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साँझ का सूरज

पंछियों की चहचाहट के साथ, 
लालिमा से भरी ठंडी हवा के साथ, 
नीले गगन में, पहाड़ों में छिपते हुए, 
मैं साँझ का सूरज, ढलते हुए, 
बताना चाहता हूँ, अपने मन की व्यथाएँ,
कहना चाहता हूँ, अपनी कुछ कामनाएँ, 
जताना चाहता हूँ कुछ लालसाएँ।
 
यूँ तो भोर होते ही पूज लेते हो,
पर दूजे पहर में मेरी बर्बरता से संत्रास होते हो, 
और,
तीजे पहर तक तो मानो भूल जाते हो। 
 
जब शाम को अपनी लालिमा समेटते हुए, 
पहाड़ियों में छिपता हूँ, 
रोज़ के कुछ पल क़ैद कर ले जाता हूँ।
इस विशाल गगन में गुम होते हुए, 
महसूस करता हूँ, सुनता हूँ,
एक जुट होकर घोंसले को लौटते 
पंछियों की चहचहाट, 
झूलों पर झूलते बच्चों की मुस्कराहट, 
टहलते बुज़ुर्गों का ठहाका लगाना, 
तो किसी और गली में,
गिल्ली-डंडा खेलते बच्चों का चिल्लाना। 
 
कभी सुनता हूँ कारखानों में बजता भोपूँ,
छुट्टी की ख़ुशी में सभी की खिलखिलाहट, 
तो किसी ओर,
दफ़्तर से लौटते हुए स्कूटर की सरसराहट।
 
देखता हूँ, 
सैर पर जाने को तैयार,
बुला रहे सब अपने यार। 
किसी ठेले पर चाट के साथ हो रही गप्पें,
तो कोई दौड़ा रहा गाड़ियों के चक्के।
शाम की चाय, और किसी विषय पर वाद-विवाद, 
तो एक ओर होते मंदिरों में शंखनाद।
 
इन्हीं मधुर सुगंधों,और सुरों से घिरा हूँ,
मैं भी, भिन्न भावनाओं से भरा हूँ।
माना, में छिप रहा हूँ, 
पर यूँ न भूलो मुझे, 
में समय के चक्र में बँधा हूँ।
ढल रहा हूँ, 
पर, वापिस आने को,
अगले दिन भोर बनने को,
सभी के मन में, 
एक नए दिन का उत्साह लाने को।

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