अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सौन्दर्य जल में नर्मदा

5. नर्मदा नदी का पर्यावरण

 

अलक्षलक्ष-लक्षपाप-लक्ष-सार-सायुधं, 
ततस्तु जीव-जन्तुतन्तु-भुक्तिमुक्तिदायकम्।
विरञ्चि-विष्णु-शंकर स्वकीयधाम वर्मदे, 
त्वदीयपाद पंकजं नमामि देवि नर्मदे॥७॥

ब्रह्मा विष्णु और महेश को निज-निज पद या अपनी निजी शक्ति देने वाली हे देवि नर्मदे! अगणित दृष्य-अदृष्य लाखों पापों का लक्ष भेद करने में अमोघ शस्त्र के समान और तुम्हारे तट पर बसने वाली छोटी बड़ी सभी जीव परम्परा को भोग और मोक्ष देने वाले तुम्हारे पाद-पंकजों को में प्रमाण करता हूँ॥७॥

विगत सदी से औद्योगिकरण में तेज़ी आई और इसके कारण अंधाधुंध कटने लगे जंगल-झाड़। बढ़ने लगा जल-प्रदूषण, वायु प्रदूषण, वातावरण में कोलाहल और होने लगी रत्नगर्भा धरती में चीर-फाड़। इसलिए अवश्यंभावी ही था जलवायु परिवर्तन। जिससे आने लगी पूरे विश्व में बाढ़ें ही बाढ़ें, जगह-जगह प्रलय की तरह जल-प्लावन। गर्मी ऐसी की लू के थपेड़ों की सायं-सायं, सर्दी इतनी ज़्यादा हाथ भी सुन्न हो जाए। अवांछित शोर से कानों के पर्दों में सूजन। मनुष्य तनाव-ग्रस्त और मानव जीवन ख़तरे में अधर-झूल। यह हाल है एक का नहीं, दो का नहीं, पूरे ग्लोब का। 

वैश्विक खेती और जीव-जन्तु, पेड़-पौधे सभी प्रभावित होने लगे। इधर जन-संख्या विस्फोट, उधर कुकरमुत्ते की तरह उद्योगों के जाल। दोनों में एक साथ बढ़ोतरी, दोनों मनुष्य की ग़लतियाँ। परिणाम, वैश्विक पर्यावरण पूरी तरह तहस-नहस। 

पृथ्वी एक ही है इस सौर-मण्डल में, बार-बार मिलने वाली भी नहीं है और इसका और कोई विकल्प भी नहीं है और आज पर्यावरण के महासंकट से गुज़र रही है। पृथ्वी का सामान्य तापमान से एक डिग्री तापमान बढ़ गया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि कभी वातावरण में 350 पीपीएम कार्बन-डाई-आक्साइड थी, जिससे गर्मी और सर्दी में संतुलन बना रहता था, लेकिन अब यह स्तर 400 पीपीएम कार्बन-डाई-आक्साइड को पार कर रहा है और इसके पीछे हाथ है विकसित देशों का, ख़ासकर, अमेरिका, यूरोप, रूस और चीन का। अगर और 50 पीपीएम कार्बन-डाई-आक्साइड बढ़ गई तो पूरे जीव-जगत के लिए ऐसा ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा, जिसे बचाना किसी के वश में नहीं होगा। वैज्ञानिक आविष्कारों ने विश्व में पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया, जो सन् 1750 से चल रही है और तभी से शुरू हो गया था धीरे-धीरे पृथ्वी के तापमान का बढ़ना। 20वीं सदी के अन्तिम वर्षों में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट चेतावनी दे दी थी कि अगर विकास के नाम पर धरती का दोहन ऐसे ही चलता रहा तो वह समय दूर नहीं है, जब पूरी पृथ्वी मौत के कगार पर खड़ी होगी। सन् 1972 में विश्व के नेताओं ने भी इस चेतावनी पर विचार करना प्रारम्भ किया था, संयुक्त राष्ट्र संघ की स्टाक होम की बैठक से, जिसमें बात उठी थी ओज़ोन परत में छेद होने के कारणों की, जिस छेद की वजह से सूर्य की पराबैंगनी किरणें सीधी धरती पर पड़ेगी और न केवल त्वचा कैंसर बढ़ेगा, बल्कि धरती का तापमान भी। तब सभी देशों ने निश्चित किया कि वे अपना पर्यावरण सुधारने का प्रयास करेंगे। 1992 में विश्व स्तरीय ‘अर्थ समिट’ ब्राज़ील में सम्पन्न हुई, जिसमें सभी देशों ने सहयोग देने और कार्बन गैसों के उत्सर्जन कम करने में तत्परता दिखाई। लेकिन किसी ने भी इस पर ग़ौर नहीं किया, फिर सन्‌ 1997 में क्यूटो में, 2002 में जोहान्सबर्ग में, 2007 में बाली में, बाली एक्शन प्लान क्यूटो‍ प्रोटोकॉल की पुनर्संरचना के लिए, सन्‌ 2009 का दोहा में तथा 2012 में डरबन दक्षिणी अफ्रिका में कॉफ्रेन्स हुई। फिर अभी पेरिस में, जिसमें भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकासशील देशों का पक्ष रखा और इस बैठक में और 1 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान वृद्धि पर सहमति बनी, जिससे कार्बन विसर्जन 400 पीपीएम से बढ़कर 430 पीपीएम तक चला जाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार 450 पीपीएम पर सम्पूर्ण जीव-जगत का विनाश हो जाएगा और मानव जाति का सम्पूर्ण अस्तित्व ख़तरे के कगार पर होगा। समुद्र-तटीय देशों के डूबने का ख़तरा बढ़ने लगेगा। यूरोप के कई छोटे देश इस ख़तरे को समझने लगे हैं। इस समस्या से फ़िलहाल 2.50 करोड़ लोग विस्थापन का दंश भोग रहे है। इससे बचने के लिए पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में मानना होगा। एक जनतान्त्रिक तरीक़े से चुनी हुई विश्व सरकार बने। वीटो पॉवर समाप्त हो, तभी जाकर मानव जाति को बचाया जा सकता है। ये सारे सम्मेलन पर्यावरण के इतिहास में टर्निंग पॉइंट है। जलवायु परिवर्तन की समस्या इतनी विकराल है कि विकास के नाम पर इस समस्या का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। ज़रा सोचिए, विकास किसे कहते हैं? ज़्यादा से ज़्यादा आराम की वस्तुएँ जुटाना। दूसरे शब्दों में, कहे तो उपभोक्तावाद के कारण ही यह समस्या उत्पन्न हुई है। वैज्ञानिक विकास के साथ यह समस्या बढ़ रही है। अमेरिका और यूरोप के देशों ने विकास के नाम पर पूरे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया है, जिसके कारण पूरे अफ़्रीका महाद्वीप में बहुत बर्बादी हुई है। 

यह बर्बादी 1945 से पहले स्थानीय थी, आँखों के सामने दिखती थी, मगर अब ख़तरा अदृश्य है, मगर मर्मांतक। बारिशों में तेज़ाब, नदियों में प्रदूषण, सामुद्रिक जीव-जन्तु विषाक्त, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, कोयले की खदानों से कार्बन का उत्सर्जन, जीवाश्म ईंधन जैसे पेट्रोल, नाइट्रोजन गैसों का आदि अनवरत दहन। इस तरह इधर कार्बन-डाई-आक्साइड का स्तर बढ़ने से वैश्विक तापमान में वृद्धि और उधर एसी और फ़्रिज में क्लोरो-फ़्लोरो-कार्बन का भंयकर उपयोग से ओज़ोन लेयर में छेद में वृद्धि, तब सूर्य की परा-बैगनी किरणों को धरती पर आने से कौन रोक सकेगा? सन्‌ 1800 से 1900 के बीच वायुमंडल में 4% कार्बन-डाई-आक्साइड थी, सन्‌ 1900 से 2022 तक 40% से ज़्यादा हो गई है। जनसंख्या बढ़ने के कारण ऊर्जा की खपत भी बढ़ी, यद्यपि कार्बन-डाई-आक्साइड रोकने की बहुत कोशिश की गई और बिजली उत्पादन के ग़ैर-पारंपरिक तरीक़े खोजे गए। फिर भी वायु-मण्डल में कार्बन की परतें संघनित होने लगी, जो धरती की ऊष्मा को ऊपर जाने से रोकने लगी, जिसकी वजह से बढ़ने लगा तापमान-यही है ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट। दुनिया के जंगल कार्बन-डाई-आक्साइड को सोख लेते थे और देते थे प्राणवायु, मगर जब हम अपने जंगलों की हत्या कर देंगे, तो उसे कौन सोखेगा और प्राणवायु आएगी कहाँ से? 

दुनिया भर में सरकारों ने जल, वायु, वन, ध्वनि आदि के संरक्षण हेतु कई अधिनियम और तरह-तरह के क़ानून बनाए, मगर उचित कार्यान्वयन कहाँ हुआ! राजनीति तो राजनीति है। कभी विकसित देश, कभी विकासशील तो कभी अविकसित। पाप करेंगे विकसित देश, परिणाम भुगतेंगे विकासशील और अविकसित देश। यह कहाँ का न्याय है? यह दो दुनियाओं का झगड़ा है। एक विकसित दुनिया, और दूसरी अविकसित दुनिया। अमेरिका में ही सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस है और सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है, लेकिन विकासशील देशों को मना करता है। यह पर्यावरण राजनीति है। नव-उदारवाद भी यही कर रहा है। भारत में मेक इन इण्डिया में उद्योग लगेंगे तो कहाँ लगेंगे? खेतों में या पेड़ काटकर ही तो उद्योग लगेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय बैठकों में भी सब विकसित देश अपने हितों का संरक्षण करते हैं। विकासशील और अविकसित देशों की बात कोई सुनता ही नहीं है, बोलने भी नहीं दिया जाता है। हाशिए पर बिठा दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में चल रही लड़ाइयों में भारी मात्रा में हथियार, गोला-बारूदों का उपयोग भी इस समस्याओं का बढ़ा रहा है। पृथ्वी के तापमान में हुई वृद्धि से उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों के बर्फ़ीले शिखर पिघलने लगे हैं, अगर अब भी हम नहीं सुधरे तो आगामी दस-बीस साल में महाप्रलय के लिए तैयार रहे। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 50-60 के दशक में ही इस समस्या की और ध्यान आकर्षित किया था। अब इसका इलाज केवल लोगों हाथ में है। लोग अपनी आवश्यकताएँ कम रखे, संयमित जीवन जिए, सामुदायिक यातायात के साधनों का उपयोग करे। अहिंसा-अपरिग्रह को अपनाये। 

यह सर्वविदित है कि हमारी पृथ्वी पर 97% जल नमकीन है, केवल 3 % पानी पीने योग्य-जिसका दो-तिहाई उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में जमा हुआ है, केवल एक-तिहाई पानी यानी 1% बचा है—जो नदियों, झीलों, कुओं और सरोवरों में आता है। इतने बड़े ग्रह पर इतना कम पेयजल ऊँट के मुँह में जीरे के तुल्य है। जीवन तब तक ही सम्भव है, जब यह पानी हमें मिलता रहे। पृथ्वी पर जल की एक-एक बूँद का बहुत ज़्यादा महत्त्व है। पृथ्वी की सतह, नदियों, झीलों, महासागरों से पानी वाष्पित होता है और ऊपर उठने लगता है आकाश में, बादल बनकर, गैस और वाष्प के रूप में। जो ठंडे होने पर काले-काले मेघ बनते है, और जब बूँदें भारी हो जाती है तो बरसने लगती है बूँदों, ओलों और बर्फ़ के रूप में। ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ के लेखक अमृत लाल वेगड़ ठीक ही कहते है कि बादल उड़ती हुई नदी है और नदी बहता हुआ बादल। जो पानी धरती पर गिरता है, वह कुछ पी लेती है—जो कुँओं और भूमिगत जलधाराओं में चला जाता है और जो बचा रहता है, वह सरपट दौड़ने लगता है नदियों और झीलों की तरफ़, जिसमें से कुछ हम अपने पीने के लिए प्रयोग करते हैं। यही है जल-चक्र, जल की एक बूँद पैदा होने से लेकर उसके अवसान और फिर से पुनर्जन्म की कहानी। हम जानते है कि दुनिया में हर जगह बराबर-बराबर बारिश नहीं होती है, कहीं ज़्यादा तो कहीं कम। कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि। चूँकि घर, कार्यालय और कारख़ानों में हमें पानी आसानी से मिल जाता है, इसलिए उसकी क़ीमत का पता नहीं चलता और जहाँ-तहाँ दुरुपयोग करने लगते हैं। 

नदियाँ पानी की धारा हैं, अक्सर पहाड़ों से निकलती है, तेज़ी से बहने लगती हैं, अपने साथ मिट्टी बहा ले जाती हैं और धीरे-धीरे विकसित होकर फैलते हुए धीमी पड़ जाती हैं। समुद्र के किनारे वे चौड़ी हो जाती है, कुछ पंखेनुमा डेल्टा बनाती हैं, जहाँ से समुद्र में मिलने के लिए कई रास्ते खोज लेती हैं। कभी-कभी ज्वार-भाटे के समय समुद्र का खारा पानी नदियों के मीठे पानी से मिल जाता है और वहाँ बन जाती है—एस्चूएरी—जैसे गंगा का सुंदरवन, जहाँ तरह-तरह के घोंघे, मछलियाँ, और केंकड़े मिलते हैं। 

शंकराचार्य के ‘नर्मदाष्टकम्’ में विश्व की सारी नदियों की महत्ता छुपी हुई हैं, प्राकृतिक सौन्दर्य, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, लोग-बाग, पक्षी-विहंग, पर्यटन, मनोरंजन, अध्यात्म, सब-कुछ तो तभी वे अपनी प्रार्थना में ‘नीरतीर-धीरपक्षि-लक्षकूजितं’, ‘सुमत्स्य-कच्छ-नक्र-चक्रवाक’, ‘त्वदम्बु-लीनदीन-मीन’, ‘किरात-सूत-वाडवेषु-पण्डिते-शठे-नटे’, का प्रयोग कर उनके महत्त्व से जन-साधारण को प्रेरित करते हैं। आज भी विदेशियों की तरह हम नदियों के बारे में इतने जागरूक नहीं है, अन्यथा आज हमारी नदियों की यह दुर्दशा नहीं होती है। जिस तरह हमारे देश में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता’ कहते हैं, मगर होता उल्टा ही है, उसी तरह यहाँ नदियों ‘हर हर गंगे’, ‘नमामि देवि नर्मदे’, ‘अमृतस्य नर्मदा’ बहुत कुछ कहते हैं, मगर उन्हें प्रदूषित करने से कहीं पीछे नहीं रहते। 

यही नहीं, नर्मदा नदी पर जगह-जगह बाँध बाँधने के कारण आस-पास के जंगल, गाँव, खेत-खलिहान, घर-बार आदि बहुत कुछ डूब क्षेत्र में आ गए और कितने ही लोगों का जीवन पूरी तरह से असहाय हो गया। न तो उन्हें पूरी तरह विस्थापित किया गया और न ही उनके पुनर्वास का उचित मुआवज़ा दिया गया। विस्थापन में कितना दुख होता है, यह वही जान पाता है, जिसने उसे झेला हो। विस्थापन के दौरान केवल एक घर ही नहीं उजड़ता है, वरन्‌ वहाँ की संस्कृति, भाषा-परिवेश, अतीत की स्मृतियाँ बहुत कुछ उजड़ जाती हैं, यहाँ तक कि उन्हें अनेक निद्राविहीन रातें गुज़ारनी पड़ती हैं। घाटी में आदिवासियों पर अत्याचार हुए। पुनर्वास-पुनर्स्थापना की प्रक्रिया में भयंकर भ्रष्टाचार हुआ। आदिवासियों के घर की हालत और पेड़़ गिनने की एवज़ में पैसों की वसूली की गई, ख़ूब जमकर मुर्ग़ा, दारू खाया गया। इस मर्मांतक अनुभूति को कवि आनंद ने प्रस्तुत किया हैं, अपने इन शब्दों में: 

“लहर तब छूती है पास की लहर को/तरंगों के आवर्तन खेलते हैं छप्-छप्/तट पर लगे-लगे/डुबा देते हैं पास के जंगल-गाँव/खेत-खलिहान घर-बार सब-कुछ/छररर-झरररर छररर-झरररर छररर-झरररर/मटमैला हो जाता है जीवन असहाय। /एक विचार की बाढ़ ही रह जाती है शेष/जो उतार पर जाने से पहले/प्लवन से विहंगम तोड़ नहीं डालती है/जीर्ण भारत का विकृत मन!/सोने पर नींद में खटकती है नर्मदा!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-32) 

