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मानव-मनोविज्ञान के महासागर से मोती चुनते उपन्यासकार प्रदीप श्रीवास्तव

समीक्षित पुस्तक: वह अब भी वहीं है (उपन्यास)
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव
प्रथम संस्करण: 2025
प्रकाशक:भारतीय साहित्य संग्रह
109/108, नेहरू नगर कानपुर
24 लॉकवुड ड्राइव, प्रिंसटन, न्यूजर्सी, यू एस ए
ISBN:978-1613018132
एमाज़ॉन लिंक: वह अब भी वहीं है

 

‘वह अभी वहीं है’ प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रदीप श्रीवास्तव जी का अद्यतन उपन्यास है, जो जनवरी 2025 में भारतीय साहित्य संग्रह, कानपुर से प्रकाशित हुआ है। वे इस उपन्यास की भूमिका “एक मुट्ठी सपने के लिए” में लिखते हैं, “जिस व्यक्ति को केंद्र में रखकर यह उपन्यास अपना स्वरूप ग्रहण करता है, उससे जब मैं पहली बार मिला था, तब दिमाग़ में रंच-मात्र को भी यह बात नहीं आई थी, कि कभी उसे केंद्र में रख कर उपन्यास, क्या कोई लघु-कथा भी लिखूँगा। मगर संयोग ऐसा बना कि अगले दो महीने में उससे तीन बार भेंट हुई। उस समय मैं एक राजनीतिक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी का सदस्य और एक प्रदेश की कमेटी में सचिव था। यह राजनीति मुझे एक जगह रुकने नहीं देती थी। इसी क्रम में मैं हर दूसरे तीसरे सप्ताह संत रविदास नगर पहुँचता था। वहाँ के एक स्थानीय नेता अपने कुछ समर्थकों के साथ आव-भगत में उपस्थित रहते थे। उन्हीं के साथ वह क़रीब सवा छह फ़ीट ऊँचा युवक आता था। सबके अपने-अपने सरोकार होते हैं, उसके भी थे। अपनी ऊँचाई, अत्यधिक साँवले रंग लेकिन उतने ही तीखे नैन-नक्श के कारण वह भीड़ में भी किसी को भी एक बार आकर्षित कर ही लेता था। उसने तीसरी मुलाक़ात में मुझसे पहली बार दो मिनट बात की। वह अपने जीवन के एकमात्र सपने को पूरा करने के लिए मुझसे मदद चाहता था। साथ ही विशेष आग्रह यह भी था कि उसका मंतव्य उसके नेता जी को बिलकुल न बताऊँ।” (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ 7) 

इस उपन्यास पर अपनी आलोचकीय दृष्टि डालने से पूर्व मैं कहना चाहूँगा, लेखक ने वर्तमान समाज की सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों विद्रूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के राजनैतिक मुद्दों जैसे नक्सलवाद आदि पर भरपूर क़लम चलाई है। यही नहीं, उन्होंने अपनी कई कहानियों और उपन्यासों में मानव-मन की अथाह गहराई को नापने में किसी तरह की कमी नहीं छोड़ी है, जिनमें उनकी कृतियाँ ‘मन्नू की वह एक रात’, ‘बेनजीर-दरिया किनारे का ख्वाब’, ‘जेहादन’, ‘औघड़ का दान’ आदि प्रमुख हैं। इसी की कड़ी में उनके उपन्यास ‘वह अभी वहीं है’ को भी देखा जा सकता है, यद्यपि इसमें प्रमुख स्वर हिन्दी फ़िल्मों में खलनायक बनने के लिए किया गया जीवन-संघर्ष है, मगर उपन्यास में कहीं-कहीं कामुकता के स्वर भी स्पष्ट दिखाई देते हैं, भले ही, वे पात्रों के जीवन की आकस्मिकताओं के कारण हों अथवा अतियथार्थ को झेलते-झेलते खुरदरेपन का स्पर्श करने की वजह से। 

ऐसे कथानक अधिकतर बड़े संवेदनशील, सहृदय लेखक की सचेतन रचनाओं में उतरती हैं, जो समाज को बहुत नज़दीक से देखते-परखते हैं। इस श्रेणी में तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’, खुशवंत सिंह की ‘द कंपनी ऑफ़ वूमेन’, शोभा डे की ‘स्टारी नाइट’, ‘सेठजी’ और प्रदीप श्रीवास्तव के उपन्यास ‘वह अब भी वहीं है’ को लिया जा सकता है। 

मानव मनोविज्ञान को टटोलना किसी ऐसे विशाल आइसबर्ग को खँगालने से कम नहीं है, जिसका एक-तिहाई हिस्सा बाहर दिखता है और दो-तिहाई हिस्सा निम्मजित रहता है। बाहर दिखने वाले एक-तिहाई हिस्से को भी बहुत कम हम समझ पाते हैं या उन पर रचनाएँ लिख सकते हैं। यह मनोविज्ञान का महासागर है, जिसमें डुबकी लगाना हर किसी के वश की बात नहीं है और अगर इसमें कामुकता का हिलोरे मारता ज्वार-भाटा उस महासागर के तट पर टकराने लगे तो यह क्षेत्र और ज़्यादा अगम्य हो जाता है। जिसको स्पर्श करना तक किसी ख़तरे से ख़ाली नहीं है, मगर इसे छूने का जो गोताखोर साहस करता है; निस्संदेह वह सर्जनशीलता के तुंग पर पहुँच जाता है। इस दृष्टिकोण से कालिदास का ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’, जयदेव का ‘गीत-गोविंद’ और विद्यापति की प्रेम-पदावलियाँ ली जा सकती हैं। 

हमारे शास्त्रों में पंचमकार की अवधारणा है। जिसमें मांस, मद्य, मैथुन, मत्स्य और मुद्रा आदि मोक्ष प्राप्ति के द्वार माने जाते हैं। कोणार्क और खजुराहो के भग्न मंदिर की भित्तियों पर लगी नग्न कामुक मूर्तियों से हमारे पूर्वजों की क्रिएटिविटी के बारे में सोचा जा सकता है। ऐसे भी कहते हैं, “सेक्स एंड क्रिएटिविटी गोज़ हैंड इन हैंड’। यद्यपि किसी भी दृष्टिकोण से लेखन में अति-कामुकता का पक्षधर नहीं हूँ, लेकिन यह अवश्य जानता हूँ कि समाज में कामुकता के अलग-अलग रूपों को जाने बिना हम संसार की सुंदर रचना नहीं कर सकते। 

सिग्मंड फ़्रायड ने सन् 1899 में ‘द इंटरप्रेटेशन ऑफ़ ड्रीम्स’ पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने दर्शाया था कि जाग्रतावस्था में हमारी कुछ इच्छाएँ सामाजिक या नैतिक दबाव के कारण चेतन मन में ज़बरदस्ती दबा दी जाती हैं तो वे पहले अवचेतन मन और फिर अवचेतन से अचेतन मन में चली जाती हैं। सपने आना इन्हीं दमित इच्छाओं का प्रतीकात्मक रूप होता है कि नींद में उसका मानसिक संतुलन बना रहे। 

