जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
आलेख | सामाजिक आलेख प्रियंका सौरभ1 Sep 2022 (अंक: 212, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
इस देश में दो मराठी महापुरुष आये। दोनों ने देश पर इतना उपकार किया कि ये देश उनका उपकार नहीं भुला सकता। एक ने धर्म कि रक्षा कि छत्रपति शिवाजी महाराज और उनका धर्म था इन्सानियत। दूसरे ने देश को रास्ता बताया भारतीय संविधान लिखकर। हम इन दोनों से कब सीखेंगे? 75 साल पहले हमें अँग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी तो मिली लेकिन 75 साल बाद भी जातिवाद से नहीं मिली आज़ादी। जब तक भारतीय समाज और राज्य को संचालित करने वाले केंद्रों-संस्थाओं पर से वर्ण-जाति की विचारधारा के लोगों का क़ब्ज़ा ख़त्म नहीं होता है, तब इंद्र मेघवाल अपमानित होते रहेंगे और मारे जाते रहेंगे, बस वजहें अलग-अलग होगी।
— प्रियंका 'सौरभ'
भारतीय लोकतंत्र का मूल्य संविधान में निहित है और संविधान छुआछूत तथा अस्पृश्यता का निषेध करता है। फिर स्कूल के घड़े में रखा पानी पीने पर दलित बच्चों की क्रूरता से पिटाई क्यों? मासूम बच्चे को अभी पता भी नहीं था कि जाति क्या है और वह जातिगत छुआछूत प्रताड़ना का शिकार हो गया। आख़िर हम और समाज मटके से कब आज़ाद होंगे? राजस्थान में तीसरी कक्षा के विद्यार्थी नौ वर्षीय इंद्र मेघवाल की हत्या हमारे उन सब गर्वों पर कलंक है जिनका बखान हम धर्म, संस्कृति और आध्यात्मिकता के नाम पर करते हैं। ऊँच-नीच को भगवान की देन बता-बता कर, सामाजिक नियंत्रण और डर फैलाना एक प्राचीनतम मनोवैज्ञानिक-सामाजिक हथियार है। भारत की ग़ुलामी के इतिहास में झाँकें तो हम पाएँगे कि धर्म का समर्थन प्राप्त जातिवादी मानसिकता भारत की ग़ुलामी और हार का सबसे बड़ा कारण है। अगर किसी भी समाज को ग़ुलाम बनाने की सामुदायिक-सांस्कृतिक लत है तो स्वतंत्रता का ढोंग क्यों हो? सरस्वती मंदिर में अस्पृश्यता की बीमार परम्परा के प्रहार से घायल इंद्र मेघवाल की मौत क्या दिखाती है?
ऐसे संवेनदशील मामलों में सिर्फ़ शिक्षक के विरुद्ध कार्यवाही पर्याप्त नहीं है इसके लिए शिक्षण संस्थान भी ज़िम्मेदार बनते है जो ऐसे जातिवादी इलाक़ों में स्कूल में मटका रखने की अनुमति देते हैं इसलिए ऐसे शिक्षण संस्थाओं को इनका तोड़ ढूँढ़ना होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता का अंत किया गया है और इसका किसी भी रूप में पालन करना अपराध घोषित किया गया है। इसलिए राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है कि उसके क्षेत्र में किसी प्रकार का छुआछूत प्रैक्टिस में ना रहे। इस देश में दो मराठी महापुरुष आये। दोनों ने देश पर इतना उपकार किया कि ये देश उनका उपकार नहीं भुला सकता। एक ने धर्म की रक्षा की छत्रपति शिवाजी महाराज और उनका धर्म था इन्सानियत। दूसरे ने देश को रास्ता बताया भारतीय संविधान लिखकर। हम इन दोनों से कब सीखेंगे? 75 साल पहले हमें अँग्रेज़ी हुकूमत से आज़ादी तो मिली लेकिन 75 साल बाद भी जातिवाद से नहीं।
पहले अस्पृश्पृयता बहुत ज़्यादा थी, जो आज के दौर में कही-कहीं दिखाई देती है। ऊँच–नीच, छुआछूत के कारण पहले ऊँची जाति के लोग (ख़ासकर ब्राह्मण, बनिये) नीची जाति के लोगों के पास से निकलते हुए निश्चित दूरी बनाकर निकलते थे और किसी चीज़ के लेन-देन के वक़्त हाथों में एक निश्चित फ़ासला रखते थे। मगर ऐसी बातें सुनकर हँसी तब आती है जब कोई नीची जाति का आदमी बनिये की दुकान से कुछ ख़रीदने जाता तो बनिया उसके हाथ से पैसे लेते वक़्त कोई फ़ासला नहीं रखता लेकिन उसके बदले समान देते वक़्त फ़ासला बना लेता। तो फिर अछूत कौन हुआ? सोचिये। अब वक़्त ने करवट बदली है, बिजली पानी में कुछ सरकारी दखलंदाज़ी होने से अब पानी खींचना नहीं पड़ता। गाँव में नीची जाति के लोग आज बे-धड़क अंदर आ जाते हैं और पास रखी कुर्सी या स्टूल पे धड़ल्ले से बैठ जाते हैं। हाथ मिलाना, साथ चलना तो आम हो गया। कुँए की जगह अब पानी की टंकियाँ बनी है जिसमें नल लगे हैं मगर अब उन नलों का जाति के हिसाब से बँटवारा नहीं किया गया। ये सामाजिक बदलाव की पहल वक़्त ने की है, न की किसी जाति विशेष ने।
देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ पानी के मटके को छूने पर मासूम को इतना पीटा गया कि जान ही चली गयी। 15 अगस्त 1947 को भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता मिली थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विपरीत, लोग सभी प्रकार के भेदभाव से मुक्त सम्मानजनक जीवन जीने की आशा रखते थे। हालाँकि अब उत्पीड़कों ने केवल अपना रूप बदल लिया है। कौन नहीं जानता कि आज भी स्कूलों में मिड-डे मील को दलित बच्चे छू लेते हैं तो लोग कहते हैं हमारे बच्चों को दीन-हीन कर दिया। हम आये दिन कहीं न कहीं ये पढ़ते है कि मिड-डे मील के बचे हुए खाने को स्कूल के पड़ोस में रहने वालों ने सिर्फ़ इसलिए नहीं लिया क्योंकि खाना देने दलित बच्चे गये थे। प्रगतिशील राज्यों में से एक होने और सामाजिक न्याय का दावा करने वाले तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा के सर्वे में ख़ुलासा हुआ है कि 386 पंचायतों में से 22 में दलित ग्राम प्रधानों को बैठने तक के लिए कुर्सी नसीब नहीं होती। ऐसे में बिना भेदभाव ख़त्म हुए किसी भी आज़ादी का कोई मतलब नहीं है।
इंद्र कि मौत के इस जघन्य कृत्य के लिए हम सब शर्मिंदा है। 75 साल हो गए पर देश के कुछ ऐसे नीच बुद्धि वाले लोग है जो अपने आप को भगवान समझते हैं और देश के आज़ाद होने के बाद भी ऐसी नीच मानसिकता रखते हैं। जब तक ऐसे लोग रहेंगे देश कभी आज़ाद नहींं रहेगा। मासूम बच्चे ने सोचा कि जब आज़ादी के अमृत महोत्सव का ढोल पूरे देश में ज़ोर-शोर से पीटा जा रहा है तो शायद मैं भी आज़ाद हूँ। उसे क्या पता था कि ये आज़ादी उसके लिए नहींं। वह अबोध बालक हज़ारों प्रश्न देश के सामने छोड़कर आज चला गया। समाज और देश के असली दुश्मन तो इस तरह की मानसिकता वाले लोग हैं जो एक शिक्षक जैसे आदर्श व्यक्तित्व के रूप में स्कूल का संचालन कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को निजी स्कूलों के लिए भी कुछ चारित्रिक मापदंड अनिवार्य करना चाहिए।
जब तक भारतीय समाज और राज्य को संचालित करने वाले केंद्रों-संस्थाओं पर से वर्ण-जाति की विचारधारा के लोगों का क़ब्ज़ा ख़त्म नहीं होता है, तब इंद्र मेघवाल अपमानित होते रहेंगे और मारे जाते रहेंगे, बस वजहें अलग-अलग होगी। वर्ण-जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाली बहुजन वैचारिकी और बहुजन नायकों को भारतीय समाज के केंद्र में स्थापित किए बिना डॉ. आंबेडकर से लेकर इंद्र मेघवाल तक को पानी का घड़ा छूने के लिए दंडित करने की परंपरा को ख़त्म नहीं किया जा सकता है। यह प्रतिकार सिर्फ़ इंद्र मेघवाल की हत्या तक सीमित नहीं होना चाहिए। हज़ारों सालों की ऊँच–नीच की भेदभाव भरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ होना चाहिए।
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