जबकि आदिवासी, गाँव के लोग या नदियों के तट पर रहने वाले लोग नदी को अपना भगवान मानते हैं। उदाहरण के तौर पर, ‘इन द बेली ऑफ़ रिवर’ की लेखिका अमिता रविष्कर को सरदार सरोवर बाँध के सर्वेक्षण के सिलसिले में अंजनवाड़ा में उनकी गश्त के दौरान वहाँ के आदिवासी भिलाला जाति के पुजारी ने उन्हें बताया कि यहाँ के लोग नर्मदा को सभी देवताओं से बड़ा मानते हैं। वे जो कुछ चाहते हैं नर्मदा दे सकती है। उस पर लेखिका ने सवाल किया, “तुम्हें क्यों नहीं दिया?” पुजारी का उत्तर था, “हम नर्मदा के पेट में रहते हैं, इसलिए कभी सुनती है और कभी नहीं।” जो प्राकृतिक संपदाओं के प्रति उनकी उच्च कोटि की धारणाओं और समर्पण भाव दर्शाते हैं। अगर उनसे उनका यह वैभव छीन लिया जाए तो क्या मानवता का विनाश नहीं होगा? इसी तरह कवि आनंद की अन्य कविता से: 

“सततधार माता रेवा के तट पर बसने वाले जन वे/जीवन की गोदी में जैसे खेल रहे दुधमुँहे लाड़ से/विस्थापित कर उन्हें गोद से छीन रहे जो उनके वैभव/वे मानवता के विनाश के सबसे प्रबल प्रकट कारण हैं; (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-55) 

नंदिनी ओझा की पुस्तक ‘संघर्ष नर्मदा का’ में महाराष्ट्र के निमगव्हाण गाँव के आदिवासी नेता केशव भाऊ वसावे (जन्म-1950) और केवल सिंह वसावे (जन्म-1965) के साक्षात्कारों के आधार पर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के मौखिक इतिहास को लिपिबद्ध किया है। वासवे आदिवासियों को मध्य-प्रदेश में ‘भिलाला’, महाराष्ट्र में ‘पावरा’ और गुजरात में ‘राठवा’ नाम से संबोधित किया जाता है। ज़रा सोचिए, मेधा पाटकर ने इन लोगों को, जो न हिंदी जानते थे, न गुजराती और न मराठी उन्हें संगठित कर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया था। उनकी अपनी पावरी भाषा थी। यह आंदोलन 22 साल तक चला, 1995 से लेकर 2017 तक। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने बाँध के दरवाज़ों को बंद करने और पानी को138.68 मी के पूर्ण जलाशय तक भरने की अनुमति प्रदान की और सन्‌ 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर यह बाँध देश को समर्पित किया। सन्‌ 1999 में तो मेधा पाटकर ने घोषणा कर दी थी कि अगर 88 मीटर से ऊपर बाँध को निर्माण को मंज़ूरी दे दी गई तो वह जल समर्पण कर देगी। लेखिका अरुंधति राय ने उनके समर्थन में ‘रैली फ़ॉर द वैली’ का आह्वान किया था। जिसमें दुनिया भर के सैकड़ों लोग नर्मदा घाटी में जमा हुए। सन्‌ 2000 में नए आर एंड आर पैकेज की घोषणा की गई। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की भी भर्त्सना की गई। सितंबर 2002 में जल समर्पण के उद्देश्य से सर तक भर आए पानी में खड़े ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार करने में पुलिस के नाकाम होने के बाद डोमखेड़ी के लोग कार्यकर्ताओं को जल-समर्पण करने से रोक लेते हैं। इन सारे तथ्यों पर ओम प्रकाश शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘नर्मदा के पथिक’ में भी सविस्तार प्रकाश डाला है कि किस प्रकार दिग्विजय सिंह ने अपने मुख्यमंत्री काल में मेधा पाटकर और आदिवासी नेताओं केशव भाव वसावे के साथ सौहाद्रपूर्ण व्यवहार किया था, न कि सख़्ती बरती थी। दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा के दौरान मेधा पाटकर जब उनसे मिलने जाती है तो वे सारे दृश्य उनकी आँखों के सामने तरोताज़ा हो जाते हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘नर्मदा के पथिक’ पुस्तक के कुछ अंश: “हम गुजरात में नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई बढ़ाने से दुखी हैं। मध्यप्रदेश के विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिये सरकार ने कोई इंतज़ाम नहीं किये हैं। बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है कि नीमच और मंदसौर में भी दिल्ली मुंबई इंडस्ट्रियल कोरिडोर आ रहे हैं। इसके लिये नर्मदा का पानी उद्योगों को दिया जा रहा है। सरदार सरोवर बाँध से 5 करोड़ 41 लाख लीटर पानी रोज़ गुजरात के उद्योगों को देने का सरकार ने निर्णय लिया है। कच्छ, सौराष्ट्र और विदर्भ के लोग आक्रोशित हैं। मैं यही लड़ाई लड़ रही हूँ। गुजरात को ही सारा पानी क्यों? सरदार सरोवर इसलिये बनाया गया कि कच्छ और सौराष्ट्र को सूखा ग्रस्त होने के कारण पानी की ज़रूरत रहती है कांग्रेस और जनसंघ ने तत्समय इसकी ऊँचाई बढ़ाने का कड़ा विरोध किया था। वे अब यह नहीं देख रहे है कि 40 हज़ार परिवार आज डूब क्षेत्र में रह रहे हैं और उनका ठीक से पुनर्वास नहीं हुआ है। पैसा जो बाँटा, उसमें 1500 करोड़ से ज़्यादा का भ्रष्टाचार हुआ है। सात साल तक जाँच हुई है। 2000 पन्नों की रिपोर्ट आई है, जिसे सरकार हाथ लगाने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री जी का ऐसी स्थिति में बाँध का लोकार्पण करना और यह कहना कि अब बाँध पूरा हो गया, जबकि गुजरात में इकतालीस हज़ार किलोमीटर की नहरें बनना बाक़ी हैं। सरदार सरोवर के उस पार डाउनस्ट्रीम में नर्मदा 100 किलोमीटर तक पूरी सूख गई है। आगे जो पचास किलोमीटर है, उसमें समन्दर अन्दर आ गया गुजरात के लिये तो नर्मदा ख़त्म हो गई है। गेट खुले रखने ही पड़ेंगे। पूरी नर्मदा तालाबों में परिवर्तित हो रही है। सरदार सरोवर में तो एक बूँद पानी मध्यप्रदेश के लिए नहीं है। पानी खेतों में नहीं जा रहा है। उद्योगों को पानी देने के लिये नहरें नहीं बनाई जा रही हैं।” (‘नर्मदा के पथिक’, पृष्ठ-123) 

नर्मदा नदी का मानवीकरण करते हुए कवि आनंद लिखते हैं कि वह अपने बिछुड़े हुए प्रेमी की तलाश में इधर-उधर जंगलों में भटक रही है और थक-हारकर चुपचाप करवटें बदलती रहती है। उसके अपने सपने हैं, साफ़-सुथरा सुंदर दिखने के, मगर हम मनुष्य कहाँ उसका सपना पूरा करने देते हैं! आस-पास सीवरेज टैंक का दूषित पानी, खेती के कीटनाशक, डीडीटी, अर्ध-दग्ध लाशें, उद्योगों के रासायनिक उत्सर्जन, मछुआरों के जाल और काँटों में लगे सीसे के बटन, थर्मल संयंत्र से विसर्जित गर्म पानी आदि डालकर नर्मदा नदी को अनवरत सौंदर्य-विहीन करने में लगे हुए हैं। इससे बड़ा पाप क्या होगा? 

“लहरियों के आवर्तन छूते हैं आँचल/चकोहती बाँधती दुलार से/मकर-ग्राह-मत्स्य से भरी हुई/आदमी के पाप से डरी हुई/उतरती अपने सपनों के जल/मचलती/सोती है मणिपद्म रेवा!” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-38) 

इतिहास साक्षी हैं कि जहाँ-जहाँ नदियाँ रही हैं, उसके तटों पर अनेकों सभ्यताएँ पनपी हैं और उजड़ी भी हैं। देखते-देखते उनकी रौनक़ इतिहास के अँधेरे गर्त में समा गई। मानवीय उपभोगवादी प्रवृत्ति पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण होती है। ये नदियाँ इसी ओर इंगित करती है कि काश! आदमी अपनी आकांक्षाओं, लालसाओं पर लगाम लगा पाता तो शायद आज उनकी यह दुर्गति नहीं होती और उनके अस्तित्व पर संकट नहीं मँडरा रहा होता। कवि आनंद की पंक्तियों में: 

“इतिहासों का भयावह अन्धकार दबाए/अपने आँचल में ढाँपे/होंठों पर तर्जनी धरे हुए/पीछे मुड़कर अचानक चल देती हो!। मौन खड़ी एकटक बरजती/उद्दाम भोग के असुर को/तुम्हारे पीछे छप्-छड़ाप् करती भागती हैं/आकांक्षाओं की मछलियाँ/सत्त्व-रज-तम से प्रकृति को/मिलता नहीं छुटकारा/असुर है मन में छिपा हुआ/महत् का अहंकार बनकर/सर्वभक्षी दावानल/विस्फूर्जित विष-श्वास” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-50) 

