कश्मकश
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अंकिता गुप्ता1 Feb 2023 (अंक: 222, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
एक अजीब दुविधा है,
जो कभी अपना था,
न जाने क्यों अब पराया है।
कई समानताएँ है,
मुझमें, और उसमें,
न, जाने क्यों,
फिर भी,
एक अनकहा सा फ़ासला है।
रंग, रूप समान है,
फिर भी, आँखें और दाढ़ी से पहचान है।
ख़ून का रंग भी समान है,
फिर भी, पताका के रंग से पहचान है।
जन्म लेना समान है,
फिर भी, बस्ती से पहचान है।
काया के पञ्चभूत भी समान हैं,
फिर भी, जनाज़े की प्रक्रिया से पहचान है।
धर्म का सिखाया, मानवता का पाठ समान है,
फिर भी, उपन्यासों से पहचान है।
गुरु का ज्ञान भी समान है,
फिर भी, पाठशाला और मदरसे से पहचान है।
त्यौहारों की ख़ुशियाँ समान है,
फिर भी दिवाली और ईद से पहचान है।
बहुत उत्सव भी समान है,
फिर भी, मनाने के तरीक़े से पहचान है।
बिटिया की विदाई समान है,
फिर भी, विवाह और निकाह से पहचान है।
संवेदना भी समान है,
फिर भी, धर्म, जाति से पहचान है।
बहुत समानताएँ है, फिर भी भिन्नता है,
एक अजीब सी असमंजस है,
कि वो अपना है या, पराया है।
समान होते हुए भी,
असमानता का दर्पण क्यों है,
ये भिन्नता, क्यों है?
वो मुझ सा है, में उस सा हूँ,
फिर भी, अलग होने का प्रमाण क्यों है,
एक कही-अनकही पहचान क्यों है,
धर्म की ये कश्मकश क्यों है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- आज मुलाक़ात हुई पिता से
- आज़ादी का दिवस
- एक वार्तालाप
- कटी पतंग
- कश्मकश
- काल का पानी
- गर्मियों की छुट्टी
- चल पार्टी करते हैं
- डाकिया
- तू प्रहार कर
- दशहरे का त्योहार
- नव निर्माण
- नवरात्रि
- पिता सम्मान है
- फिर से बेटी!
- बरसात के पहलू
- बस! एक रूह हूँ मैं
- बसंत ऋतु
- बसंत पंचमी
- मातृत्व का एहसास
- मैं हिंदी भाषा
- मैं हिंदी हूँ
- रेल का सफ़र
- लकीर
- शिक्षक दिवस
- साँझ का सूरज
- सावन का त्यौहार: हरियाली तीज
- सिमटतीं नदियाँ
- सुकून
- सुकून की चाय
- स्त्री, एक विशेषण है
- हम बड़े हो रहे हैं
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं