अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दादी के साथ बैठक

 

शाम उतर आई थी, 
आँगन की मिट्टी ठंडी हो चली थी, 
और दादी का आसन वहीं—
पुरानी बोर की चटाई पर, 
पीठ के नीचे तकिया, 
हाथ में चिलम, आँखों में धुआँ और कथा। 
 
मैं पास ही बैठी थी—
बालों में उँगलियाँ फेरते हुए, 
सुनती कम, 
महसूस ज़्यादा कर रही थी। 
 
दादी बोलती थीं, 
पर शब्दों से अधिक, 
उनकी झुर्रियाँ बोलती थीं—
हर रेखा जैसे एक क़िस्सा, 
हर ठहराव जैसे कोई भूली हुई प्रार्थना। 
 
उनके पास वक़्त का न कोई हिसाब था, 
न किसी घड़ी की टिक-टिक। 
दिन वहाँ ठहर जाते थे, 
जहाँ उनका स्वर धीमा पड़ता, 
और रात वहीं से शुरू होती, 
जहाँ उनकी हँसी में खाँसी घुल जाती। 
 
कभी-कभी वे रुककर कहतीं—
“देख, इस नीम के नीचे तेरे बाबा ने 
पहली बखत हल चलाया था . . .” 
और मैं उस नीम को देखती, 
तो लगता, 
जड़ें अब भी बाबा की थकान को थामे हैं। 
 
उनकी आँखों में पूरा गाँव बसता था—
कुएँ की रस्सी, 
रसोई का चूल्हा, 
सावन की बूँदें, 
और किसी भूले मेले की धुन। 
 
मैं हर दिन वहीं लौटती—
दादी की बैठक में, 
जहाँ समय की घड़ी नहीं चलती थी, 
बस स्मृतियों की घंटियाँ बजती थीं। 
 
अब वही बैठक है, 
पर दादी नहीं। 
नीम अब भी है, 
पर छाँव कुछ कम लगती है। 
चटाई अब भी बिछती है, 
पर उस पर कोई कथा नहीं उतरती। 
 
कभी-कभी मैं बैठती हूँ—
वैसे ही, 
जैसे वह बैठती थीं, 
और मन ही मन पूछती हूँ—
दादी, क्या सच में
स्मृतियाँ भी मर जाती हैं, 
या वे बस बैठकों से उठ जाती हैं? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता

कविता

सामाजिक आलेख

कहानी

दोहे

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

शोध निबन्ध

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं