अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

जाड़ा आया रे

 

ठंडी-ठंडी चलती बयार, 
धूप भी लगती अब गुलज़ार। 
कप-कप काँपे हाथ-पैर, 
माँ बोले—पहन ले स्वेटर ढेर। 
 
सुबह नहाने का मन न करे, 
भाप निकलती हर साँस भरे। 
चाय-पकौड़े की मस्त ख़ुश्बू, 
रजाई बोले—मत निकल तू। 
 
धूप में बच्चे खेलें जाएँ, 
टोपी-मफलर ख़ूब पहनाएँ। 
जाड़ा लाया मस्ती प्यारी, 
लाल-गुलाबी हर क्यारी। 
 
गिलहरी कूदे डाल-डाल, 
सूरज निकले तो ख़ुशहाल। 
बोलो सब मिल प्यारे-प्यारे—
“जाड़ा आया रे, जाड़ा आया रे!”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता

कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

दोहे

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

शोध निबन्ध

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं