बचपन का गाँव
काव्य साहित्य | कविता प्रियंका सौरभ15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
ठण्डी-ठण्डी छाँव में
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ।
तोड़ना चाहती हूँ
बंदिश चारों पहर की।
नफ़रत भरी ये
ज़िन्दगी शहर की॥
अपनेपन की छाया
मैं पाना चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हँ हूँ॥
घुट-सी गयी हूँ
इस अकेलेपन में
ख़ुशियों के पल ढूँढ़ रही
निर्दयी से सूनेपन में
इस उजड़े गुलशन को
मैं महकाना चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ॥
प्रेम और भाईचारे का
जहाँ न संगम हो।
भागे एक-दूजे से दूर
न मिलन की सरगम हो।
उस संसार से अब
मैं छुटकारा चाहती हूँ।
उस बचपन के गाँव में
मैं-जाना चाहती हूँ॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
काम की बात
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
- जीवन की ख़ुशहाली और अखंड सुहाग का पर्व ‘गणगौर’
- दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
- नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
- फीके पड़ते होली के रंग
- भाई-बहन के प्यार, जुड़ाव और एकजुटता का त्यौहार भाई दूज
- रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे संत रविदास
- समझिये धागों से बँधे ‘रक्षा बंधन’ के मायने
- सौंदर्य और प्रेम का उत्सव है हरियाली तीज
- हनुमान जी—साहस, शौर्य और समर्पण के प्रतीक
स्वास्थ्य
सामाजिक आलेख
- अयोध्या का ‘नया अध्याय’: आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण
- क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे?
- क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
- खिलौनों की दुनिया के वो मिट्टी के घर याद आते हैं
- खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
- जलते हैं केवल पुतले, रावण बढ़ते जा रहे?
- जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
- टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव
- दिवाली का बदला स्वरूप
- दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी
- नया साल, नई उम्मीदें, नए सपने, नए लक्ष्य!
- नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते हैं भूल
- पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
- पृथ्वी की रक्षा एक दिवास्वप्न नहीं बल्कि एक वास्तविकता होनी चाहिए
- पृथ्वी हर आदमी की ज़रूरत को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं
- बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की ज़रूरत
- महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में बाधाएँ
- मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है
- वायु प्रदूषण से लड़खड़ाता स्वास्थ्य
- समय न ठहरा है कभी, रुके न इसके पाँव . . .
- स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
दोहे
चिन्तन
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं