अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

डाकिया

डाकिया डाक लाया
डाकिया डाक लाया
ये गाना,  तो हम सबने बचपन से है गाया।
ख़ाकी कपड़ा पहन कर इक काका, 
कहीं दावत का न्योता 
तो कहीं
संबंधियों की चिट्ठी है लाया।
 
साइकल पर सवार झोली लटकाये,
किसी के घर ख़ुशी तो,  
किसी के घर ग़म का समाचार है लाये।
किसी के यहाँ आयी है नानी की चिट्ठी, 
तो किसी के यहाँ लाये है दादी की चिट्ठी।
 
चिलचिलाती धूप हो, या हो कड़ाके की ठण्ड,
काका से समाचार मिलने ना होते थे बंद।
कभी झमाझम बदल थे बरसते, 
भीगते काका, 9 से 5 की ड्यूटी थे करते
चिट्ठियों को सँभालते, घर-घर थे पहुँचते, 
साइकिल पर सवार, बजाकर घंटी करते हुए नमस्ते।
डाक आयी डाक आयी काका थे चिल्लाते
 
काका रखते थे ख़बर सबकी 
कि, 
किसके यहाँ बँटेगी आज पास होने की मिठाई 
और किसकी होगी फ़ेल होने पर  पिटाई। 
और पता था उन्हें कि 
किसकी हुई है नौकरी पक्की। 
कभी लाते थे किसी की लौटने की ख़बर 
तो कभी लाते थे पैसों से भरा हुआ कवर। 
 
सभी के समाचारों को बाँटते, 
ख़ाकी कपड़े में साइकिल पर घंटी बजाते 
काका ही तो थे.... 
जो कभी किसी को ख़त पढ़ कर सुनाते,
तो कभी किसी की ख़ुशी में झूम जाते। 
 
ना अब दीखते है काका, ना दीखते है ख़त। 
ना अब होती है असमय घण्टी की पुकार, 
ना होती है अब डाक टिकिटों की बौछार।
 
अब तो  भैया ऑनलाइन का ज़माना है आया,
काका की जगह अब ई-मेल है छाया।
दोस्त संबन्धी तो फ़ेसबुक से जुड़े हैं,
और काका भी अब कुरीयर सुविधा में जुड़े हैं।
सिर्फ़ यही नहीं, आजकल तो, 
 
अमेज़न फ़्लिपकार्ट ही घर-घर सामान हैं पहुँचाते, 
और पैसे तह ऑनलाइन ही ट्रांसफ़र है हो जाते।  
 
लोगों ने भी कर ली है अब पोस्टकार्ड से दूरी,  
आजकल तो बस,  अब है एक फ़ोन  कॉल की ही दूरी।
अब ना है डाक का किसी को इंतज़ार ,
आजकल तो बस, 
अब वीडियो कॉलिंग से ही होते जाते हैं सारे बात-विचार।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

preeti jha 2020/08/31 12:54 PM

very beautiful poetry. An interesting outlook of a childhood poem. By means of such poetry we can still go back to the past and recreate those small moments. Keep posting. Looking forward to read more

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं