मिमि की साहित्य शिक्षा
अनूदित साहित्य | अनूदित कहानी दिनेश कुमार माली1 Nov 2020 (अंक: 168, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
मूल कहानी (ओड़िया): वामाचरण मित्र
अनुवाद: दिनेश कुमार माली
वामाचारण मित्र (1915) ओड़िया साहित्य के प्रतिभाशाली रचनाकार है। मानव मन की सूक्ष्म रहस्यों का पर्दाफ़ाश और अपने जीवन की अनुभूतियाँ उनके कहानियों की पृष्ठभूमि रही है। उनकी मुख्य रचनाओं में नरछंछान, स्वप्नसिद्ध, पाषाणर प्राण, असीम, बट महापुरुष उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ रही हैं।
जीवन बाबू का मन बहुत दुखी है।उनकी इकलौती लड़की मिमि काफ़ी बुद्धू है। पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता, किताब लेकर केवल झपकी मारती रहती है। कोई प्रश्न पूछने पर ढपोर शंख की तरह देखती रहती है।
आधे घंटे से बक-बक करते हुए जीवन बाबू जी-जान लगाकर उसे समझाने की कोशिश करते हैं, “यह हृदय मैंने सौंप दिया, आज तुम्हारे चरणों में, हे नाथ!” मिमि मुँह खोल कर बड़ी-बड़ी आँखों से जैसे उसे सब-कुछ समझ में आ गया हो, ऐसे हाव-भाव बनाकर उनकी तरफ़ देखती रहती। बीच-बीच में उसके घुँघराले बाल हवा के झोंके से आँखों पर छितरा जाने से मिमि विरक्त होकर उन्हें पीछे ढकेलते हुए फिर वैसे ही देखने लगती, जैसे बाल उसके समझने में व्यवधान पैदा कर रहे हो। मिमि की भाव-भंगिमा देखकर जीवन बाबू और अधिक उत्साहित होकर उसे समझाते जाते हैं। कुछ समय के बाद मिमि की फैली हुई बड़ी-बड़ी आँखें धीरे-धीरे छोटी होने लगती है।वह अपनी आँखों की पलकों को गिरने से बचाने की भरसक चेष्टा करती है। घंटे भर उस पंक्ति को समझाने के बाद जीवन बाबू के मन में संतोष हुआ कि मिमि को उसका सरलार्थ और भावार्थ हृदयंगम करा सके। संतोषपूर्वक हँसते हुए इस बार उन्होंने पूछा, “समझी, बेटी?”
मिमि फिर अपने बाल बाएँ से दाएँ तरफ़ करते हुए सिर को यथा-संभव झुकाकर मुस्कराते हुए चेहरे पर ऐसे भाव लाए, जैसे कि उसे सब-कुछ समझ में आ गया है, मगर अचानक उसकी आँखों में भय उतर आया। इधर-उधर घूमती दोनों आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं।
जीवन बाबू ग़ुस्से से कहने लगे, “समझ में आया है तो बुद्धू की तरह ऐसे क्यों देख रही हो? बताओ, क्या समझ में आया!”
मिमि दो-चार घूँट थूक निगलने लगी, “नाथ मतलब स्वामी या भगवान, जिन्होंने हमारी सुरुष्टि की है। वह बहुत अच्छे आदमी है, किसी को कुछ नहीं कहते, किसी पर ग़ुस्सा नहीं करते, ब-हु-त अच्छे आदमी हैं।”
“यह समझ में आया है तुझे, बदमाश कहीं की! एक घंटा तक मैं चिल्लाता रहा और अंत में कह रही हो भगवान एक आदमी है। सृष्टि कहना नहीं आ रहा है, कह रही हो सुरुष्टि। और छोटी बच्ची बन जा! आठ वर्ष की लड़की हो गई, पाँचवीं कक्षा में एक बार फ़ेल हो गई . . . बिल्कुल भी शर्म नहीं आती . . . देखो तो।”
मिमि भय से पीछे की ओर सरकरते हुए कहने लगी, “नहीं, नहीं, भगवान एक . . . भगवान एक ... ”
“भगवान क्या है?” जीवन बाबू ने गरजते हुए पूछा।
दोहराते-तिहराते हुए मिमि मन ही मन अपने आप से पूछने लगी, “भगवान क्या है? पिताजी ने क्या कहा था? भगवान क्या?”
उसी समय मिमि की पालतू बिल्ली शंकि दौड़ कर मिमि की गोद में चढ़कर कहने लगी, “म्याऊँ, म्याऊँ!”
मिमि के मुँह से निकल गया, भगवान है म्याऊँ।
जीवन बाबू को बहुत ग़ुस्सा आया। उन्होंने शंकि को गर्दन से पकड़कर बाहर निकाल दिया। रसोई घर की तरफ़ देखते हुए चिल्लाकर कहने लगे, “पचास बार कह दिया है कि घर में बिल्ली-विल्ली मत रखो, पढ़ाई में अड़चन आएगी, दिन-रात बिल्ली के साथ खेल-कूद। स्कूल से घर में पाँव रखते ही किताब कॉपी फेंककर खोजने लगेगी, शंकि कहाँ है। हाँ, बेटी माँ पर गई है। देख रही हो शशधर बाबू की बेटी को, किस तरह ज़ोर-शोर से पढ़ती है। देख लो, लिंगराज बाबू की बेटी को, कैसे क्लास में फ़र्स्ट आती है। मेरी ही क़िस्मत फूटी है। इस वंश का कुछ नाम नहीं रख पाएगा। हाय रे, मेरी क़िस्मत, हाय! विगत परीक्षा में कॉपी फाड़कर नाव बनाकर पानी में फेंक कर आ गई। क्यों नहीं मर गई तू . . . ”
विगत कक्षा की परीक्षा में परीक्षा देने के लिए मिमि स्कूल में बैठी थी। उस समय घोर वर्षा हो गई। पानी स्कूल के बरामदे में घुसते हुए कक्षा के मुहाने तक आ गया। मिमि का मन और स्थिर नहीं रहा। परीक्षा हो रही है, वह यह बात भूल गई। धीरे-धीरे वह परीक्षा घर से बाहर चली आई। परीक्षा की कॉपी फाड़कर काग़ज़ की किश्ती बनाकर पानी में तैराने लगी। किश्ती एक-एक कर पानी पर तैरने लगी। मिमि महातृप्ति के साथ उन्हें देखते हुए वर्षा में भीगते हुए घर लौट आई। घर आने के बाद उसे याद आ गई, अपने पिताजी की बात। पिताजी के भय से उसे बुखार आ गया। उस तेज़ बुखार को उतरने में कई दिन लगे। मिमि उस बार फ़ेल हो गई, मगर उसे बुखार के कारण पिताजी की मार से बच गई। उसके बाद जीवन बाबू ने सब-कुछ पता चलने पर उसकी छड़ी से ख़ूब पिटाई की थी। आज वही बात याद आ जाने से उनका क्रोध दुगना हो गया। ज़ोर से चटकन लगाते हुए कहने लगे, “तुम नहीं समझा पाई तो मैं तुझे छोड़ूँगा नहीं। जितनी भी रात क्यों नहीं हो जाती। आज तुम्हारा दिन है या फिर मेरा। आज खाना-पीना बंद। समझाओ, समझाओ मुझे, रोना-धोना बंद कर।”
रसोईघर की तरफ़ से चिल्लाने की आवाज़ आई, “बेटी को आप मत पढ़ाओ। जब भी पढ़ाने बैठोगे, मार-पिटाई के सिवा कुछ भी नहीं। हम क्या बेटी को खाना-पीना देंगे, जो उससे इतनी आशा कर रहे हो? पढ़ाना तो आता नहीं है . . . ”
जीवन बाबू उत्क्षिप्त होकर कहने लगे, “क्या हुआ, मुझे पढ़ाना नहीं आता है? एक घंटे से सिर फोड़ रहा हूँ। सारा कुछ समझ गई है, वैसे सिर हिला रही है। क्या मुझे मालूम नहीं है बेटी माँ पर गई है। तुम्हारे लाड़-प्यार ने लड़की का दिमाग़ ख़राब कर दिया है।”
रसोईघर की तरफ़ से फिर से भारी भरकम आवाज़ आने लगी, “हो गया आज बस इतना ही। आओ, मिमि खाना खाओ।”
मिमि उठने ही वाली थी कि जीवन बाबू गरज उठे, “ख़बरदार, तुम मुझे नहीं समझा पाओगी, यहाँ से नहीं उठ सकोगी। बताओ, भगवान क्या है? इतना समझाया मैंने, बताओ।”
इस सरलार्थ को समझाने में भगवान ने आकर शुरू से ही सब गड़बड़ कर दी। मिमि आँसू पोंछकर भगवान को मन ही मन गाली देते हुए कहने लगी, “भगवान अच्छा आदमी है या कलमुँहा? मुझे पिताजी से इतनी मार खिलवा रहा है।” इतनी असमंजस में न पड़कर भगवान की बात छोड़कर वह समझाने जा रही थी किंतु मन ही मन कलमुँहा गाली देने के बाद उसे याद आ गया पुरी का जगन्नाथ मंदिर। जगन्नाथ को देखकर उसने दादी के कानों में पूछा था, “दादी माँ, जगन्नाथ जी का मुँह क्या जला हुआ है?” नातिनी के प्रश्न से दादी की आँखों में आँसू आ गए थे।नातिनी के चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगाते हुए कहने लगी, “हाँ, काले मुँह वाले भगवान हैं।” वह बात याद आते ही मिमि जैसे अँधेरे से उजाले में आ गई। उसकी आँखों में चमक आ गई। भगवान जैसे उसकी आँखों के सामने प्रकट हो गए हो। वह अच्छी तरह उस चेहरे को देखते हुए कहने लगी, “भगवान होते हैं जगन्नाथ,” मगर दादी की बात याद आते ही मिमि की आँखें आँसुओं से भर गई। वह सब-कुछ भूलकर कहने लगी, “पापा, मेरे पापा, दादी ने चिट्ठी में लिखा है कि गाँव में तुम्हारी बहुत याद आ रही है, मेरा मन ख़राब हो रहा है। उन्हें ले आओ मेरे पापा!”
“दादी को रहने दे। हाँ, भगवान होते हैं जगन्नाथ। उसके बाद क्या हुआ?”
दादी की विरह में तड़पते मन को सरलार्थ की तरफ़ लाने के लिए मिमि को कुछ समय लगा। आँसुओं को रोक कर मिमि कहने लगी, “कवि यहाँ कह रहे हैं . . . कह रहे हैं . . . दादी . . . मेरी दादी हो।” मिमि इस बार अपने आप को सँभाल नहीं पाई और फूट-फूटकर रोने लगी।
जीवन बाबू दनादन उसकी पीठ पर दो-तीन मुक्के कसते हुए कहने लगे, “धत्, मेरी क़िस्मत, मेरी फूटी क़िस्मत! एक घंटे से समझा रहा हूँ, सब-कुछ भूल गई? स्कूल के मास्टर जी कल कह रहे थे कि मिमि क्लास में ध्यान नहीं दे रही है। अंट-शंट उत्तर देती है। जैसे विलोम शब्द क्या होते हैं? बोल रही है या रो रही है, बदमाश ! लाज नहीं आती है, फिर रोने लगी। छी:! छी:!, मेरी बेटी होकर तू इस तरह कहती है। ‘सुख’ का विलोम शब्द होता है ‘खसु’। रोना-धोना बंद कर, बताओ मैं क्या कह रहा था। कवि कहते हैं कि . . . हाँ।”
मिमि आँसू पोंछते हुए फिर से कहने की कोशिश करने लगी, “ कवि कहते हैं कि . . . ”
इतना कहने के बाद वह मन ही मन अपने आपसे पूछने लगी, “कवि कौन है? वह क्यों कुछ कह रहे हैं?” फिर से सब गोलमाल हो गया। तभी पास वाले घर में शंकि म्याऊँ-म्याऊँ आवाज़ करने लगी। इधर कवि कौन है, उधर कवि क्या कह रहे हैं और क्यों कहना चाहते हैं, मिमि को कुछ याद नहीं आया। मन ही मन मिमि शंकि को खींचते हुए गाली देने लगी, कलमुँही, पढ़ाई ख़त्म होने दो फिर तुझे देखती हूँ । क्या पढ़ाई आज ख़त्म होगी? हे महाप्रभु, हे जगन्नाथ, इस कलमुँहें कवि ने क्या कहा हैं, मुझे याद दिला दो।
उसी समय बाहर से किसी ने आवाज़ दी, “बाबू घर में हैं?” जीवन बाबू चिढ़ते हुए कहने लगे, “नहीं, बाबू घर में नहीं है।” बाहर से फिर आवाज़ आई, “बड़े बाबू बुला रहे हैं, जल्दी आओ कचहरी में कोई ज़रूरी काम है।” जीवन बाबू विरक्त होकर कमीज़ पहनते-पहनते कहने लगे, “मैं जा रहा हूँ, आधे घंटे में लौट आऊँगा। मैंने जो समझाया है, उसे लिखोगी और दूसरी उदाहरणमाला के पाँच नंबर वाले अंक-गणित के सवाल को हल करोगी। यदि नहीं होगा तो देखना, मैं तेरी क्या हालत करता हूँ।”
जीवन बाबू जल्दी-जल्दी वहाँ से चले गए। कचहरी में बाढ़ संबन्धित ज़रूरी काम करते-करते उन्हें एक घंटा लग गया। घर के दरवाज़े के पास धीरे से जूते खोलकर हाथ में पकड़ कर खिड़की से झाँकते हुए देखा कि मिमि सो रही है या पढ़ रही है। खिड़की में से जो कुछ देखा, उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आया। उनके बड़े भाई और छोटे भाई दोनों कॉपी में कुछ लिखते जा रहे थे, बहुत कुछ लिख भी चुके थे। कई काग़ज़ फाड़ कर नीचे फेंके हुए थे। मिमि दोनों पाँव पसारकर शंकि को गोद में बैठाकर उसे थपथपाते हुए लोरी गा रही है, “सो जा बच्ची, सो जा, सो जा, तेरी मम्मी आएगी, खूब खिलौने लाएगी, लाएगी।”
घर के भीतर घुसते हुए जीवन बाबू पूछने लगे, “मिमि तुम्हारी यह पढ़ाई चल रही है?”
