक्ट्रॉनिक लाइटों का ही उपयोग कर रही है। जबकि यह सोचना चाहिए कि हमारी संस्कृति और परंपरा का निर्वहन करना युवाओं के कंधे पर ही है। गाँव या किसी शहर में जो कुम्हार है वह आज भी मिट्टी के दीये बनाते हैं। इसमें उन्हें सिर्फ़ आमदनी का लालच नहीं होता बल्कि उनमें अपनी संस्कृति और परंपरा को बरक़रार रखने का उत्साह होता है। लेकिन लोग इसे भूलते जा रहे हैं।
पंरपरा व पर्यावरण के संरक्षण के लिए मिट्टी के दीये जलाना है। इनसे कोई प्रदूषण नहीं होता। कृत्रिम रोशनी आँखों और त्वचा के लिए हानिकारक होती है। मिट्टी के दीये की रोशनी आँखों को आराम पहुँचाती है। मिट्टी के दीये हमारी संस्कृति के एक अहम अंग हैं। दिवाली पर इसे जलाकर हम अपनी परंपराओं को याद रखते हैं। मिट्टी के दीये बनाने वाले कारीगरों को प्रोत्साहित करने का भी यह अच्छा मौक़ा है। आइये, इस दीपावली, हम सभी मिलकर मिट्टी के दीये जलाएँ और एक स्वच्छ और हरा-भरा पर्यावरण बनाने में अपना योगदान दें। लोगों को इस पर विचार करना चाहिए। वर्तमान में अपनी परंपरा को बरक़रार रखने और पर्यावरण बचाने के लिए इस दीपावली मिट्टी की दीये जलाने के प्रति लोगों ख़ास कर बच्चों व युवाओं काे जागरूक करने के लिए अभियान भी चलाएँ।
सबके पास उजाले हों
मानवता का संदेश फैलाते,
मस्जिद और शिवाले हो।
नीर प्रेम का भरा हो सब में,
ऐसे सब के प्याले हों॥
होली जैसे रंग हों बिखरे,
दीपों की बारात सजी हो,
अँधियारे का नाम न हो,
सबके पास उजाले हों॥
हो श्रद्धा और विश्वास सभी में,
नैतिक मूल्य पाले हों।
संस्कृति का करे सब पूजन,
संस्कारों के रखवाले हों॥
चौराहे न लुटे अस्मत,
दु:शासन न फिर बढ़ पाए,
भूख, ग़रीबी, आतंक मिटे,
न देश में धंधे काले हों॥
सच्चाई को मिले आज़ादी,
लगे झूठ पर ताले हों।
तन को कपड़ा, सिर को साया,
सबके पास निवाले हों॥
दर्द किसी को छू न पाए,
न किसी आँख से आँसू आएँ,
झोंपड़ियों के आँगन में भी,
ख़ुशियों की फैली डाले हों॥
‘जिए और जीने दे’ सब
न चलते बरछी भाले हों।
हर दिल में हो भाईचारा
नाग न पालते काले हों॥
नगमों-सा हो जाए जीवन,
फूलों से भर जाए आँगन,
सुख ही सुख मिले सभी को,
एक दूजे को सँभाले हों॥
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