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नव निर्माण

 

देखो यह कैसी समस्या आयी है, 
हर तरफ़ व्यग्रता छाई है, 
अनुमान है कि, 
प्रकृति भी अपना प्रकोप लायी है, 
पुनर्निर्माण की और ज़िम्मेवारी उठाई है। 
 
पर, 
यहाँ भी मैं देखती हूँ एक आशा की किरण, 
मनुष्य तू न कर दुखी अपना मन, 
बढ़ रही हैं समस्याएँ, बढ़ती इमारतों के साथ, 
सूख रही हैं नदियाँ, इंसान के दिलों के साथ, 
कट रहे हैं पेड़, बिखरते रिश्तों के साथ, 
पिघल रहे हैं पहाड़, बढ़ते विवादों के साथ। 
 
उजड़ रहे हैं गाँव, बढ़ रहे हैं तूफ़ान, 
और छाया हर तरफ़ है इक कोहराम, 
और आज, अपने आप में क़ैद है, 
बैचैन, परेशान, और हैरान इंसान, 
तनाव ग्रस्त सोच रहा, 
क्या यही है तरक़्क़ी का अंजाम। 
 
क़ुदरत तो दिखा रही करिश्मा अपना, 
बचा रही आत्म सम्मान, करके पुनः नवर्निर्माण अपना। 
परन्तु, 
मनुष्य भी दृढ़ है, अटल है, 
लड़ रहा, प्रचंड है। 
हर तरफ़ ख़ुशी के इस अभाव में, 
दिखा रहा मनुष्य धैर्य अपने स्वभाव में। 
 
इंसान को रहना है, 
क़ुदरत के साथ, 
उसे बचाना है, 
स्वयं को बचाना है, 
और, 
साथ ही जंतुओं को सँभालना है। 
 
परीक्षा के इस कठोर समय में, 
मनुष्य को मनुष्य का साथ निभाना है, 
जो हमारे पास है, 
उसका महत्त्व समझ कर, 
प्रकृति का हाथ थाम कर, 
नव निर्माण की ऒर अग्रसर होना है। 

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