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गर्मियों की छुट्टी

कड़कती धूप और हाथ में आम का जूस, 
थाल लगाकर बैठेते थे सब खाने को तरबूज। 
 
ज़मीन से निकलते थे भभकते शोले, 
और हाथ में होते थे रंग-बिरंगे बर्फ़ के गोले। 
 
लूडो, कैरम और साँप सीढ़ी, 
संगी साथी खेलते ताश और चौकड़ी। 
 
कोई सोता था कूलर के सामने बिछाकर अपनी दरी, 
तो कोई बैठता पढ़ने, 
बांकेलाल, बिल्लू, पिंकी और चाचा चौधरी। 
 
हर घर में होता हो-हल्ला, 
किसी बग़ीचे में खेलता था, सतोलिया पूरा मोहल्ला। 
 
कोई जाता था, रेल गाड़ी से नानी के यहाँ, 
और मिलते थे सारे ममेरे यार वहाँ, 
दिन भर खिलता था छूप्मम-छुपाई, 
शाम को बर्फ़ पानी और पकड़म पकड़ाई। 
और कई बार तो इसी बीच हो जाती थी, 
यारों से मार पिटाई। 
खेलते थे उतना जैसे खोद के आये हो ‘माइन’, 
फिर नहाकर कर लगाते थे, 
गोल गप्पे और आइसक्रीम के लिए लाइन। 
 
जाता था कोई सीखने नाच या गाना, 
और किसी तो चाहिए था बस खेल का बहाना। 
कुछ तो बैठते थे बैठते टीवी के सामने, 
कार्टून शो देखने रोज़ाना। 
 
शाम को छत पर पानी डालना, 
और फुव्वारे के नीचे नहाना। 
हाथ में, इमली, पेप्सी-कोला लिए, 
दोस्तों के साथ होता था गाना बजाना। 
जहाँ तक मुझे याद है, 
यही था सन्‌ नब्बे का गर्मियों का ज़माना। 
 
उलझते थे माँझे, पतंगें थीं कटतीं, 
और मटका क़ुलफ़ी थी बँटती। 
 
चलता था दिन भर कभी कट्टी कभी बट्टी, 
जहाँ तक मुझे याद है, 
ऐसी थी हमारी गर्मियों की छुट्टी। 

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