दूसरे शब्दों में, सपने हमारे अचेतन मन का शाही मार्ग है, रॉयल रोड है, जिसमें हमारी दमित इच्छाएँ भावनाएँ और विचार प्रवेश करते हैं। भले ही, फ़्रायड के इस सिद्धांत में वैज्ञानिकता का अभाव हो, मगर यह सत्य है कि यौन-केंद्रित उत्कंठा ही लेखक की सामग्री बनती है। यद्यपि मनो-विश्लेषक फ़्रायड मन की तीन अवस्थाओं जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था और सुषुप्तावस्था तक ही सीमित थे, मगर हमारे ऋषि-मुनि उससे भी परे तुरीयावस्था तक पहुँच जाते थे। अचेतन मन को अभिव्यक्त करने वाले सपने अधिकांश उपन्यास, कहानी-लेखन और कविताओं जैसे अन्य रचनात्मक कार्यों में प्रकट होते हैं। उदाहरण के तौर पर, सन् 1797 में सैमुअल टेलर कालरिज ने सपने में काल्पनिक, रहस्यमयी और प्राकृतिक सौंदर्य वाले स्थान ‘ज़ानाडु’ में एक महल बनवाया था, जिस पर उसने तंद्रावस्था में ‘कुबला खान’ जैसी रोमांटिक कविता लिखी थी। उसी तरह जेम्स जॉयस की ‘उलेसिस’, फ्रांज काफ़्का की कहानी ‘मेटामोरफासिस’ और वर्जीनिया वुल्फ़ की ‘ऑरलेंडो’ आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं। ऐसी रचनाएँ लिखने और समझने के लिए लेखक अपने पात्रों की जटिल मनोवैज्ञानिक स्थिति का सूक्ष्मता से अध्ययन करता है। 

‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘दिल्ली’ और इंडो इंग्लिश फ़िक्शन का लैंड-मार्क माने जाने वाले ‘द कंपनी ऑफ़ वूमेन’ जैसे उपन्यासों के लेखक खुशवंत सिंह (1915-2014) का नाम भारतीय साहित्य में अपने किसी परिचय का मोहताज नहीं है। यहाँ खुशवंत का नाम लेने का मेरा एक उद्देश्य है, आलोच्य कृति के लेखक प्रदीप श्रीवास्तव की उनसे तुलना करना। दोनों की रचनाएँ सेक्स, समाज और मानवीय इच्छाओं को बिना लाग-लपेट के चित्रित करती हैं। 

84 वर्ष की उम्र में खुशवंत ने अपना उपन्यास ‘द कंपनी ऑफ़ वूमेन’ लिखा था, जो एक तलाक़शुदा वृद्ध व्यक्ति की यौन साहसिकताओं पर केंद्रित है। भारतीय समाज में तलाक़, वैश्वीकरण और नए अमीर वर्ग की दिखावटी जीवन-शैली को उजागर करता है। उनके उपन्यास का मुख्य पात्र है, तलाक़शुदा मोहन कुमार, जो एक सफल वकील है। तलाक़ के बाद वह अपनी कामुक इच्छाओं को पूरा करने के लिए महिलाओं की कंपनी (साथ) रखता है। जब वह अमेरिका प्रिंसिटन यूनिवर्सिटी में पढ़ता है, तब उसके अमेरिकी ब्लैक जेसिका ब्राउन से लेकर पाकिस्तानी यासमीन वांचू के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनते हैं। बाद में उसकी शादी किसी धनाढ्य घर में हो जाती है, मगर झगड़ालू पत्नी से बचकर कइयों से अवैध सम्बन्ध स्थापित करता है, जिसमें उसके बेटे की नर्स तमिल मैरी जोसेफ, अंग्रेज़ी प्रोफ़ेसर सरोजिनी भारद्वाज, श्रीलंकन डिप्लोमेट सुसांथीका गुनाटिलीके और यहाँ अपनी नौकरानी धन्नो से भी सम्बन्ध बनाता है। बाद में तो वह विज्ञापन भी निकालता है पैसे लेकर साथ में सोने वाली औरतों के लिए। इसमें प्रत्येक यौन सम्बन्ध को उपन्यासकार ने हास्य-पूर्ण एवं विस्तृत ढंग से चित्रित किया है। यह कहानी दिल्ली के आधुनिक जीवन-शैली में लिप्त महिलाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। मोहन कुमार का अंत एड्स की बीमारी के साथ होता है। खुशवंत सिंह का यह उपन्यास एक प्रकार से रालकिंग सेक्सुअल रोम्प (उछाल-कूद भरा यौन-सम्बन्ध) पर आधारित है, जो पाठकों को हँसाता भी है और सोचने पर मजबूर भी करता है कि क्यों कोई पुरुष अधिक से अधिक यौन-सम्बन्ध बनाना चाहता है। उनके अनुसार, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे यौनेच्छा यौनांगों से अतिक्रमण कर मन-मस्तिष्क में अपना घर बना लेती है। यासमीन के मोहन कुमार की अंतरंगता के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं:

“उसके कमरे की मद्धिम रोशनी में हमारे शरीर कह रहे थे, जो ज़ुबान नहीं कह सकी। प्रत्येक स्पर्श आत्मस्वीकृति थी, प्रत्येक आह एक सौगंध। हम सिर्फ़ प्रेमी नहीं थे, बल्कि दुनिया के फ़ैसले के ख़िलाफ़ षड्यंत्र कर रहे थे। हर उन पलों को चुरा रहे थे जो सिर्फ़ हमारे थे।” 

“उसकी साँस मेरी गर्दन पर आज की तरह गर्म लग रही थी। जिसने मेरी तर्क-शक्ति को जला दिया था। उसके अंगों और फुसफुसाहटों के उलझाव में समय का अस्तित्व मिट गया और मैं उसकी धड़कन की लय के साथ खो गया। एक ऐसा गीत, जिसे सिर्फ़ मैं सुन सकता था।”

“हम एक-दूसरे से लिपटे पड़े थे, दुनिया मानो थम गई थी। उसकी त्वचा मेरे भूले हुए सपनों का नक़्शा थी और मैंने उसे उस कोमलता से छुआ, जिसका मुझे अंदेशा भी नहीं था कि वह कोमलता मेरे भीतर भी है।” 

इसी तरह प्रदीप श्रीवास्तव का उपन्यास ‘वह अब भी वहीं है’ उत्तर प्रदेश के बड़वापुर, गोपीगंज, भदोही (जिसे आजकल संत रविदास नगर कहा जाता है) के नवयुवक विश्वेश्वर के इर्द-गिर्द घूमता है। उसका परिवार व्यवसायी घराने से सम्बन्ध रखता है। उनके परिवार में कालीन, किराना और बरतन की दुकानें हैं। विश्वेश्वर दिखने में सुंदर है, साढ़े छह फ़ीट ऊँचा क़द और मन में एक ही इच्छा होती है फ़िल्मों में खलनायक बनने की। उसके लिए वह हर प्रकार का प्रयास नहीं करता है। लेकिन एक दिन गाड़ी में कालीन लोड करते समय ढंग से उठा नहीं पाने के कारण अपने भाभी की कटाक्ष का शिकार बनता है। जिस तरह महाभारत में द्रौपदी दुर्योधन पर कटाक्ष करती है कि ‘अंधे का बेटा अंधा ही होगा’ और यह व्यंग्य आगे जाकर महाभारत का रूप ले लेता है; ठीक वैसे ही इस उपन्यास में विश्वेश्वर अपनी भाभी को भाँग पिलाकर होली के दिन शारीरिक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है, जिसे उसकी माँ देख लेती है तो वह डर के मारे कुछ दिन बाद घर से गहने, पैसे और कपड़े चुराकर मुंबई भाग जाता है। उपन्यास की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: 

“सारे भाई-बाबू घर के बाहर चबूतरे पर डटे हुए थे। मैं भी वहाँ जाता और मौक़ा देखते ही फिर अंदर आ जाता। भाभी को रंग लगाता तो वह हँस-हँस कर दोहरी हो जातीं। जब मुझे लगा कि, वह अब पूरी तरह भाँग के नशे में टुन्न हैं, तो फिर उन्हें रंग लगाने के बहाने पीछे से पकड़ लिया। एक हाथ उनके ब्लाउज के अंदर डाल कर उनके अंगों से खिलवाड़ करने लगा। दूसरा हाथ उनके पेट पर खिलवाड़ कर रहा था। कोई देख न ले इसलिए जल्दी ही मैं बाहर चला गया। 

मगर मन न माना तो कुछ ही देर में फिर अंदर आ गया। इस बार वही हरकत फिर दोहरा रहा था कि भाभी बिफर पड़ीं। मगर हँसे तब भी जा रही थीं। मेरी यह गंदी हरकत अचानक ही आ पहुँचीं अम्मा ने देख ली। वह आगबबूला हो उठीं। मुझे गाली देते हुए बाहर भगा दिया। दाँत पीसती हुई बोलीं, ‘हरिमियऊ बड़का देइखि लेई तो काट डारी तोहका।’

