अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

राष्ट्रवाद का रंगमंच

 

रात की चादर तले, स्क्रीन पर उठता है शोर, 
लाहौर की दीवारें काँपती हैं, ऐसा चलता है ज़ोर। 
धमाकों की छवियाँ, सीजीआई की चमक, 
हर एंकर बना सेनापति, हर बहस में क्रुद्ध विमर्श। 
 
वीरता बिकती है यहाँ, पैकेज बना दी गई है मौत, 
शहीदों के आँसू सूखते हैं, पर टीआरपी पाती है सौग़ात। 
अधजली चिट्ठियाँ, अधूरी पेंशन की फ़ाइलें, 
झाँकती हैं पर्दे की ओट से— “कब आएगा मेरा हक़?” 
 
बालाकोट के साये में बनती हैं फ़िल्में, 
जहाँ राष्ट्रवाद का संवाद है, पर ख़ामोश हैं आँखें। 
‘हाउ इज़ द जोश’ गूँजता है सिनेमा हॉल में, 
पर शहीद की माँ के आँगन में पसरा है सन्नाटा। 
 
प्रश्न पूछने पर लगते हैं तमगे— गद्दार, देशद्रोही, 
और उत्तर नहीं, मिलते हैं मीम्स, ट्रोल, मौन की तोहीनें। 
सोशल मीडिया पर झंडा लगा, चल पड़ते हैं योद्धा, 
मगर युद्धभूमि में अब भी अकेला खड़ा है सच्चा सिपाही। 
 
चुनावी मौसम में उगते हैं ‘स्ट्राइक’ के फूल, 
वोटों की फ़सल काटने को उछाले जाते हैं जुमले अनगिनत। 
जो चुप रहे, वह राष्ट्रभक्त; जो बोले, वह शक़ के घेरे में, 
सत्ता और मीडिया की यह साँठ-गाँठ लिखती है झूठ की गाथाएँ। 
 
कश्मीर की घाटियों में जो बहता है ख़ून, 
उसकी कोई स्क्रिप्ट नहीं, कोई रीटेक नहीं, 
वह मृत्यु है— निर्वस्त्र, नग्न, अनकही, 
जिसे ढकते हैं राष्ट्रवाद के पर्दे। 
 
तो पूछो—
क्या देशभक्ति अब एक ‘सीन’ है, या संवेदना की पुकार? 
क्या हम तालियाँ ही बजाएँगे, या पकड़ेंगे रोते हाथों की दरकार? 
 
वक़्त है अब, 
राष्ट्रवाद को थियेटर से उतार
ज़मीन की धूल में ढूँढ़ने का। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

दोहे

शोध निबन्ध

सामाजिक आलेख

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं