गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी!
काव्य साहित्य | कविता प्रियंका सौरभ15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
गहन लगे सूरज की भाँति ढल रहा है आदमी।
अपनी ही चादर को ख़ुद छल रहा है आदमी॥
आदमी ने आदमी से,
तोड़ लिया है नाता।
भूल गया प्रेम की खेती,
स्वार्थ की फ़सल उगाता॥
मौक़ा पाते गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी।
अपनी ही चादर को ख़ुद छल रहा है आदमी॥
आलस के रंग दे बैठा,
संघर्षी तस्वीर को।
चमत्कार की आशा करता,
देता दोष तक़दीर को॥
पानी-सी ढाल बनाकर, चल रहा है आदमी।
अपनी ही चादर को ख़ुद छल रहा है आदमी॥
मंज़िल का कुछ पता नहीं,
मरे-मरे से है प्रयास।
कटकर के पंख दूर हुए,
छूए कैसे अब आकाश॥
देख के दूजे की उन्नति, जल रहा है आदमी।
अपनी ही चादर को ख़ुद छल रहा है आदमी॥
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