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चार बजे की माँ

 

सुबह के चार बजे थे। बाक़ी दुनिया नींद में थी, लेकिन प्रियंका की नींद मानो अपराधबोध से भरी हुई टूट गई थी। अलार्म तीन बार बज चुका था, पर थकी हुई आँखों में जैसे समय का कोई मोल नहीं रह गया था। वह उठी—हड़बड़ाई नहीं, बस चुपचाप उठ गई। सौरभ, उसका पति, अब भी करवट लेकर सोया हुआ था, और बेटा प्रज्ञान—डेढ़ साल का—उसकी गोद में मुँह छुपाकर सोया था। 

प्रियंका रसोई की ओर बढ़ी। गैस ऑन किया, चाय चढ़ाई। बरतन ऐसे रखे थे जैसे कल रात लड़ाई हुई हो किसी से—और सच कहें तो हुई भी थी। नहीं, सौरभ से नहीं, ज़िंदगी से। 

चाय बन रही थी, तभी दूध उबलकर गिर गया। प्रियंका झपट कर पहुँची, अंगुलियाँ जल गईं। लेकिन उसने परवाह नहीं की। समय की रेस में एक माँ के पास दर्द के लिए फ़ुर्सत नहीं होती। 

उसने तेज़ी से टिफ़िन पैक करना शुरू किया—रोटियाँ, सब्ज़ी, पराँठे . . . तभी प्रज्ञान की नींद टूटी। 

“मम्मा . . . मम्मा . . . ” एक कातर आवाज़ गूँजी। प्रियंका के हाथ रुक गए। 

सौरभ उठ चुका था, प्रज्ञान को गोद में लेकर चुप कराने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बच्चा माँ के लिए बिलख रहा था—उसकी गोद, उसकी गंध, उसका सुकून चाहिए था। 

प्रियंका बाथरूम की ओर भागी। जल्दबाज़ी में तौलिया लपेट रखा था। कपड़े बदलने लगी, तो देखा—दुपट्टा नहीं मिल रहा। 

“अब इसे ढूँढ़ने का वक़्त नहीं है,” उसने ख़ुद से कहा और सामने लटकी हल्की-सी सलवार क़मीज़ पहन ली। 

टिफ़िन में रोटियाँ रखीं—सब्ज़ी रखना भूल गई। दरवाज़े पर खड़ी हुई तो देखा, प्रज्ञान अब भी रो रहा था। 

सौरभ उसे गोद में लिए समझा रहा था, पर माँ की एक झलक के लिए उसकी आँखें टिकी थीं। प्रियंका ने एक क्षण को रुककर प्रज्ञान को देखा, उसके माथे पर हल्के से चूमा, लेकिन रोते हुए उसे पापा की गोद में छोड़कर बाहर निकल गई। 

गली के नुक्कड़ तक पहुँची ही थी कि पीछे से आवाज़ आई—“मम्मा . . . मम्मा . . .!”

प्रियंका एक पल को थम गई। आँसू आँखों में आ गए। काश . . . आज रुक सकती! पर नौकरी, ज़िम्मेदारियाँ, अनुशासन, रिपोर्ट, मीटिंग . . . ये सब उसकी ममता को चीरते हुए उसे आगे खींच ले गए। 

उसने आँचल से आँखें पोंछीं, और मुस्कराकर ख़ुद से बोली—“ये सब उसी के लिए है . . . एक दिन समझेगा, मेरा बेटा।”

ऑफ़िस पहुँची तो चेहरे पर मुस्कान थी—दिखावटी। कंप्यूटर ऑन किया, मेल्स देखीं, मीटिंग नोट्स तैयार किए। लेकिन अंदर वो अब भी नुक्कड़ पर खड़ी थी—उस पुकार में अटकी हुई। 

कॉफ़ी मशीन के पास खड़ी शालिनी बोली, “सो रही थी क्या आज? लेट हो गई?” 

प्रियंका मुस्कराई, “नहीं, बस बच्चा नहीं छोड़ रहा था।” 

शालिनी हँस पड़ी, “तू भी न, सिंगल मदर जैसी फ़ील देती है कभी-कभी।” 

प्रियंका कुछ नहीं बोली। क्योंकि जवाब उसके पास नहीं था। शायद ज़िम्मेदार माँ होना ही अपने आप में एक 'सिंगल' रोल है—अकेली पड़ जाने वाला। 

प्रियंका की शादी ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में ही हो गई थी। वह पढ़ाई के साथ-साथ घर को भी सँभालने लगी। ससुराल आते ही उसने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया—अपने फ़िक्स्ड डिपॉजिट के पैसे तक घर और सास-ससुर की ज़रूरतों में लगा दिए। न कोई शिकायत, न कोई शर्त। 

