नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
आलेख | सांस्कृतिक आलेख प्रियंका सौरभ1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पहले की होली और आज की होली में अंतर आ गया है, कुछ साल पहले होली के पर्व को लेकर लोगों को उमंग रहती थी, आपस में प्रेम था। किसी के भी प्रति द्वेष भाव नहीं था। आपस में मिल कर लोग प्रेम से होली खेलते थे। मनोरंजन के अन्य साधानों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज़ कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रहे। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली। जैसे-जैसे परम्पराएँ बदल रही हैं, रिश्तों का मिठास ख़त्म होती जा रही है।
—प्रियंका सौरभ
होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते रहे हैं। होली के दिन सभी बैर-भाव भूलकर एक-दूसरे से परस्पर गले मिलते थे। लेकिन सामाजिक भाईचारे और आपसी प्रेम और मेलजोल का होली का यह त्याेहार भी अब बदलाव का दौर देख रहा है। फाल्गुन की मस्ती का नज़ारा अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। कुछ सालों से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुज़ुर्गों का कहना है कि “न हँसी-ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न ढप और न भंग” ऐसा क्या फाल्गुन? न पानी से भरी ‘खेळी’ और न ही होली का . . . रे का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई . . . ताम्बे पीतल का मटका भरवा दो . . . सोना रुपाली लाओ पिचकारी . . . के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।
फाल्गुन लगते ही होली का हुड़दंग शुरू हो जाता था। मंदिरों में भी फाल्गुन आते ही ‘फाग’ शुरू हो जाता था। होली के लोकगीत गूँजते थे। शाम होते ही ढप-चंग के साथ जगह-जगह फाग के गीतों पर पारंपरिक नृत्य की छटा होली के रंग बिखेरती थी। होली खेलते समय पानी की खेली में लोगों को पकड़कर डाल दिया जाता था। कोई नाराज़गी नहीं, सब कुछ ख़ुशी-ख़ुशी होता था। वसन्त पंचमी से होली की तैयारियाँ करते थे। चौराहों पर समाज के नोहरे व मंदिरों में चंग की थाप के साथ होली के गीत गूँजते। रात को चंग की थाप पर गैर नृत्य का आकर्षण था। बाहर से फाल्गुन के गीत व रसिया गाने वाले रात में होली की मस्ती में गैर नृत्य करते थे।
पहले की होली और आज की होली में अंतर आ गया है, कुछ साल पहले होली के पर्व को लेकर लोगों को उमंग रहती थी, आपस में प्रेम था। किसी के भी प्रति द्वेष भाव नहीं था। आपस में मिल कर लोग प्रेम से होली खेलते थे। मनोरंजन के अन्य साधानों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज़ कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली।
जैसे-जैसे परम्पराएँ बदल रही हैं, रिश्तों की मिठास खत्म होती जा रही है। जहाँ तक होली का सवाल है तो अब मोबाइल और इंटरनेट पर ही ‘हैप्पी होली’ शुरू होती है और ख़त्म हो जाती है। अब पहले जैसा वो हर्षोल्लास नहीं रह गया है। पहले बच्चे टोलियाँ बनाकर गली-गली में हुड़दंग मचाते थे। होली के 10-12 दिन पहले ही मित्रों संग होली का हुड़दंग और गली-गली होली का चंदा इकट्ठा करना और किसी पर बिना पूछे रंग उड़ेल देने से एक अलग प्यार दिखता था। इस दौरान गाली देने पर भी लोग उसे हँसी में उड़ा देते थे। अब तो लोग मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं।
पहले परायों की बहू-बेटियों को लोग बिल्कुल अपने जैसा समझते थे। पूरा दिन घरों में पकवान बनते थे और मेहमानों की आवभगत होती थी। अब तो सबकुछ बस घरों में ही सिमट कर रह गया है। आजकल तो मानों रिश्तों मे मेल-मिलाप की कोई जगह ही नहीं रह गई हो। मन आया तो औपचारिकता में फोन पर हैप्पी होली कहकर इतिश्री कर लिए। अब रिश्तों में वह मिठास नहीं रह गया है। यही वजह है कि लोग अपनी बहू-बेटियों को किसी परिचित के यहाँ जाने नहीं देते। पहले घर की लड़कियाँ सबके घर जाकर ख़ूब होली की हुल्लड़ मचाती थीं। अब माहौल ऐसा हो गया है कि यदि कोई लड़की किसी रिश्तेदार के यहाँ ही ज़्यादा देर तक रुक गई तो परिवार के लोग चिंतित हो जाते हैं कि क्यों इतना देर हो गई? तुरंत फोन करके पूछने लगते हैं कि क्या कर रही हो, तुम जल्दी घर आओ। क्यों अब लोगों को रिश्तों पर भी उतना भरोसा नहीं रह गया है।
दूसरी ओर, होली के दिन खान-पान में भी अब अंतर आ गया है। गुझिया, पूड़ी-कचौड़ी, आलू दम, महजूम (खोवा) आदि मात्र औपचारिकता रह गई है। अब तो होली के दिन भी मेहमानों को कोल्ड ड्रिंक्स और फास्ट फ़ूड जैसी चीज़ों को परोसा जाने लगा है। वहीं, होलिका के चारों तरफ़ सात फेरे लेकर अपने घर के सुख शान्ति की कामना करना, वो गोबर के विभिन्न आकृति के उपले बनाना, दादी-नानी का मखाने वाली माला बनाना, रंग-बिरंगे ड्रेसअप में अपनी सखी-सहेलियों संग घर-घर मिठाई बाँटना, गेहूँ के पौधे भूनना और होली के लोकगीतों को गाना। अब यह सब परम्पराएँ तो मानो नाम की ही रह गई हैं।
होली रोपण के बाद से होली की मस्ती शुरू हो जाती थी। छोटी बच्चियाँ गोबर से होली के लिए वलुडिये बनाती थी। उसमें गोबर के गहने, नारियल, पायल, बिछियाँ आदि बनाकर माला बनाती थी। अब यह सब नज़र नहीं आता है। होली से पूर्व घरों में टेसू व पलाश के फूलों को पीस कर रंग बनाते थे। महिलाएँ होली के गीत गाती थी। होली के दिन गोठ भी होती थी जिसमें चंग की थाप पर होली के गीत गाते थे। होली रोपण से पूर्व बसंत पंचमी से फाग के गीत गूँजने लगते थे। आज के समय कुछ मंदिरों में ही होली के गीत सुनाई देते हैं। होली के दिन कई समाज के लोग सामूहिक होली खेलने निकलते थे। साथ में ढोलक व चंग बजाई जाती थी, अब वह मस्ती-हुड़दंग कहाँ?
अब होली केवल परंपरा का निर्वहन रह गया है। हाल के समय में समाज में आक्रोश और नफ़रत इस क़द्र बढ़ गई है कि सभ्रांत परिवार होली के दिन निकलना नहीं चाहते हैं। लोग साल दर साल से जमकर होली मनाते आ रहे हैं। इस पर्व का मक़सद कुरीतियों व बुराइयों का दहन कर आपसी भाईचारा को क़ायम रखना है। आज भारत देश में समस्यायों का अंबार लगा हुआ है। बात सामाजिक असमानता की करें, इसके कारण समाज में आपसी प्रेम, भाईचारा, मानवता, नैतिकता ख़त्म होती जा रही हैं। कभी होली पर्व का अपना अलग महत्त्व था, होलिका दहन पर पूरे परिवार के लोग एक साथ मौजूद रहते थे। और होली के दिन एक दूसरे को रंग लगा व अबीर उड़ा पर्व मनाते थे। लोगों की टोली भाँग की मस्ती में फगुआ गीत गाते व घर-घर जाकर होली का प्रेम बाँटते थे।
अब हालात यह है कि होली के दिन 40 फ़ीसदी आबादी ख़ुद को कमरे में बंद कर लेती है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं। अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं, यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है। होली पर समाज में बढ़ते द्वेष भावना को कम करने के लिए मानवीय व आधारभूत अनिवार्यता की दृष्टि से देखना होगा।
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