अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एक वार्तालाप

 

हे! पुष्पद सुनो, 
आज तुमने बच्चों को क्यों सताया, 
उन्हें अपनी शाख़ से झूला क्यों न झुलाया, 
जब भी वो तुम पर लटकते, 
तुम उन्हें क्यों धर-पटकते! 
 
सुनो सरोवर, 
मैं उन्हें सीखा रहा हूँ मुझसे दूर रहना, 
बिना पेड़ों के जीवन जीना, 
जिस तरह प्रगति के नाम पर हम कट रहे, 
क्या पता, हम उनके साथ रहें न रहें! 
 
मैं कार्यरत हूँ साफ़ हवा और मीठे फल देने में, 
पर हार जाता हूँ, भौतिक जीवनशैली के उद्धार में, 
जंगलों को काटकर, इमारतें, बाँध और सेतु बना रहे, 
मेरे जंतुओं को बेघर कर, ख़ुद के घर बसा रहे! 
 
नदियों को सहेजने, सँवारने अब मैं नहीं हूँ, 
वर्षा के पानी को भू तक सींचने अब मैं नहीं हूँ 
सरोवर!, तुम भी तो कभी बाढ़ से उफन जाते हो, 
तो कभी तेज़ गर्मी से पूरे सूख जाते हो! 
 
सुनो पुष्पद, 
डर तो मुझे भी लगता है जब देखता हूँ नदी में कूड़ा करकट, 
लगता है धँस जाऊँ धरा में लेकर एक करवट, 
थक गया हूँ, भूमि से सींच सींच कर जल, 
पर पिपासों की अभिलाषा पूर्ण करने में हूँ निष्फल! 
 
बिगड़ गया है संतुलन धरा का, 
पशु पक्षियों को भोजन में मिलता है कचरा, 
देखकर यह सब हो जाता है मन मेरा दुखी, 
प्रार्थना है कि बच्चों का भविष्य रहे सुखी। 
 
ठीक है, कल से मैं भी न उन्हें कूदने दूँगा, 
न ही मेरे अंदर समाये जीवों से खेलने दूँगा, 
उन्हें सीखना होगा हमारे बिना रहना! 
उन्हें सीखना होगा, हवा और जल के बिना रहना! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं