रेल का सफ़र
काव्य साहित्य | कविता डॉ. अंकिता गुप्ता15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
"यात्रीगण कृपया ध्यान दें"
यही चलता था हर दिन स्टेशन पर,
अपनी ट्रेन को आता देख,
मुस्कराहट आती थी चेहरे पर।
दो चार बैग और पानी की बोतल,
पापा करते हर नग का टोटल।
सफ़र होते थे कितने सुहाने,
वो दिन भी थे कितने लुभावने।
शुरू करते थे सफ़र अपने शहर से,
हरी झंडी देख चढ़ते थे सब झट से।
लड़ते थे बैठने को खिड़की पर,
जिससे सारी हवा आये हम पर।
खिड़की से दिखता था हरा नीला रंग,
मानो प्रकृति ने भरे हों ख़ुद में कई रंग।
खेत खलिहान निकलते जाते,
हम अपनी मंज़िल की और बढ़ते जाते।
ट्रेन मुड़ते देखना, बाहर ताकना,
यह वो समय था, जब,
स्लीपर कोच का था ज़ोरों पर ज़माना।
ट्रेन में बैठते लगती थी ज़ोरों की भूख,
खाने को भी तो बिकता था ख़ूब।
कभी खाते घर की सब्ज़ी पूड़ी,
या खाते खीरा, चने और भेल पूरी।
कभी हाथ में रखते अंकल चिप्स,
साथ में लेते थे फ्रूटी के सिप्स।
रुकती थी ट्रेन हर डगर,
समय भी बदलता अपना पहर।
किसी स्टेशन पर बिकते मूँग के पकौड़े,
तो अगले पर होते थे राबड़ी और पेड़े।
हमसफ़र करते कई मुद्दों पर संवाद,
क्रिकेट से लेकर संसद के वाद विवाद।
गाना बजाना, या ताश खेलना,
ऐसा ही था सफ़र पुराना।
रात में सोते थे ज़ोरदार,
कोच भी हो जाते थे हवादार,
सुबह मिलती थी कुल्हड़ की चाय,
जिसके सामने तो आज भी,
मन को कुछ न भाए।
नाश्ते में बिकते कचोरी और समोसे,
वही तो खाते थे बड़ी मस्ती से।
समय का पता न था चलता,
दूजे यात्री का भी मन होता था मिलता जुलता।
दूर से दिखता था अपना स्टेशन,
बस वहीं से शुरू होती थी, वेकेशन।
पापा फिर से गिनते, की नग हैं पूरे,
यूँ ही, ख़त्म होता था,
मेरे,
रेल का सफ़र, अक़्सर सवेरे।
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