ऐसे ही विचार उनकी अन्य कविता में उजागर होते हैं: 

“यह विश्व बेकल ज्ञान से अतिभोग से/पर छिन्न उसके जन सहज उपभोग से/यह शान्ति शव की है अशुभ/जीवन प्रखर उद्दाम का/है श्रेष्ठ कोलाहल, मगर ओ यक्षिणी, भाग्य में है क्या बदा? (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-77) 

कवि आनंद ने नर्मदा नदी के सौन्दर्य की गाथा नहीं गाई, बल्कि उसके श्री-हरण की व्यथा को भी प्रदर्शित किया है, वन-प्रांतर की महिमा को मिटते दर्शाया है और सारे सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक माहौल को ज़हरीला होते हुए भी देखा है। केवल सच्चे ज्ञान की कमी और अतिभोग के दृष्टिकोण से आज शिव की चेतनाहीन होकर शिव से शव बन गए हैं और नर्मदा शिव की पुत्री नहीं, बल्कि शिव के शव-वाहक। शिव का शव पूरी तरह अशुभ माना जाता है। नर्मदा की वर्तमान दुर्दशा और दुर्गति देखकर सौंदर्य जल में नर्मदा देखने वाला कवि आनंद के मन में निराशावादी स्वर मुखरित होने लगते हैं कि अब हमारे देश में नर्मदा जैसी कोई नदी नहीं है। वह अपने शाश्वत धाम में चली गई है। हम उसे आदर से नहीं रख पाए। वह हम सभी को छोड़कर चली गई हैं, हमारे लोभ-लालच से तंग आकर, हमेशा-हमेशा के लिए। और हम हैं कि न तो इस देश के बाशिंदे हैं और न ही यह देश छोड़कर कहीं बाहर गए हैं। न हमें अपनी पौराणिक संस्कृति का आता-पता है, न ही वैज्ञानिक संस्कृति का, केवल त्रिशंकु बनकर रह गए हैं। हम इतने ज़्यादा भौतिकवादी हो चुके हैं कि न तो नथ को छोड़ रहे हैं, न पाताल को, न ही किसी ऋतु को, न सुबह और न शाम। जबकि नर्मदा ने तो कितनों की प्यास बुझाई है और कितनों की बुझा रही है, इस देश में उसने कितनों पर अपनी अपार करुणा दर्शाई है और दर्शा रही है, दुर्गम बीहड़ के कंकड़ों-पत्थरों को भी सुडौल पार्थिव सौंदर्य की मूरत बना रही है, नव-सृजन कर रही है, कंकर से शंकर बनाकर। कंकर में शंकर का ध्यान धरते हुए कवि आनंद कहते हैं कि नर्मदा, भले ही, उसके शाश्वत देश में हो, मगर उसकी उपस्थिति इस पृथ्वी पर यत्र-तत्र-सर्वत्र अनुभव की जा रही है। उन्हीं के शब्दों में: 

“नर्मदा इस देश में नहीं है/वह वहाँ है जहाँ उसकी ज़रूरत है/क्योंकि नर्मदा अपने शाश्वत देश में है/हम कहीं नहीं हैं क्योंकि हम/अपने देश में नहीं हैं/जहाँ हमारी ज़रूरत है/नहीं हैं हम वहाँ पर भी नहीं हैं” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-68) 

जहाँ हम नदी को वैश्विक सार्वजनिक सम्पत्ति कहते हैं, वही कवि आनंद उसे कामधेनु की संज्ञा देते हैं कि यह नदी तो मरुस्थल को हरीतिमा में बदल देती है और अपने शाश्वत कृपा से पृथ्वी के सारे दुखों का हरण करती है। उसके बाद भी हम उसके महत्त्व को समझ नहीं पाते हैं। इससे बड़ा और क्या दुर्भाग्य होगा! और उससे मुँह फेरकर बैठते हैं। जो भी नदियों के साथ खिलवाड़ करेगा, उसका हश्र एक, दो को नहीं वरन् सभी को भुगतना पड़ेगा। टायफाइड फीवर, कोलेरा (हैजा), पेचिश और पेट की बीमारियों के रूप में। जल-प्रदूषण के कारण लगभग प्रतिदिन 14,000 लोगों की मौत हो रही है क्योंकि औद्योगिक संस्थाओं का उत्सर्जन या तो सीधे नदियों में होता है या फिर ज़मीन पर, जो फिर बारिश होने पर नदियों के अंदर ही मिल जाता है, जिससे लेड, आर्सेनिक, मर्करी, ज़हरीले रसायन, धातु, तेल आदि अशुद्धियाँ नदियों में मिलने लगती हैं। प्राकृतिक रूप से जल-प्रदूषण जल में भूक्षरण खनिज पदार्थ, पौधों की पत्तियों एवं ह्यूमस पदार्थ तथा प्राणियों के मल-मूत्र आदि के मिलने के कारण होता है। खेतों में सिंचाई हेतु पानी लेने से नदी के नीचे वाले इलाक़े में पानी कम होगा, जिस वजह से वेटलैंड और दलदली इलाक़े प्रभावित होंगे, जिससे जल-पखेरू प्रभावित होंगे। यही नहीं, कृषि में इस्तेमाल होने वाले रासायनिक पेस्टीसाइड, इंसेक्टीसाइड, हर्बीसाइड आदि बारिश में धुलकर नदियों में मिल जाते हैं, जिसकी वजह से वहाँ का जलीय जीवन प्रभावित होता है। मत्स्य-पालन में प्रयोग होने मछली-काँटों में पक्षियों के पंख फँस जाते हैं, और मछली-काँटे के सीसे का भार से न केवल जल दूषित होता है, बल्कि अगर जलीय जीव निगल जाए तो वे भी दूषित हो जाएँगे। पर्यटन के कारण भी पानी दूषित होता है, बोटिंग, सैलिंग, सायकलिंग और भ्रमण से भी वातावरण प्रभावित होता है। थर्मल प्लांट में बॉयलर से पानी को गरम कर वाष्प से टरबाइन चलाई जाती है और गरम पानी फिर से नदी में छोड़ दिया जाता है, जिससे भी जलीय जीवन प्रभावित होता है। इस विसंगति और विद्रूपता को कवि आनंद उजागर करते हैं:

“यह नदी ही कामधेनु है/क्योंकि जल का वस्त्र पहने/मरुस्थल को भाषा दे देती है। /पृथ्वी का दुख कम करती/शिव की तनया यह/शाश्वत कृपा भरी आविष्ट/महिमा-सी दरवाज़े पर खड़ी/हम ही तो मुँह फेर/बैठे हैं रूठे हुए” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-70) 

इसी तरह कवि इस संग्रह के ‘नदी-सूक्त’ में रहते हैं कि अगर यह नदियाँ नहीं होती तो क्या ये शहर, ये गाँव, यह रसमय जीवन, उमसती पर्यजन्य, जंगल-झाड, घाटी-डंगर हो पाते? अगर ये नदियाँ नहीं होती तो न जल होता, न नाँव होती और परिक्रमा की तो बात ही छोड़ो। कवि के शब्दों में: 

“तुम न होती तो कहाँ होते/ये गाँव ये शहर/और तब कहाँ होता उनका रसमय जीवन/कहाँ होती उमसती बरसात/झाड़ियाँ, जंगल, पगडंडियाँ, /वे डगर वे घाटियाँ” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-87) 

यमुना नदी में जल प्रदूषण से दुखी होकर नदी को देवी का दर्जा देने वाले कवि आनंद उसे दिल्ली का मल ढोने वाली मेहतरानी की संज्ञा देते हैं और उसके दर्द में डूब जाते हैं। और पीड़ित नदी से कहते है कि यह दर्द बना रहना चाहिए। इस काव्य-संग्रह के परिशिष्ट में कवि आनंद इस तरफ़ पूरे देश का ध्यानाकर्षित करते हैं अर्थात् हम जानते हैं कि ऋषिकेश में, हरिद्वार में, बनारस में गंगा जी की आरती नित्य संध्या को नर्मदा की तरह होती है। किन्तु गंगा जी नित्य ही नष्ट हो रही हैं। यमुनोत्री में यमुना जी की भी इसी प्रकार आरती होती है किन्तु यमुना जी भारत की राजधानी में ही एक चौड़ा गंदा नाला हैं। यह भारत की संसद के पास ही है। दुनिया के महान आश्चर्यो में से एक जहाँ ताजमहल है उस आगरा तक आते-आते यमुना जी में कीचड़ के सिवा कुछ नहीं हैं। कवि के शब्दों में: 

