बसंत ऋतु
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अंकिता गुप्ता15 Feb 2024 (अंक: 247, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
ये महकती चहकती हवाएँ,
गुनगुना रही हैं, बसंत ऋतु के आने की धुन,
जैसे, अपने केशों को बनाएँ,
बैठी हो सजती सँवरतीं दुलहन।
ये सरसराती इठलाती गुलाबी हवाएँ,
सुना रही हैं, लहराते खेतों के गुन,
प्राकृतिक सुंदरता ख़ुद में समाये,
बसंत, हरित धरा ऐसे दर्शाएँ,
जैसे, हरे रेशमी लिबास में,
मेहँदी लगा कर बैठी हो दुलहन।
गेंदे के फूल, और सरसों की कोंपलें,
बगियों और खेतों में ऐसे इठलायें,
जैसे, हल्दी चढ़ा कर बैठी हो दुलहन।
सूरज के प्रकाश में, पत्तियों पर,
ओस की बूँदें ऐसे झिलमिलायें,
जैसे, गहनों से सजी हो दुलहन।
ऋतुराज अपने आगमन पर,
वसुधा पर हर रंग ऐसे खिलखिलाए,
जैसे, रंगों से बुनी चुनर ओढ़ी हो दुलहन।
बसंत ऋतु की बेला में सौंधी गुलाबी महक,
पूरी धरती पर यूँ वितरित हो जाए,
जैसे, गुलाबी मुस्कान लिए,
सकुचाती, लजाती बैठी हो दुलहन।
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