उन्होंने भाभी को भी ख़ूब डाँटा-फटकारा। भाभी का नशा उतरने के बाद उन्होंने उनसे जो भी कहा हो, परिणाम यह हुआ कि, उन्होंने मुझसे बात करनी बंद कर दी।” (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ-18) 

मुंबई जाकर अपनी डायरी में लिखे गए नंबरों को डायल कर अपने मित्रों से संपर्क साधने का प्रयास करता है, इसी आशा में कि वे उसे फ़िल्मों में काम दिलवा देंगे और वह खलनायक बनने की अपनी दमित इच्छा को पूरी कर सकेगा। मगर जैसा कि महानगरों में अक्सर होता है या तो वे फोन नंबर ग़लत निकलते हैं, या फिर उन नंबरों पर कोई दूसरा आदमी ही बोलता हुआ सुनाई देता है। अतः दुखी होकर वह एक बाबूराम मौर्य नामक ऑटो रिक्शा वाले को अपनी व्यथा सुनाता है। वह घर दिलवाने के नाम पर उससे कुछ पैसे भी ऐंठ लेता है और अंत में पटक देता है उसे, किसी गंदी धर्मशाला में; जो मव्वालियों का अड्डा थी। वहाँ उसे हर तरफ़ ड्रग्स, शराब और शबाब दिखाई देता है। उसका एक उदाहरण लेखक ने दिया हैं:

“समीना, मैंने उसी दिन पहली बार किसी औरत को बिना कपड़े के एकदम बेपरवाह होकर सोते भी देखा था। वह अपना दुपट्टा ही ओढ़ कर सोई थी, क्योंकि ओढ़़ने के लिए वहाँ कोई चादर तो थी नहीं, दुपट्टा भी इतना अस्त-व्यस्त ढंग से ओढ़े थी कि, उसका बदन नाम-मात्र को ही ढँका था। इतना ही नहीं कमरे में दो-दो मर्द भी हैं, तराना को इसकी भी तनिक परवाह नहीं थी। मेरा दुर्भाग्य देखो कि उस रात मैं बिल्कुल नहीं सो सका।” 
 (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ-36) 

तमाम प्रयासों के बावजूद उसे फ़िल्म में काम नहीं मिला तो आजीविका चलाने के लिए वह दूसरे काम भी ढूँढ़ने लगा। इसी क्रम में दूसरे छोटे-मोटे काम करने लगा जैसे ट्रांसपोर्ट गाड़ियों में सामान लादना-उतारना, ट्रकों की सफ़ाई करना, रेस्टोरेंट में काम करना, सिक्योरिटी गार्ड का काम करना आदि। जीवन-संघर्ष करते हुए वह जटवानी एसोसिएट की मालिकिन जुबी (जिसे वह हिडिंबा कहता है) के यहाँ किसी कारणवश नौकर अनुपस्थित रहने की वजह से उसे नौकर का काम मिल जाता है। वहाँ उसकी मुलाक़ात होती है, अपने भाग्य से प्रताड़ित छब्बी से और उत्तर प्रदेश के एक और नौकर तोंदियल से। वे दोनों यहाँ काम करते होते हैं। उसकी मालिकिन जुबी जैसे कपड़े पहनती है, उसका वर्णन प्रदीप श्रीवास्तव इस प्रकार करते हैं: 

जुबी के यहाँ काम करने वाली छब्बी अपने फुफेरे भाई से अपने बलात्कार की घटना विश्वेश्वर को सुनाती है: 

“रात क़रीब दो बजे मुझे लगा मानो मेरे पेटीकोट का नारा किसी ने खर्र से खींच कर खोल दिया है। नींद में ही मेरा हाथ पेट पर पेटीकोट की तरफ़ बढ़ा ही था कि, मुझे मानो हज़ार वोल्ट का करंट लगा। मेरे हाथ पेटीकोट को छू ही पाए थे कि, किसी ने बिजली की तेज़ी से उसे मेरे तन से खींच कर अलग कर दिया। मेरे मुँह से उतनी ही तेज़ चीख़ भी निकली, लेकिन ठीक उसी तेज़ी से एक सख़्त हाथ ने मुँह दबा दिया। इतना कस के दबाया कि, मेरी चीख़ मुँह में ही घुट कर रह गई। जिस तेज़ी से मुँह पर हाथ पड़ा था, उसी तेज़ी से पूरा मानव शरीर मेरे तन को दबोच चुका था। मैं छटपटा भी नहीं पा रही थी। उस मज़बूत इंसान के शिकंजे में मैं पूरी तरह जकड़ चुकी थी।” (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ-93) 

धीरे-धीरे परिस्थितिवश विश्वेश्वर और छब्बी के बीच शारीरिक सम्बन्ध बन जाते हैं। इधर तोंदियल की पानी में करंट लगने से मृत्यु हो जाती है। उसके बावजूद मालिकिन का संवेदनहीन रवैया देखकर वहाँ से काम छोड़कर विश्वेश्वर और छब्बी अपने घर जाना चाहते हैं। उस समय वे दोनों जटवानी एसोसिएट भवन के ऊपर स्थित कमरे में रहते हैं। कुछ काम को लेकर विश्वेश्वर बाहर गया होता है और लौट कर देखता है कि छब्बी की भी संदिग्ध परिस्थितियों में करंट लगने से मृत्यु हो जाती है। मालिकिन सारा दोष उसके ऊपर मढ़ देती है। पुलिस उसे पकड़ कर ले जाती है। उसे बुरी तरह मारपीट कर घायल अवस्था में भगा देती है। वह वहाँ से भी दूर चला जाता है। फिर खोजते-खोजते किसी होटल में काम मिल जाता है, दो बहनों की ‘रमानी हाउस’ कंपनी में। यहाँ उसकी मुलाक़ात होती है समीना से। जिसे वह अपने जीवन-संघर्ष की कहानी सुनाता है। देखते-देखते समीना और विश्वेश्वर की दोस्ती भी काफ़ी अंतरंग हो जाती है। वह उसके औरतों के प्रति झुकाव देखकर कटाक्ष भी करती है, इस भाषा में:

“मेरी समझ में नहीं आता कि, तू विलेन किंग बनने का भूखा है या फिर नई-नई औरतों का। मुझसे मिलने से पहले इतने दिनों तक छब्बी के साथ रहा, उसके पहले कितनी औरतों को भोगा, तू ख़ुद ही बताता है कि, तुझे यह भी याद नहीं, यहाँ रमानी बहनों जैसी अमीर, ख़ूबसूरत लड़कियों को इतने दिनों से भोग रहा है, फिर भी तेरा पेट नहीं भरता औरतों से, अब भरी दोपहरी हो या रात, सुबह हो या शाम, घर हो या बाहर हर समय उस अमरीकन को भोगने का दीदा फाड़-फाड़ के सपना देखता रहता है। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मर्दों को औरतें ख़ाली भोगने के लिए ही दिखती हैं। भोगते जाते हो, भोगते जाते हो, भोगते ही रहते हो, फिर भी तुम लोगों का पेट नहीं भरता, मन नहीं भरता, आख़िर किस मिट्टी के बने हो तुम लोग।” (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ-220) 

वे दोनों मिलकर अपनी आजीविका के लिए किसी तरह एक ट्रक ख़रीदते हैं, जिसमें दंद-फंद से भी इकट्ठे पैसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। लेकिन रमानी बहनों की साज़िश से उनका काम ठप्प पड़ जाता है। अंत में, विवश होकर ट्रक बेच कर वह नौकर का कार्य ही करते रहते हैं। उसे ही अपना नसीब मानते हैं। इधर अकूत कमाई कर रहीं रमानी बहनें अपने व्यवसाय को और बड़े पंख देने के लिए प्रभावशाली लोगों के लिए रेव पार्टियाँ भी आयोजित करती हैं, जिसमें विश्वेश्वर और समीना का भी प्रयोग करती हैं। जहाँ उनके मेहमानों द्वारा इन दोनों का दैहिक शोषण होता रहता है। मेहमानों की हर तरह से आवभगत की मुख्य ज़िम्मेदारी इन्हीं दोनों पर होती है। इन रेव पार्टियों के बाद भी रमानी बहनें अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए विश्वेश्वर और समीना दोनों का ही शोषण करती हैं। 

