दुपट्टे की गाँठ
कथा साहित्य | कहानी डॉ. प्रियंका सौरभ1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कभी-कभी ज़िंदगी के सबसे बड़े सबक़ किसी स्कूल या किताब से नहीं, बल्कि एक साधारण से घर में, एक सादी-सी औरत के मुँह से मिलते हैं। सुधा के साथ ऐसा ही हुआ था। उसे क्या पता था कि उस दिन का एक छोटा-सा लम्हा, उसकी सोच और जीवन के प्रति रवैये को हमेशा के लिए बदल देगा।
हर सुबह जब महल्ले में सूरज की पहली किरण घरों की दीवारों से टकराती, उसी समय सुधा अपनी झोपड़ी के बाहर बाल्टी, झाड़ू और पोछे का झोला लेकर तैयार खड़ी होती। दिनभर चार-चार घरों में काम करती थी वह—झाड़ू, बरतन, कपड़े और कभी-कभी खाना भी। दो बच्चों की माँ, एक शराबी पति की पत्नी और अपने छोटे से घर की अकेली उम्मीद।
पर इन सबके बावजूद सुधा की हँसी कभी थमती नहीं थी। उसका सधा हुआ हाथ और मुस्कुराता चेहरा उसे हर घर में अलग बना देता था। वह साफ़-सुथरा रहती थी, दुपट्टा हमेशा कांधे से उतारकर काम में जुट जाती थी—उसे लगता था कि दुपट्टा बाँधने से हाथ रुकते हैं, मेहनत में बाधा आती है।
पिछले हफ़्ते ही सुधा ने एक नया घर पकड़ा था—तीन मंज़िला पक्का मकान, जहाँ सिर्फ़ चार लोग रहते थे—अंकल, आंटी और उनके दो जवान बेटे। घर साफ़-सुथरा था और आंटी भी पढ़ी-लिखी लगती थीं। काम ज़्यादा नहीं होता था, पर समय पर पहुँचना ज़रूरी था।
यह सुधा का दिन का आख़िरी घर था। वह अपने सभी काम निपटाकर दोपहर के बाद वहाँ जाती, थोड़ा काम और फिर आंटी के साथ चाय पर थोड़ी बातचीत। यही उसका आराम का समय होता। आंटी से उसे एक अलग अपनापन महसूस होता था।
उस दिन भी ऐसा ही दिन था। सुधा फ़र्श पर झुकी पोंछा लगा रही थी और आंटी पास की कुर्सी पर बैठी चाय पी रही थीं। बातों का सिलसिला चल रहा था—कभी बच्चों की पढ़ाई की बात, कभी सब्ज़ी के दामों की।
“सुधा, एक बात पूछूँ? तू बुरा तो नहीं मानेगी?”
“नहीं आंटी जी, आप तो मेरी बड़ी हैं, जो चाहे पूछिए।”
“तू हर घर में ऐसे ही दुपट्टा उतार देती है?”
सुधा हँस पड़ी। ”हाँजी, दुपट्टा लेकर काम बिल्कुल नहीं होता मुझसे। फँसता है, खिंचता है।”
आंटी एक पल को चुप रहीं, फिर धीरे से बोलीं, “बुरा मत मानना बेटा, पर ज़रा अपने कुर्ते की ओर देख तो।”
सुधा ने गर्दन घुमा कर अपनी ओर देखा, तो वह एकदम झेंप गई। कुर्ते का गला थोड़ा खुला था और झुकने से अंदर का कुछ हिस्सा दिख रहा था—थोड़ी-सी शमीज़ तक। वह एकदम सीधी हो गई।
आंटी ने प्यार से कहा, “देखा बेटा, मैं औरत होकर देख पा रही हूँ, तो सोच तेरे आते-जाते उन दो लड़कों या अंकल की नज़र कहीं ग़लती से भी पड़ जाए, तो तू ही कहेगी कि घर के मर्द बिगड़े हुए हैं। पर जब सामने कुछ दिख रहा हो, तो नज़र तो जाएगी ही न? कोई आँख बंद करके तो नहीं चलेगा।”
सुधा की आँखों में पानी आ गया था, पर वह कोई विरोध नहीं कर सकी। पहली बार किसीने उसे इस नज़रिए से कुछ बताया था। आंटी ने मुस्कुराते हुए कहा, “देख, मैं तुझे कुछ दिखाती हूँ, ऐसे करना चाहिए।” उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू से गले को ढका और फिर कमर में ठीक से कसकर बाँधा।
सुधा ने सिर हिलाया, और चुपचाप अपना दुपट्टा उठाया, उसे सामने से गले तक ढका और कमर में बाँध लिया।
सुधा को उस पल अपनी माँ की याद आ गई। वह बहुत छोटी थी जब माँ चल बसी थीं। तब वह आठ साल की थी। माँ की गोदी, उसकी डाँट, उसका प्यार—सब कहीं धुँधला सा था। लेकिन आज आंटी की वो बात, वो नसीहत, वो सिखाने का तरीक़ा—सब कुछ उसे उसकी माँ की याद दिला गया था।
उसके गले से आवाज़ नहीं निकल रही थी। आंटी ने प्यार से पूछा, “ऐसे क्या देख रही है?”
सुधा की आँखें भर आईं। ”आपने जो कहा, बिलकुल सही है। पर आज तक किसी ने इस तरह कुछ बताया नहीं, शायद इसीलिए कभी ध्यान नहीं गया। आप मेरी माँ जैसी हैं।”
उस दिन के बाद सुधा ने अपना तरीक़ा बदल लिया। अब वह हर घर में दुपट्टा सही तरीक़े से बाँध कर ही काम करती। कई जगह लोगों ने सराहा भी। कुछ औरतों ने कहा, “अरे, अब तो तू बड़ी सलीक़े से दिखती है।”
सुधा के भीतर कुछ बदल गया था। एक आत्म-सम्मान, एक समझ, एक चेतना। उसे यह एहसास हुआ कि समाज में जीने के कुछ अनकहे क़ायदे होते हैं, जो हमें ख़ुद ही समझने होते हैं। और कभी-कभी, कोई अपना हमें वो क़ायदे सिखा देता है—बिना जजमेंट, बिना अपमान के।
इस पूरी घटना ने सुधा को एक और बात सिखाई—औरतें अगर एक-दूसरी को जज करने की बजाय समझाएँ, साथ खड़ी हों, तो बहुत कुछ बदल सकता है। आंटी ने सुधा को ताना नहीं मारा, उसे शर्मिंदा नहीं किया, बस एक माँ की तरह समझाया।
और यही बात सुधा ने अब अपनी बेटी में भी डालनी शुरू की। वह अपनी बारह साल की बेटी को धीरे-धीरे सजग बनाना सीख रही थी—कपड़े, भाषा, व्यवहार और आत्म-सम्मान के स्तर पर।
कुछ महीनों बाद आंटी का बेटा दिल्ली ट्रांसफ़र हो गया और वे लोग घर बेचकर चले गए। आंटी के जाने पर सुधा बहुत रोई। आंटी ने जाते समय एक छोटी सी पोटली में एक सुंदर सूती दुपट्टा देकर कहा था, “ये रख, जब भी पहने, मुझे याद कर लेना।”
सुधा ने वह दुपट्टा सँभाल कर रखा। कभी पहनती तो आंटी की बातें कानों में गूँजने लगतीं।
अब सुधा ख़ुद कई औरतों को, नई कामवालियों को सिखाती है। वह उन्हें बताती है, “काम करो मेहनत से, लेकिन सलीक़े से भी। लोग क्या सोचते हैं, यह हमारे हाथ में नहीं; लेकिन हम ख़ुद को कैसे पेश करते हैं, यह हमारे बस में है।”
उसे लोग अब ‘सुधा दीदी’ कहते हैं। वह महल्ले की औरतों के लिए अब सलाहकार बन गई है। उसका आत्मविश्वास और भाषा बदल चुकी है। और यह सब शुरू हुआ था, उस एक दिन की उस एक सच्ची बात से—जो आंटी ने कही थी।
हम में से बहुतों को ज़िंदगी में ऐसे लोग नहीं मिलते जो हमें समय पर टोक दें, रोक दें या सही रास्ता दिखा दें। और कभी-कभी, जब ऐसे लोग मिलते भी हैं, तो हम उन्हें सुनना नहीं चाहते।
लेकिन अगर हम थोड़ा रुकें, थोड़ा सोचें, और अपने भीतर झाँकें, तो शायद ज़िंदगी की असली समझ उन चुपचाप बोलने वाली बातों में ही छुपी होती है।
दुपट्टा कोई बड़ा मुद्दा नहीं था, पर उस दिन वो सुधा के लिए पहचान, सुरक्षा और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया।
सच में, कुछ गाँठें खोलने के लिए पहले उन्हें बाँधना पड़ता है—और उस दिन सुधा ने दुपट्टे की गाँठ के साथ अपनी सोच की भी गाँठ बाँध ली थी।
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