खुशी
काव्य साहित्य | कविता दिविक रमेश12 Jan 2016
खुशी को मैंने
उँगलियों में पकड़ा
और सहलाया उसकी पंखुड़ियों को
पाया
खुशी शर्माते शर्माते
सकुचा गई थी
मैंने
थोड़ा खोला खुशी की पंखुड़ियों को
पाया
खुशी मेरी खुशी में
सम्मिलित हो गई थी
मैंने खोल दिया पूरा
और कर दिया अर्पित उसे
उस पूरी दुनिया पर
जहाँ नहीं थी वह
पाया
मैंने कभी नहीं देखा था खुशी को
इससे ज़्यादा खुश
पहले कभी
ताज्जुब
मेरी खुशी तक मना रही थी जश्न
जैसे मुक्त हो गई हो मेरी कैद से
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