एक वार्तालाप
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अंकिता गुप्ता15 Jun 2024 (अंक: 255, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
हे! पुष्पद सुनो,
आज तुमने बच्चों को क्यों सताया,
उन्हें अपनी शाख़ से झूला क्यों न झुलाया,
जब भी वो तुम पर लटकते,
तुम उन्हें क्यों धर-पटकते!
सुनो सरोवर,
मैं उन्हें सीखा रहा हूँ मुझसे दूर रहना,
बिना पेड़ों के जीवन जीना,
जिस तरह प्रगति के नाम पर हम कट रहे,
क्या पता, हम उनके साथ रहें न रहें!
मैं कार्यरत हूँ साफ़ हवा और मीठे फल देने में,
पर हार जाता हूँ, भौतिक जीवनशैली के उद्धार में,
जंगलों को काटकर, इमारतें, बाँध और सेतु बना रहे,
मेरे जंतुओं को बेघर कर, ख़ुद के घर बसा रहे!
नदियों को सहेजने, सँवारने अब मैं नहीं हूँ,
वर्षा के पानी को भू तक सींचने अब मैं नहीं हूँ
सरोवर!, तुम भी तो कभी बाढ़ से उफन जाते हो,
तो कभी तेज़ गर्मी से पूरे सूख जाते हो!
सुनो पुष्पद,
डर तो मुझे भी लगता है जब देखता हूँ नदी में कूड़ा करकट,
लगता है धँस जाऊँ धरा में लेकर एक करवट,
थक गया हूँ, भूमि से सींच सींच कर जल,
पर पिपासों की अभिलाषा पूर्ण करने में हूँ निष्फल!
बिगड़ गया है संतुलन धरा का,
पशु पक्षियों को भोजन में मिलता है कचरा,
देखकर यह सब हो जाता है मन मेरा दुखी,
प्रार्थना है कि बच्चों का भविष्य रहे सुखी।
ठीक है, कल से मैं भी न उन्हें कूदने दूँगा,
न ही मेरे अंदर समाये जीवों से खेलने दूँगा,
उन्हें सीखना होगा हमारे बिना रहना!
उन्हें सीखना होगा, हवा और जल के बिना रहना!
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