सौरभ ने भी साथ दिया। दोनों ने साथ मिलकर पाँच-पाँच सरकारी नौकरियाँ हासिल कीं—एक-दूसरे को पढ़ाया, समझाया, गिरा, उठाया। हर परीक्षा उनके लिए एक साझा जंग थी। 

नौकरी लगने के बाद भी चैन नहीं था। देवर की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी प्रियंका और सौरभ ने ली। उन्हें किताबें दिलवाना, कोचिंग की फ़ीस, रहन-सहन सब उन्होंने अपने दम पर निभाया। लेकिन जब देवर की शादी हुई—तो प्रियंका जैसे उस रिश्ते से परे कर दी गई। न आदर मिला, न अपनापन। 

घर के पुराने कर्ज़ों का बोझ भी प्रियंका और सौरभ के सिर आया। दिन-रात की मेहनत के बाद जो कुछ जमा हुआ, वो भी उधारी में गलता गया। आर्थिक बोझ के साथ मानसिक थकान भी जुड़ गई थी। 

जब प्रज्ञान हुआ, तो प्रियंका एक सरकारी अस्पताल में अपनी ड्यूटी से लौटी ही थी। प्रसव की पीड़ा और समाज की अपेक्षाएँ एक साथ टूटी थीं उस पर। लेकिन उसने हार नहीं मानी। 

माँ बनने के साथ उसने अपनी लेखनी को भी नहीं छोड़ा। देर रातों तक बच्चे को दूध पिलाने के बीच वह कविता लिखती, लेख बनाती—मानो वह ख़ुद को बनाए रखने का संघर्ष कर रही हो। 

शाम को घर लौटी तो दरवाज़ा खुलते ही प्रज्ञान दौड़कर आया—“मम्मा!” 

प्रियंका ने उसे बाँहों में भर लिया। उसकी छोटी सी मुस्कान ने सारी थकावट धो दी। सौरभ ने मुस्कराकर पूछा—“सब ठीक रहा?” 

प्रियंका ने सिर हिलाया, फिर चुपचाप रसोई में चली गई। गैस पर दूध चढ़ाया, और एक लंबी साँस ली। 

“कल सब्ज़ी मत भूल जाना,” सौरभ पीछे से बोला। 

प्रियंका मुस्कराई—“हूँ . . . याद रहेगा।” 

रात को प्रज्ञान को सुलाकर प्रियंका बालकनी में बैठी थी। चाँद दिख रहा था—अधूरा, लेकिन उजला। जैसे वह ख़ुद—अधूरी, लेकिन रोशन। 

उसने डायरी खोली और लिखा:

“हर सुबह एक युद्ध है। मैं हारती नहीं, बस घायल होती हूँ। मेरा बेटा मेरी सुबह की पुकार है, और मेरी नौकरी मेरी रात का उत्तरदायित्व। मैं प्रियंका हूँ—पत्नी, माँ, और एक कर्मठ नारी। और मैं हर दिन फिर से बनती हूँ—प्रज्ञान के लिए।”

चुपचाप उसने पेन बंद किया। चाँद की ओर देखा, और मन ही मन कहा—“कल फिर चार बजे उठना है।” 

कहानी समाप्त नहीं होती—अगले दिन फिर वही चार बजे की माँ शुरू हो जाती है। 

इस तरह की अनगिनत माँएँ हैं—जो हर सुबह अपनी नींद, अपने सपने, अपने दर्द और अपने अस्तित्व को किनारे रखकर दूसरों के लिए खड़ी हो जाती हैं। यह कहानी सिर्फ़ प्रियंका की नहीं, हर उस माँ की है जो समाज, परिवार, नौकरी और ममता के बीच रोज़ ख़ुद को बाँटती है। 

वह माँ जो कभी बहन थी, कभी बेटी, कभी पत्नी—और अब सब कुछ होते हुए भी अपने लिए कुछ नहीं। लेकिन फिर भी मुस्कुराती है, क्योंकि उसके हिस्से में किसी की हँसी आ जाती है। 

प्रियंका जैसी माँएँ इस देश की रीढ़ हैं। वे न तो शिकायत करती हैं, न ही अपेक्षा रखती हैं। उनकी कहानियाँ न अख़बारों में छपती हैं, न सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं। लेकिन हर दिन वे एक नई क्रांति लिखती हैं—अपनी रसोई में, अपने ऑफ़िस में, अपने बच्चे के माथे को चूमते हुए। 

चार बजे की यह माँ, सिर्फ़ घड़ी की सुइयों से नहीं, समाज की धड़कनों से जुड़ी हुई है। 

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