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सिमटतीं नदियाँ

सिक़ुड़तीं नदियाँ 

कल कल करतीं, 
छल छल छलकतीं, 
बहतीं नदियाँ, पवन के साथ महकतीं। 
हरियाली सँजोतीं, खेतों को सींचतीं, 
मीठा पानी पिलातीं, अपने अंदर जीवों को समातीं, 
छलकतीं, मटकतीं, उछालतीं, मचलतीं, 
बहती नदियाँ सागर में जा मिलतीं। 
अपने बहाव से, 
शीतलता का एहसास दिलातीं, 
सोंधी सी ख़ुश्बू का एहसास दिलातीं, 
मीठा सा सर्दियों की धूप का एहसास दिलातीं, 
मन में पावनता का एहसास दिलातीं, 
ख़ुशमिज़ाजी और सरलता का एहसास दिलातीं, 
इठलातीं, छलकतीं, और खिलखिलातीं है नदियाँ। 
 
पर अब, 
सिक़ुड़तीं, सीमटतीं खो रहीं हैं नदियाँ, 
जिनकी सुनी थी सदियों की कहानियाँ। 
कहतीं हैं नदियाँ, 
बचा लो उनके साथी, पेड़ों को, 
जो सँजोते हैं उनकी बूँदों को। 
कटते पेड़, सिक़ुड़तीं नदियाँ, 
अब लातीं हैं बाढ़ की कहानियाँ। 
जो थी, मनमोहक और चुलबुल नदियाँ, 
अब लातीं हैं त्रास और वीरानियाँ। 
ना पेड़ हैं अब, 
उनके जल को सँजोने, 
न खेत हैं उनके जल को ठहराने। 
कल जो चाँदी सी चमकतीं थीं नदियाँ, 
आज वो लगतीं हैं गन्दी नालियाँ। 
बिलखतीं हुईं, रोतीं हुईं, 
विभिन्न उद्योगों का बोझा ढोतीं हुईं, 
अपने अंदर हमारा कचरा समेटतीं हुईं, 
मदद को पुकारतीं हैं नदियाँ। 
 
समझा कर कह रहीं हैं नदियाँ, 
बचा लो मेरा जीवन, 
बचा लो अपना जीवन, 
मैं करती हूँ कई निवारण। 
मेरे संग ही है हरियाली, 
और, मेरे संग ही है ख़ुशहाली। 
  
कलपती हुईं नदियाँ, 
करतीं हैं गुज़ारिश, 
बचा लो मेरा सर्वस्व, 
वरना रह जाऊँगी में बस किनारों पर छूटी कहानियाँ, 
वरना रह जाऊँगी में बस किनारों पर छूटी कहानियाँ। 

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