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आँचल की चुप्पी

 

मायका छूटा, गोदी छूटी, 
भाई की कंधी बोली रूठी, 
सास-बहू की लोरी गूँजी, 
बेटी की दुनिया पूरी झूठी। 
 
माथे की बिंदी माँग सजाए, 
थक जाए तो भी मुस्काए, 
कभी ना बोले “अब बहुत हुआ,” 
सबका दुःख ख़ुद पर अपनाए। 
 
कौन कहेगा थकी हुई है? 
घर की नींव रखी हुई है! 
फिर भी रिश्तों में रह गई बस, 
ज़रूरत, दिलचस्पी नहीं रही अस। 
 
ना गोद रही, ना गोत्र, ना बाँह, 
फिर भी वो निभाए चाह-राह। 
बेटी थी, पर अब बहू है, 
उसकी मुस्कान भी अब रुकी हुई है। 
 
जब रोती है— आँचल से ढँक लेती, 
ख़ुद को ख़ुद ही समझा लेती, 
ना कोई पूछे, ना कोई थामे, 
वो जीती है टूटे पलों के नामे। 
 
अब वही घर उसका मंदिर है, 
जहाँ वो ख़ुद ही पुजारी भी है। 
वो हँसती है, वो सहती है, 
पर अब ख़ुद में ही रहती है। 
 
दुनिया कहे “बहू कितनी प्यारी,” 
किसी ने न देखी आँखों की ज्वारी, 
वो बेटी से देवी बनी—
पर देवी को भी किसने सुनी? 

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