अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्त्री, एक विशेषण है

राहगीर बनी जीवन की राह में, 
पग पग पर ठोकर खाती हुई, 
तेज़ हवा में पत्तों की तरह बहती हुई, 
ढूँढ़ लेती है स्त्री अपना सर्वस्व
काँच के टूटे टुकड़ों में। 
 
दबी हुई घास की भाँति, 
कठिनाइयों को सहती हुई, 
स्त्री करुणा का आईना बन जाती है। 
पेड़ की छाँव की तरह, 
अपना सर्वस्व दूसरों को देती हुई, 
स्त्री बलिदान की प्रतिमा बन जाती है। 
रेगिस्तान की बंजर ज़मीन की तरह, 
राहगीरों को राह देती हुई, 
स्त्री शिष्टाचार की प्रतिकृति बन जाती है। 
सँभलती-सँभालती नदी की लहरों की तरह, 
नैया पार लगाती हुई, 
स्त्री चंचलता का प्रतीक बन जाती है। 
पेड़ों की तरह निःस्वार्थ, 
सभी के जीवन को ख़ुशहाल करती हुई, 
स्त्री संस्कारों की तस्वीर बन जाती है। 
 
जकड़ी है वह अनेक बंधनों से, 
दबी हुई है समाज की धारणाओं से, 
लड़ सकती है वो अपने सम्मान को, 
अपने अधिकार को
जैसे कि तलवार की धार हो। 
 
वह हो सकती है उद्दंड, 
लहरों सी, और, चपल, बिजली सी, 
न उसे कोई रौंद सकता है, न तोड़ सकता है, 
छू सकती है वो गगन को, हवाओं की गूँज सी। 
 
स्त्री, 
अटल है, निडर है, स्वतंत्र है, 
अपनी महत्वाकांक्षाओं को सुशोभित किये, 
अपने कर्त्तव्य के लिए प्रतिबद्ध है। 
 
मर्यादित है, गौरवपूर्ण है, करुणामयी है, 
दयामयी, ममतामयी, 
दृढ़, स्थिर और विनीत है। 
संवेदनशील, प्रेरणाप्रद, और गतिशील, 
फिर भी वह शांत है, जैसे अरण्य में एक झील। 
 
माँ है, मासी है, भगिनी है, बुआ है, 
काकी, भाभी, बहू, पत्नी, और बेटी है। 
अपनी निर्मलता से सभी को जोड़े, 
आदर्शों की एक मूर्ति है। 
अपनी मुस्कराहट से हर मुश्किलों पर जय पाती हुई, 
स्त्री, एक विशेषण है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं