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मौन की राख, विजय की आँच

 

छायाओं में ढलती साँझ सी, 
वह हार जब आयी चुपचाप, 
न याचना, न प्रतिकार . . . 
बस दृष्टि में एक बुझा हुआ आकाश। 
 
होंठों पर थरथराती साँसें, 
मन भीतर एक अनसुनी रागिनी, 
जिसे किसी ने सुना नहीं, 
जिसे कोई बाँध न सका आँसू की धार में। 
 
वह पुरुष . . . 
जो शिखरों का स्वप्न लिए
घाटियों में उतर गया था चुपचाप, 
कहीं कोई पतझड़ था उसकी पीठ पर, 
और वसंत अभी बहुत दूर। 
 
पर जब मिली उसे विजय की पीली धूप, 
तो वह काँप उठा—
जैसे बाँसुरी पहली बार गूँज उठी हो
किसी तपी हुई चुप्पी के कंठ से। 
 
वह रोया नहीं, पर पलकों से
एक स्वर्ण रेखा फिसल गई—
विजय की नहीं थी वह, 
वह हार के साथ जमी राख का गीलापन थी। 
 
उसकी विह्वलता—
कोई जयघोष नहीं, 
एक लंबा मौन टूटने की आवाज़ थी। 
 
“विजय उसकी देह पर नहीं, आत्मा पर आई थी, 
और आत्मा— मौन में ही गाती है . . . “

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