“काले नाले की परछायी-सी तुम/रुकी हुई दिल्ली की गलियों का/ढो रही मल/शताब्दियों से राजों-रजवाड़ों ने किया/तुमसे यही छल/तुम सोती हो सो जाओ/पर, अपनी व्यथा को जागने दो/रात भर!/कभी तुम्हारे काले जल में वनमाली/कृष्ण की कालिमा थी/साँवले सलोने की, अब राजधानी ही/कर रहीं तुम्हें काली! (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-90) 

इसी तरह क्षिप्रा नदी के अतीत गौरव की याद दिलाकर उसके सूखने और तवा नदी के कुरूप बेडौल अवस्था देखकर भी कवि आनंद खिन्न है। सन्‌ 2004 में भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में से एक अवन्तिका अर्थात् उज्जैन में पवित्र क्षिप्रा में नहाने के लिए जल नहीं था। वहाँ पर सूखी हुई क्षिप्रा में ट्यूबवैल लगाकर जल की किसी तरह व्यवस्था की गई। कुछ वर्ष पहले तीर्थराज प्रयाग में कुंभ मेले में स्नान के लिए स्नानार्थियों ने गंगा जी में जल छोड़ने के लिए आन्दोलन किया। नासिक में गोदावरी का भी वही हाल है। सरस्वती नदी तो पहले ही सूख चुकी है। सिंधु और कावेरी की दशा भी दयनीय है। एकमात्र यही नर्मदा है जिसमें जल है। कवि आनंद का यह दुख इन पंक्तियों से आप अच्छी तरह समझ पाएँगे। 

“भोगे हैं न जाने कितने ही दुख के पल/रोते हुए निष्कासित कालिदास निस्सम्बल/पोंछती हुई उनके आँसू हज़ार बार/मैंने ही अशोक का तोड़ा था नरकागार/देखा था पहले वो कहाँ राजा विक्रम है/झूठे हैं सिंहासन्‌, सिंहस्थ विभ्रम है/साधू हैं नागा हैं जोगी-बैरागी हैं/हवा है, तरंग है, मेला है, आगी है/लेकिन, यह सूखी नदी की उतारन है/देखो न क्षिप्रा का गतगौरव जीवन है” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-94) 

नर्मदा की सहायक नदी तवा की हालत के बारे में भी कवि ने जायज़ा लिया है: 

“सुरम्य वनराजियों/और पहाड़ी डगर से सँभलकर निकलती/तन्वंगी बँधी हुई मायावी बाँधों में/गतयौवन बेडौल अपरूपा/अभिशप्त अपने ही जल से/रिसती हो बेढंगी/छोटी-छोटी धाराओं में बँटी हुई” (सौन्दर्य जल में नर्मदा, पृष्ठ-95) 

नर्मदा घाट पर हो रही प्रार्थना के नाम पर पथभ्रष्ट और कृत्रिम श्रद्धालुओं के विचलन पर प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। वे इस काव्य-संग्रह के परिशिष्ट ‘नर्मदा के घाट पर प्रार्थना’ अध्याय में लिखते हैं: 

“दिव्य चेतना वाली इसी सूक्ष्म शिवकन्या को हम अपने अंग-प्रत्यंग में समाहित करते हैं उसका चैतन्यस्पर्श करते हैं। आरती करते हैं, प्रसाद बाँटते हैं और संतुष्ट होकर घर लौटते हैं। भोजन करते हैं और माँ नर्मदा की महान कृपा का स्मरण करते हुए सो जाते हैं। फिर सुबह को उसी नदी में हम अपनी भयानक गंदगी भी बिना किसी हिचक के डालते हैं, कचरा फैलाते हैं, अधजले शव भी फेंकते हैं, पालीथिन सहित सड़े फूल भी डालते हैं। अर्थात् एक अत्यंत उपयोगी नदी को रोज़ मारते हैं फिर शोकगीत भी गाते हैं। यही तो क्रम है। वर्षों से चला आने वाला क्रम। हर घाट पर लगभग हर पवित्र नदी के साथ हम यही कर रहे हैं। एक यान्त्रिक कर्म। जिसकी हम पूजा करते हैं उसी के साथ दुर्व्यवहार भी हमारे नित्य कर्म में जुड़ा है। जिस देवता की आराधना करते हैं उसी की उपेक्षा भी। मानों इन दोनों में कोई विरोधाभास हमें समझ में नहीं आता।” 

बिगड़े हुए पर्यावरण को सुधारने के पाश्चात्य दृष्टिकोण पर भी कवि आनंद ने गहन चिंतन किया है। आज वहाँ पॉलिटिक्स ‘ग्रीन पॉलिटिक्स’ बन गई है और वे लोग भी समझ गए हैं कि पर्यावरण का सवाल अब कोई छोटा-मोटा सवाल नहीं रह गया है। केवल जीव-जंतुओं के अस्तित्व का ही नहीं, बल्कि पूरे पृथ्वी के अस्तित्व पर मौत का साया मँडरा रहा है और आधुनिक भौतिक वैज्ञानिक डॉक्टर फ्रिजॅाक काप्रा के अनुसार उससे बचने का एकमात्र तरीक़ा है, वर्तमान जीवन के दृष्टिकोण में बदलाव लाना, जिसे ‘परसेप्शन ऑफ़ क्राइसिस’ कहते हैं। आज जीवन दृष्टिकोण आउटडेटेड हो चुका है और उसमें सख़्त परिवर्तन यानी रेडिकल चेंज की ज़रूरत है अन्यथा कवि आनंद के शब्दों में, हम रोज़ नदियों को मरते हुए देखेंगे। हम रोज़ विचार भी करेंगे किन्तु हम इसे बचा नहीं पायेंगे। क्यों? क्योंकि हमारे आरती करने से नदी नहीं बचेगी। वह तो तब बचेगी जब हम उसके पर्यावरण को बचा सकेंगे। क्योंकि नदी मात्र उतनी ही नहीं है कि जितनी दिखती है। वह तो एक पर्यावरणीय समग्र अपवाह तन्त्र है जिसके दोनों तटों का भूगोल अपने समस्त वानस्पतिक वैभव के सहवर्तन में साँस लेता है। महात्मा गाँधी कहते थे कि पृथ्वी हमारी ‘नीड’ (आवश्यकता) पूरा कर सकती है, मगर ‘ग्रीड’ (लालच) नहीं। सोचिए गाँधीजी कितने बड़े पर्यावरणविद थे! अमिता रविष्कर अपनी पुस्तक ‘इन द बेली ऑफ़ रिवर’ में गाँधीजी के 5 अक्टूबर 1945 को नेहरू को लिखे गए पत्र का उल्लेख करती है कि जिसमें गाँधीजी स्वतंत्र भारत के बारे में अपने सपनों के बारे में लिखते हैं: 

“मुझे विश्वास है कि अगर भारत को सच्ची आज़ादी मिली और भारत की तरह शेष विश्व भी, आज नहीं तो कल, गाँवों में रहना सीखेगा, झोंपड़ियों में, न कि महलों में। अरबों आदमी और औरतें महलों और शहरों में ख़ुशी और शान्ति से नहीं रह सकते। मेरे सपनों में मेरे गाँव है। वहाँ के लोग असहनशील नहीं होंगे। वे किसी अँधेरे गंदे कमरे में दिन नहीं बिताएँगें। वे आज़ादी से रहेंगे और पूरे विश्व का मुक़ाबला करने के लिए तैयार मिलेंगे। उन गाँवों में हैजा, चेचक, प्लेग की बीमारियाँ नहीं होगी। कोई भी विलासिता का जीवन नहीं बिताएँगे। ऐसा सोचने पर मुझे लगता है कि कई चीज़ें हमें वृहद् स्तर पर बनानी होगी। रेलवे, पोस्ट या टेलीग्राम आदि। क्या होगा या क्या नहीं, मैं नहीं जानता और मुझे उसकी परवाह भी नहीं है। अगर मैं मुख्य बिंदु तक पहुँच गया तो बाक़ी सारी चीज़ें अपने आप आ जाएगी और अगर मैंने उसे छोड़ दिया तो सब-कुछ बिखर जाएगा।” 

नेहरूजी गाँधीजी से सहमत नहीं थे। उन्होंने उत्तर दिया था, “बहुत लंबा अर्सा हो गया, मुझे आपकी ‘हिंद स्वराज’ पढ़े हुए और अब मेरे दिमाग़ में उसकी धुँधली तस्वीर नज़र आती है। बीस साल या उससे ज़्यादा साल पहले जब मैंने उसे पढ़ा था तब भी वह मुझे पूरी तरह अवास्तविक लगी थी। एक गाँव जिसे हम कह सकते हैं—बौद्धिक और सांस्कृतिक तरीक़े से पिछड़ा हुआ। और पिछड़े वातावरण से कभी कोई उन्नति नहीं की जा सकती।” 