मिमि ने डरते हुए पिताजी की ओर देखा और शंकि को छोड़ दिया। भय से उसका मुँह इतना छोटा हो गया, कोयले की तरह काला पड़ गया।
“यह क्या हो रहा है भाई?” जीवन बाबू आश्चर्य से पूछने लगे।
“अंक गणित का सवाल हल कर रहे हैं। छी:! छी:! इतनी छोटी बच्ची के लिए इतने कठिन सवाल। ‘सरल गणित’ यह नहीं है? लेखक ने अपना पांडित्य दिखाया है या बच्चों की बुद्धि का आकलन किया है? अंक-गणित तो देकर चले गए, ख़ुद करके दिखाओ।”
जीवन बाबू अंक गणित का सवाल पढ़ने लगे . . . मैं अपने घर से डेलांग की एक सभा में पैदल जाऊँगा। सभा में ठीक शाम को 7:00 बजे पहुँचना है। मैं अगर 3 माइल की गति से जाता हूँ तो समय से आधा घंटा पहले पहुँचता हूँ और यदि घंटा में 2 माइल की गति से जाता हूँ तो ठीक समय से 1 घंटे बाद पहुँचता हूँ तो मेरा घर सभा स्थान से कितना दूर होगा? सवाल पढ़ने के बाद जीवन बाबू दो-तीन बार टेढ़े-मेढ़े होकर उसे देखने लगे। किस तरह से आरंभ करेंगे, कुछ समझ नहीं पाए।
बड़े भाई ने कहा, “सवाल हल करना तो दूर की बात, मिमि पहले पूछने लगी कि सभा क्या होती है? वहाँ नहीं जाने पर क्या नहीं चलेगा? समझाओ, सभा क्या होती है, समझाओ। जैसे-तैसे करके समझा दिया हमने कि सभा क्या होती है। मिमि ने फिर पूछा, थोड़ा आगे-पीछे जाने से क्या दिक़्क़त है? इसके लिए इतनी क्यों चिंता है? इन सब गोल-मोल प्रश्नों का उत्तर देते-देते तो आधा घंटा बीत गया। उसके बाद तो हम दोनों सवाल हल करने के लिए बैठे हुए हैं। मिमि की डेढ़ कॉपी ख़त्म होने वाली है।”
सभी हँसने लगे। जीवन बाबू ने कहा, “रहने दो, अंकगणित को रहने दो। मिमि, ए मिमि, साहित्य नहीं हो रहा है?”
“नहीं, नहीं मैं अंकगणित पढ़ रही थी। बड़े पापा और छोटे पापा मुझे खाने के लिए बुला दिए। मैंने कहा, पढ़ाई पूरी नहीं होगी तो भगवान ग़ुस्सा करेंगे। तभी से वे अंक-गणित का सवाल देखकर हल करने बैठे है, मैं . . .”
“तू शंकि को सुलाने बैठ गई। नहीं, तेरे से नहीं होगा, मगर तू आज जब तक नहीं कहेगी तब तक मैं छोड़ूँगा नहीं। कहो, ’यह हृदय मैंने सौंप दिया आज तुम्हारे चरणों में, हे नाथ!’ इसका सरलार्थ बताओ।”
मिमि ने इस बार साहस करते हुए कहा, “नाथ मतलब जगन्नाथ, जिनका मुँह काला है, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, चपटा मुँह है . . . ”
जीवन बाबू मिमि की तरह देखने लगे। मगर बड़े भाई होने के कारण वह उनके भय से मिमि को कुछ नहीं कह पाए।
मगर पिताजी की बड़ी-बड़ी आँखें देखकर मिमि का चेहरा सूख गया। उसका सारा उत्साह मर गया। बड़े भाई ने समझाते हुए कहा, “अरे बेटी, तुम ठीक कह रही हो। वाह! बहुत सुंदर समझ गई हो। बहुत सुंदर। हाँ, उसके बाद . . .”
“उसके बाद उस जगन्नाथ को देखकर कवि नामक एक आदमी ने कहा . . . कह रहा है . . .”
“हाँ, हाँ कह रहा है . . .” बड़े भाई ने उत्साहित करते हुए पूछा। मिमि साहस पाकर बड़े पिताजी के कान में कहने लगी, “जगन्नाथ जी के चरण मैंने नहीं देखे हैं। और हृदय कवि के सौंप दिया वहाँ?” उसके पिताजी गाली देने लगे।
“अच्छा, बड़े पापा! हृदय सौपेंगे कैसे?”
बड़े भाई ने मिमि को गोद में पुचकारते हुए कहने लगे, “बेटी, तुम्हारी पढ़ाई आज उतनी ही। तू जो पूछ रही है, उसका उत्तर तुम्हें कोई नहीं दे पाएगा। हृदय कैसे सौंपा जाए, आज तक मैं नहीं समझ पाया तो तुझे कैसे समझाऊँगा। और उस कवि को भी समझ में आया होगा, मुझे नहीं लगता।”
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