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भोर की वह माँ

 

चार बजा—
न दिन जगा, न पंछी बोले, 
पर उसकी पलकों पर
एक टूटा सपना काँप उठा। 
 
धीरे-धीरे उठी—
जैसे कोई सूखी डाल हवा से थरथराई हो, 
थकी साँसों में
रोटियों की गिनती और दूध की चिंता लिपटी थी। 
 
अभी चूल्हा भी न जला था, 
पर उसका मन
धधक चुका था। 
 
बेटे की नींद बिखरी—
“मम्मा . . .”
एक टुकड़ा शब्द, 
पर माँ के हृदय को पूरा फाड़ देने वाला। 
 
पति ने गोद में उठाया, 
पर वह गोद, जो बच्चा खोज रहा था—
वह तो रसोई में
दाल के छींटों में
और जले हुए तवे पर
अकेली खड़ी थी। 
 
दुपट्टा कहीं खो गया, 
जैसे वर्षों से खोया था उसका शृंगार। 
रोटियाँ टिफ़िन में रखीं, 
पर सब्ज़ी छूट गई—
जैसे अपने हिस्से का स्वाद माँ अक्सर छोड़ देती है। 
 
गली के मोड़ पर
जब आवाज़ आई—
“मम्मा . . .” 
तो उसके पैर वहीं जड़ हो गए। 
 
एक पल को वो टूटी। 
नयन गीले हुए। 
पर फिर—
माथे पर बिखरी बिंदी को सीधा किया, 
और बोली—
“मेरे रुकने से उसका कल रुक जाएगा . . .”

माँ, 
 
तू कभी देवी नहीं थी—
तू तो वह राख थी, 
जो हर सुबह जली, 
ताकि बेटा सूरज बन चमक सके!

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