अभी तो मेहँदी सूखी भी न थी
काव्य साहित्य | कविता प्रियंका सौरभ1 May 2025 (अंक: 276, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
अभी तो हाथों से उसका मेहँदी का रंग भी नहीं छूटा था,
कलाइयों में छनकती चूड़ियाँ नई थीं,
सपनों की गठरी बाँध वो चल पड़ा था वादियों में,
सोचा था— एक सफ़र होगा, यादों में बस जाने वाला।
पर तुम आए—
नाम पूछा, धर्म देखा, गोली चलाई!
सर में . . .
जहाँ शायद अभी भी हँसी के कुछ अंश बचे होंगे।
रे कायरो!
तुम क्या जानो मोहब्बत की बोली?
तुम्हें दो गज़ ज़मीन भी न मिले,
जो ज़िन्दगी के गीत को मातम में बदल दो।
वो राजस्थान से आया था,
हिन्दू था, इंसान भी था—
पर तुम्हारी सोच इतनी छोटी थी,
कि नाम ही उसकी सज़ा बन गया।
वो तस्वीर . . .
जहाँ पत्नी पति के शव को निहार रही है—
न आँसू बहे, न चीख निकली,
सिर्फ़ एक मौन जिसने पूरी मानवता को जगा दिया।
क्या कोई कभी सोच सकता है—
कि हनीमून ट्रिप की तस्वीरें,
कफ़न के साथ आएँगी?
पहलगाँव की हवाएँ अब सर्द नहीं,
बल्कि सुबकती हैं . . .
हर बर्फ़ की चादर में एक सवाल लिपटा है—
“आख़िर क्यों?”
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