इंदिरा गाँधी ने भी स्टॉकहोम में इसी पंक्ति को दोहराया था कि पॉवर्टी इज़ द वर्स्ट पॉल्यूटर। कवि आनंद भी गाँधी जी की इस बात को इन शब्दों में दोहराते हैं, “वस्तुतः विश्व यंत्र नहीं है जिसके पुर्जों में आपसी संवेदना और संप्रेषण भी नहीं, बल्कि, वह जीवन्त घटनाओं का महातन्त्र है जिसके पीछे चेतना के अपरिमित और अज्ञात मन्त्र हैं जिनसे घटनाएँ सूक्ष्मातिसूक्ष्म तौर पर नियंत्रित हो रही हैं।” 

नार्वे के पर्यावरणविद् दार्शनिक अर्न नेस ने पर्यावरण-बोध को दो भागों में बाँटा। छिछला पर्यावरण-बोध और गहरा पर्यावरण बोध। छिछला पर्यावरण-बोध मानव केंद्रित होता है यानी मनुष्य प्रकृति को उपभोग के माल की तरह इस्तेमाल करता है, जबकि गहरे पर्यावरण-बोध में पृथ्वी पर जीवन केंद्र में आ जाता है यानी मानव प्रकृति के साथ अपने आत्मीय सम्बन्ध खोजता है। उनका काम नार्वे में विवादास्पद रहा। उन्होंने भेड़ियों को बचाने के लिए अभियान शुरू किया था, जिस कारण वहाँ के किसानों और उनका साथ देने के लिए मछुआरों ने भी विद्रोह कर दिया। अथर्ववेद में कहा गया है, “माता भूमि: पुत्रोहम् पृथ्विया:”, और भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ के साथ-साथ सभी जीवों में उपस्थित परमात्मा के दर्शन की वकालत करते हैं अर्थात् ‘आत्मवत सर्व भूतेषु य: पश्यति स पंडित’। भले ही, ये भाव शहरियों में नज़र न आए, मगर प्रकृति-संतान आदिवासियों में अवश्य नज़र आता है। उदाहरण के तौर पर, बस्तर की एक आदिवासी औरत ने जंगल बचाने की गुहार की। उससे किसी ने पूछा, “क्या होगा अगर जंगल नहीं होंगे?” तो उसका उत्तर था, “भगवान महाप्रभु और धरती माता हमें छोड़ कर चले जाएँगे और हम मर जाएँगे। वह यहाँ बैठकर बातें कर रहे हैं, इसलिए धरती माँ यहाँ पर है।” इस तरह वे लोग प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में प्रभु के दर्शन करते हैं, नार्वे के पर्यावरणविद अर्न नेस के अनुसार यह ‘डीप इकोलॉजी’ है। 

गाँधीवादी ई.एफ़. सचुमचेर की बहुचर्चित पुस्तक ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ में उल्लेखित बिंदुओं में मशीनें और उत्पादन सस्ता हो, विकेंद्रित हो, कम ऊर्जा का प्रयोग करें और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहें आदि प्रमुख है। इसी तरह, राचेल कार्सन की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’, जिसे आधुनिक पर्यावरण विज्ञान की बाइबल कहा जाता है, सन्‌ 1962 में प्रकाशित हुई थी, जिसकी वजह से पर्यावरण मुद्दों को लेकर नॉर्थ अमेरिका और यूरोप में कई बड़े-बड़े आंदोलन हुए। इस पुस्तक में अनियंत्रित आर्थिक वृद्धि के कारण प्राकृतिक संपदाओं तथा मानव स्वास्थ्य के प्रति गंभीर परिणामों को दर्शाया गया था। 1980 के दशक में भारत में ‘चिपको आंदोलन’, ‘गंगा एक्शन प्लान’, ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ भी इसी वैश्विक चेतना के परिणाम थे। 

गाँधी जी अक्सर कहा करते थे कि भगवान करे, भारत पश्चिम की अंधी नक़ल न करे और न ही सामूहिक उपभोक्तावादी समाज का निर्माण, जिसमें सदस्य अपनी कार ख़ुद चलाएँ, वातानुकूलित घरों में रहें, फ़ैंसी रेस्टोरेंट में खाना खाएँ और छुट्टी के दिनों में परिवार के साथ देश-विदेश का भ्रमण करें। महात्मा गाँधी ने अमेरिका या ब्रिटेन के औद्योगिकरण के विकास मॉडल नहीं अपनाने के लिए हमें सचेत किया था, क्योंकि पश्चिमी देशों ने पहले से ही यूरोप से अलग बाहरी जातियों का शोषण करने के लिए टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट दिया था और अभी उनकी तरह खोजने के लिए कोई नई दुनिया नहीं बची है। जब इंग्लैंड जैसे एक छोटे टापू के कुछ हज़ार लोगों ने अपनी हवस और लोभ के ख़ातिर पूरी दुनिया को ग़ुलाम बना दिया था तो ऐसी अवस्था में 30 करोड़ भारतीयों (महात्मा गाँधी के ज़माने की जनसंख्या) की विशाल जनसंख्या अपने स्वार्थ-पूर्ति के लिए पूरी पृथ्वी की सारी संपदाओं पर टिड्डी दल की तरह टूट पड़ेगी और अवशेष में मिलेंगे पृथ्वी पर ठूँठ-ही-ठूँठ। 

रोमन कवि वर्जिल (70-1BC) और भारतीय संस्कृत नाटककार कालिदास (AD 375-415) ने अपनी कविताओं में प्राकृतिक सौंदर्य को विशेष स्थान दिया था। उनके काव्यों में तत्कालीन पशु-पक्षी, नदी-झरने, खेत-खलिहान सभी को प्रमुखता से उभारा गया है। इसी तरह मध्य युग में एशिया और अमेरिका के यूरोपियन यात्रियों ने प्रकृति के सौंदर्य और विविधता को अपने संस्मरणों में उजागर किया। यही नहीं, यूरोपीय वैज्ञानिकों में अँग्रेज़ चार्ल्स डार्विन का नाम उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के जानवरों और पेड़ पौधों पर विस्तार से डॉक्यूमेंटेशन करने के लिए स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। 

विश्व के पर्यावरणविदों के प्रथम चरण में प्रमुख नाम विलियम ब्लैक, विलियम वर्ड्सवर्थ, और उपनिवेशवाद के बाद ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले महात्मा गाँधी का लिया जा सकता है। विलियम ब्लैक ने औद्योगिक मिलों को शैतानी मिलें कहा था और अपने आंदोलन में ‘भूमि पर लौटो’ की संज्ञा दी थी। इसी तरह उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स और राजनीतिक चिंतक फ़्रेडरिक एंजेल ने कारख़ानों को बदबूदार प्रदूषित कार्य-प्रणाली और जीवन-शैली को अपने उपन्यासों और आलेखों में वर्णित किया है। इसी तरह महात्मा गाँधी ने नैतिकता के आधार पर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाली धारणा को अमल में लाने की सलाह दी। 

विलियम वर्ड्सवर्थ (1770-1850) ने अपनी कविताओं में प्रकृति को सबसे ज़्यादा महत्त्व दिया। अपने जीवनकाल में उन्होंने इंग्लैंड में 175000 मील पैदल यात्रा की और साहित्यकार इतिहासकार जोनथन बैट लिखते हैं कि इन यात्राओं से उन्होंने अपने पाठकों को प्रकृति के साथ चलना सिखाया। अपनी यात्राओं में विलियम वर्ड्सवर्थ ने अमृतलाल वेगड़ की तरह नर्मदा के सौन्दर्य जैसे उजले पक्ष पर नहीं लिखा, बल्कि औद्योगिक क्रांति के महापरिवर्तन के अँधेरे पक्ष को उजागर किया कि किस प्रकार महानगरों और कारख़ानों के कारण प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा है, जिसके कारण आज आम आदमी को ‘शुद्ध हवा’ और घूमने के लिए दूब-घास वाली हरित पट्टी नसीब नहीं हो पा रही है। भले ही, गाँव के लोग अनपढ़ होते हैं, मगर शहरियों की तुलना में प्रकृति के ज़्यादा नज़दीक होते हैं। उनकी कविता ' And that man errs’ से:

That the green Valleys, and the Streams and Rocks
Were things indifferent to the Shepherd's thoughts. 
Fields, where with cheerful spirits he had breathed
The common air; the hills which he so oft
Had climbed with vigorous steps; which had impressed
So many incidents upon his mind
Of hardship, skill or courage, joy or fear; 
Which like a book preserved the memory
Of the dumb animals, whom he had saved, 
Had fed or sheltered। these fields, these hills
Which were his living Being, even more
Than his own Blood-what could they less? had laid
Strong hold on his affections, were to him
A pleasurable feeling of blind love, 
The pleasure which is there in life itself

विलियम वर्ड्सवर्थ नहीं चाहते थे कि लेक डिस्ट्र: में रेलवे का आगमन हो, और उस वजह से उस इलाक़े की सुंदरता और संप्रभुता ख़तरे में पड़ जाए। सन्‌ 1842 में प्रकाशित उनकी चहेती पुस्तक का शीर्षक भी अजब था और बहुत ही दीर्घ भी, “A Complete Guide to the Lakes, Comprising Minute Directions for the Tourist, with Mr Wordsworth's Description of the Scenery of the Country, etc। And Three Letters on the Geology of the Lake District, by the Rev. Professor Sedgwick, Edited by the Publisher” 

उनकी पुस्तक ‘रोमांटिक इकोलॉजी’ के बारे में जोनथन बैट कहते हैं कि वर्ड्सवर्थ वेस्टमोरलैंड और कुंबरलैंड की पहाड़ियों पर ग्वालों को काम करते हुए देखकर ख़ुश होते थे, जो कि अमेरिकन मॉडल से पूरी तरह भिन्न था। उनके समकालीन कनिष्ठ जॉन क्लेयर ने भी पल्ली जीवन को अपनी कविताओं में उतारा। उनकी कविता “The Village Minstrel” से:

There once were lanes in nature's freedom dropt, 
There once were paths that every valley wound 
Inclosure came, and every path was stopt; 
Each tyrant fix'd his sign where paths were found, 
To hint a tresspass now who cross'd the ground: 
Justice is made to speak as they command; 
The high road must now be each stinted bound: 
-Inclosure, thou'rt a curse upon the land, . . . 
And tasteless was the wretch who thy existence plann'd. 
Ye fields, ye scenes so dear to Lubin's eye, 
Ye meadow-blooms, ye pasture-flowers, farewell! 
Ye banish'd trees, ye make me deeply sigh, 
Inclosure came, and all your glories fell. 

अगली शृंखला में रोमांटिक पर्यावरणविद् में जॉन रस्किन (1819-1900) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, जो कभी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में काव्य के आचार्य हुआ करते थे। वे सोचते थे कि आधुनिक नगर उन प्रयोगशालाओं की तरह है जिसमें ज़हरीले धुएँ और जानवरों की गंदगी से दुर्गंधित और चेचक जैसी संक्रामक बीमारियों पर प्रयोग किए जा रहे हों। उन नगरों में हवा पूरी तरह बदबूदार है और इंग्लैंड की प्रत्येक नदी गटर बन गई है, जिससे तुम अपने बच्चों को एक घूँट पानी नहीं पिला पाओगे, जब तक कि फिर से बारिश न हो जाए। और वह भी होगी गंदी और तेज़ाबी। रस्किन ने कई संस्थान खोले, दुनिया को अपनी विलुप्त होती पुरानी ख़ुशबू से बचाने के लिए, सेंट जॉर्ज नामक गिल्ड की स्थापना की, जो स्वावलंबी और सादगी से अपने खेतों में काम करने का उदाहरण प्रस्तुत करती थी। सके हैंडीक्राफ्ट को उनके शिष्य विलियम मॉरिस ने प्रमोट किया और उनके मित्र एडवर्ड कारपेंटर ने ‘भूमि पर लौटो’ आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दिया। इसे हेतु पादरी बनने जा रहे गणितज्ञ कारपेंटर ने देवी आजा को ठुकराते हुए कैंब्रिज फ़ैलोशिप से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर कारख़ानों वाली नगरी शैफील्ड के पहाड़ों पर अपना आश्रम बनाया, ताकि औद्योगिक सभ्यता के विकल्प के रूप में उसे प्रस्तुत किया जा सके। शुद्ध हवा में श्रमिकों को काम करते हुए दिखाया जा सके। 

उन्होंने 1882 में ‘सिविलाइज़ेशन: इट्स कॉजेज एंड क्योर’ नामक पुस्तक लिखी, जिसका एक ख़ास प्रशंसक थे बीस वर्षीय भारतीय, वे और कोई नहीं बल्कि मोहनदास करमचंद गाँधी थे। जो उनके शिष्य हेनरी साल्ट के नज़दीकी बने और उनकी ‘जर्नल ऑफ़ वेजिटेरियन सोसाइटी’ में अपना योगदान देने लगे। गाँधी जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में रस्किन की पुस्तक ‘अनटू द लास्ट’ और कारपेंटर की पुस्तक ‘सिविलाइज़ेशन: इट्स कॉजेज एंड क्योर’ के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त किया है। रस्किन और मॉरिस की तरह गाँधीजी शहरों और कारख़ानों को कुकरमुत्ते की तरह पनपते देखकर कहते थे—‘गाँव का ख़ून सहारों और कारख़ानों की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं और चिमनियों का सीमेंट बना हैं। ‘

अमेरिकन राल्फ वाल्डो एमर्सन और हेनरी डेविड थोरो ने भी सादा जीवन जीने का संदेश दिया। एमर्सन आश्वस्त थे कि पूरी दुनिया एक ही रस्सी से बँधी हुई है। यह रस्सी हमारे चारों ओर की प्रकृति है। उनका मानना था कि प्रकृति परमेश्वर की अभिव्यक्ति है और वह प्रकृति का ही ध्यान करते थे। कॉनकॉर्ड के पास स्थित वाल्डेन तालाब और सन्निकट जंगल में वह हर दिन जाते थे। वह बहुत समय तक झील, घास और पेड़ों को निहारते रहते थे, जिसे उन्होंने अपनी पत्रिका में लिखा है। 1848 में फ्रांसीसी क्रांति के समय क्रांतिकारियों ने कई पेड़ों को काटकर सड़कों को ब्लॉक करने के लिए उनका इस्तेमाल किया। उन्होंने अपने जर्नल में निम्नलिखित प्रश्न उठाया था: “क्या क्रांति पेड़ों की क़ीमत पर उचित थी?” 

इसी तरह, हेनरी डेविड थोरो (1817-1862) अमेरिका के सबसे प्रसिद्ध दार्शनिकों और लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने व्यक्तियों के अलग-अलग अस्तित्व और प्रकृति के साथ अंतरंग सह-अस्तित्व पर अपनी प्रगाढ़ आस्था व्यक्त की थी। उन्होंने अपने हाथों से एक छोटी-सी झोपड़ी बनाकर मैसाचुसेट्स के कॉनकॉर्ड निकट वाल्डेन नामक जगह पर पूरे दो साल अकेले बिताए थे। थोरो कॉनकॉर्ड में पैदा हुए थे और हार्वर्ड में शिक्षित। 1830 के दशक के अंत से 1840 के दशक की शुरूआत तक स्कूल में पढ़ाने के साथ-साथ निजी ट्यूशन में व्यस्त थे। थोरो 1841 और 1843 के बीच प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक और निबंधकार राल्फ वाल्डो एमर्सन के घर में रहते थे। उस समय अमेरिका में एमर्सन के मार्गदर्शन में ‘ट्रांसिंडेंटलिस्ट’ या ‘उत्तरणवाद’ सामाजिक दर्शन के रूप में प्रसिद्ध हो गया था। इस दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार—“भगवान प्रकृति के प्रत्येक वस्तु में मौजूद है”। उनका यह भी विश्वास था कि दिव्य शक्ति हर व्यक्ति के अंदर मौजूद है और वह अपनी अंतरात्मा की आवाज़ के अनुसार काम करके मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकता है। एमर्सन, थोरो, शिक्षाविद् और दार्शनिक ब्रॉन्सन अल्कोट के अलावा, सामज सुधारक मार्गरेट फुलर और साहित्यिक आलोचक जॉर्ज रिकली ने भी इस दृष्टिकोण पर विश्वास किया। 

एडवर्ड कारपेंटर ने पहाड़ी के आश्रम से नीचे देखा कि कल-कारखानों की नगरी शैफील्ड की ओर, उनके मुँह से निकला कि धुएँ के इतने बड़े काले-घने बादल में मनुष्य कैसे जी पाएँगे? जिसकी वेदी का धुआँ स्वर्ग तक जा रहा हो। वास्तव में उधर वेदी ऐसी लग रही थी, जहाँ मानो हज़ारों ज़िन्दा ज़िंदगियों की आहुति दी जा रही हो। इधर पहाड़ी में मेरे पीछे सूरज चमक रहा है। चिड़ियाँ चहचहा रही हैं। उधर मेरे नीचे हज़ारों वयस्क लोग, बच्चों को तो छोड़ दीजिए, धूप की एक झलक पाने के लिए तरस रहे हैं। उनका दम घुट रहा है। रोशनी की कमी और हवा में दुर्गंध के कारण तरह-तरह की बीमारियों से मर रहे हैं, मगर किसके लिए? कुछ लोगों को पैसे वाला बनाने के लिए। 

इस तरह 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विलियम वर्ड्सवर्थ, रस्किन, मॉरिस, कारपेंटर के आलेखों ने समाज में पर्यावरण-चेतना को जन्म दिया। उदाहरण के लिए कॉमन्स प्रिज़र्वेशन कमेटी, लेक डिस्ट्रिक्ट डिफ़ेंस कमेटी, सेलबोर्न लीग, कोल स्मोक अबेटमेंट कमेटी, ऑक्टेविया हिल की नेशनल ट्रस्ट (1838-1927)। गाँधीजी के अनुयायी अर्थशास्त्री जे.सी. कुमाराप्पा ने गाँवों की पुनर्संरचना के दौरान पाया कि केवल कृषि ही एक ऐसा धंधा है, जिस पर स्थायी रूप से अर्थव्यवस्था टिक सकती है, इसलिए कृषि को सबसे बड़े व्यवसाय का दर्जा देना चाहिए, क्योंकि कृषि सभ्यता में प्रकृति के साथ ज़्यादा खिलवाड़ नहीं होता है। और अगर थोड़ा बहुत होता भी है तो वह नेचुरल म्यूटेशन है। एक किसान प्रकृति को सहयोग करता है, अल्प समय के लिए सही, मगर जिसका प्रभाव दीर्घकाल तक व्याप्त रहता है। जबकि औद्योगिक समाज में प्रकृति के साथ हिंसक व्यवहार किया जाता है, माँग नहीं होने के बाद भी उत्पाद पैदा किया जाता है और चतुर विज्ञापनों के माध्यम से माँग को कृत्रिम तौर पर पैदा किया जाता है। 

अमेरिका के प्रथम चरण के पर्यावरणविद् जॉर्ज पर्किंसन्‌ मार्श की पुस्तक ‘मैन एंड मेच्योर:फिजिकल ज्योग्राफी एज मोडिफाइड बाय ह्यूमन‘ में वैज्ञानिक संरक्षण पर बल दिया गया। इधर तेज़ी से जंगल की कटाई, खेती का उपनिवेशीकरण और औद्योगिक विकास से मृदा अपरदन बढ़ा और उधर बारिश कम हुई। विश्व में जंगलों की कटाई के बारे में जर्मन वैज्ञानिक एवं अन्वेषक–अलेक्जेंडर वॉन हंबोल्ट (1769-1859) ने वेनेज़ुएला झील पर अपने निष्कर्ष लिखे। जंगलों के काटने के कारण और इंडिगो की खेती के कारण पचास साल के अंदर वह झील सूख गई। पहाड़ों के पेड़ काटकर मनुष्य एक साथ दो विपदाओं को आमंत्रित करते हैं, आने वाली पीढ़ियाँ के लिए, पहला, ईंधन की कमी और दूसरा, पानी का अभाव। 

सामाजिक कार्यकर्ता ज्योतिबा फूले ने अँग्रेज़ों द्वारा भारत में वन-विभाग की स्थापना पर एक जगह लिखा है कि गाँवों में जिन लोगों के पास खेती नहीं हैं, वही लोग केवल जंगली फल अंजीर और बेर खाते हैं, महुआ के फूल और पत्तियाँ बेचते हैं। अगर उन्हें एक-दो गाय और दो-चार बकरियाँ मिल जाए तो वे अपने पैतृक गाँव में ख़ुशी से रह सकते हैं। मगर अंग्रेज़ी सरकार के चतुर यूरोपियन लोगों ने अपना विदेशी दिमाग़ लगाकर वन-विभाग की स्थापना की, ताकि सारे पहाड़, खेती-बाड़ी, चारागाह आदि सब उनके नियंत्रण में आ जाए। जो कभी ग़रीब किसानों के लिए जीवन जीने का स्रोत हुआ करता था। 

कैलिफ़ोर्निया से प्रकाशित अटलांटिक मंथली के लेखक जॉन मुईर ने अमेरिका के जंगलों को दुनिया की शान माना। उनके अनुसार उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम में कहीं भी अपरिमित शानदार कालजयी समृद्ध जंगल कहीं नहीं मिलेंगे, जिसमें सारे जीव-जंतु, आदिवासी और पेड़-पौधे सुरक्षित हैं। गाँधी जी की तरह जॉन मुईर भी सिस्टमैटिक थिंकर नहीं थे। उनके विचार अपने आलेखों और भाषणों में मिलते हैं, जिसे आधिकारिक नहीं मान सकते हैं। लेकिन यह सत्य है कि वे अपने समय से आगे की सोचते थे। जॉन मुईर कहते हैं कि जीव-जंतु और पेड़-पौधे बनाने के पीछे प्रकृति का उद्देश्य उन सभी को ख़ुश रखना था, न कि किसी एक की ख़ुशी के लिए सब-कुछ बर्बाद कर देना। सृष्टि की प्रत्येक इकाई से मनुष्य अपने आपको श्रेष्ठ क्यों समझते हैं? क्या भगवान ने उन्हें बनाने में कष्ट नहीं किया होगा, जो इस ब्रह्मांड की पूर्णता के लिए ज़रूरी था। मनुष्य के बिना ब्रह्मांड अधूरा है और हमारी आँखों से न दिखने वाले सूक्ष्मतम जीवाणुओं के बिना भी। 

रशियन पर्यावरणविद् यूरी बाँडरेव लिखते हैं कि अगर हम अपनी स्थापत्य कला की मीनारों को तोड़ने से नहीं रोकेंगे, अगर हम पृथ्वी और नदियों के साथ हिंसा करने से बाज़ नहीं आएँगे, अगर हम विज्ञान और आलोचना में नैतिकता के विस्फोट को स्थान नहीं देंगे तो वह शानदार सुबह दूर नहीं, जब हम अपनी अंत्येष्टि की चिता के पास बैठे मिलेंगे, मन में अथक आशावाद लिए। जब हमारी तंद्रा टूटेगी की महान रूस की राष्ट्रीय संस्कृति, अपनी पैतृक भूमि के प्रति प्रेम, सौंदर्य, महान साहित्य, पेंटिंग, दर्शन–सब हमेशा के लिए ख़त्म हो चुका होगा। उनकी हत्या हो गई होगी, वे नष्ट हो गए होंगे हमेशा के लिए और हम राख पर नंगे बैठकर बारहखडी याद करने की कोशिश कर रहे होंगे। हमें कुछ भी याद नहीं आ रहा होगा। हमारे विचार, हमारी भावनाएँ, हमारी ख़ुशियाँ और ऐतिहासिक स्मृतियाँ सब लुप्त हो गई होगी। 

सन्‌ 1972 के यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ़्रेंस की ‘ह्यूमन एनवायरमेंट’ पर आयोजित एक संगोष्ठी, जिसका विषय था-‘ओन्ली वन अर्थ, द केयर एंड मेंटेनेंस ऑफ़ स्मॉल प्लैनेट’ की लीफ़लेट के अंतिम पंक्ति में लिखा हुआ था कि जबसे हम मनुष्य बने हैं, हमें समझ में आने लगा है तो इतना ही कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति के केवल दो देश होते हैं, पहला, उसका अपना देश और दूसरा, यह पृथ्वी। इसलिए पृथ्वी के पर्यावरण सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हर पृथ्वीवासी की है, जिसे उसे कर्त्तव्य परायणता के साथ निभानी चाहिए। 

पुस्तक की विषय सूची

  1. प्राक्कथन
  2. साहित्य नीति जैवनीति है
  3. 1. नर्मदा नदी की प्राचीनता
  4. 2. नर्मदा नदी का प्रवाह
  5. 3. नर्मदा नदी के तीर्थ
  6. 4. नर्मदा नदी का जनारण्य
  7. 5. नर्मदा नदी का पर्यावरण
क्रमशः

लेखक की पुस्तकें

  1. सौन्दर्य जल में नर्मदा
  2. सौन्दर्य जल में नर्मदा
  3. भिक्षुणी
  4. गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी
  5. त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 
  6. स्मृतियों में हार्वर्ड
  7. अंधा कवि

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. अदिति की आत्मकथा
  2. पिताओं और पुत्रों की
  3. नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

पुस्तक समीक्षा

बात-चीत

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

अनूदित कहानी

अनूदित कविता

यात्रा-संस्मरण

रिपोर्ताज

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

विशेषांक में