धीरे-धीरे यह दोनों एक ही जगह रहते-रहते स्वाभाविक रूप से बहुत अंतरंग बन जाते हैं। पति-पत्नी के रूप में अपनी संतान चाहते हैं। चिकित्सीय जाँच से पता चलता है कि समीना को यूटेरस कैंसर होने के साथ एड्स भी हुआ है। इस सदमे को वह सहन नहीं कर पाती है। विश्वेश्वर के नाम एक पत्र लिखकर आत्महत्या कर लेती है, जिसमें वह आत्महत्या का सारा दोष अपने ऊपर लेती है और उसे घर लौट जाने का अनुरोध करती है। समीना के पत्र की पंक्तियाँ अत्यंत मार्मिक है: 

“मेरे प्यारे-प्यारे विलेन-किंग, मेरे तशव्वुर के राजा, मेरे हीरो तुम बिल्कुल ख़फ़ा ना होना, ना तुम ये कहना, कि मैं कायर थी, ज़िन्दगी की दुश्वारियों से डर कर मौत को गले लगा लिया। 

मेरे दिल में हर पल रहने वाले मेरे राजा, मैंने दरअसल अपना एक फ़र्ज़ पूरा किया है। जब डॉक्टर ने यह बताया, कि मेरे युटेरस में कैंसर है, जो काफ़ी फैल चुका है। सर्जरी हर हाल में जल्दी से जल्दी करनी होगी। बात इतनी होती तो भी मैं तुम्हारे प्रति अपना फ़र्ज़ पूरा करने के लिए यह क़दम ना उठाती। 

मगर जब उसने एड्स भी बताया और कहा कि तुम्हारी बीमारी लापरवाही के कारण बहुत बढ़ चुकी है। और एक दूसरे हॉस्पिटल का नाम बताकर कहा कि वह फोन कर देगा। मैं वहीं जाऊँ। तुरंत एडमिट करने की स्टेज में हूँ। उसने यह भी बताया कि पैसा बहुत लगेगा। पूछने पर जितना बताया उससे मैं बहुत डर गई। इतना तो मैं तब भी नहीं डरी थी, जब उसने इन बीमारियों के बारे में बताया था। 

मैंने इतना जानने के बाद पूछा, कि इतना पैसा ख़र्च करने के बाद मैं बच तो जाऊँगी। तो वह साफ़-साफ़ बताने के बजाय कहानी समझाने लगा। बार-बार पूछने पर भी कहानी समझाता रहा तो मैं सच समझ गई। मुझे यक़ीन हो गया कि जो सुनती हूँ कि ये बीमारी मौत के साथ जाती नहीं, बल्कि मौत तक ले जाती है, तो सही यही है। यह मुझे मौत के सामने लाकर खड़ा कर चुकी है। बेवजह है पैसा ख़र्च करना। तिल-तिल कर मरने, रोज़-रोज़ मरने से अच्छा है कि एक बार मरूँ। 

देखो एक फ़ायदा और समझदारी की बात यह भी है कि इससे ना सिर्फ़ पैसा बच जाएगा, बल्कि और ज़्यादा क़र्ज़ नहीं होगा। तुम पर पहले ही बहुत क़र्ज़ है। मैं नहीं चाहती कि तुम क़र्ज़ के साथ-साथ मेरे कारण और तकलीफ़ झेलो। मुझे पता चल गया था कि तुम मुझे एडमिट करने के लिए पैसों के इंतज़ाम में लग गए हो।” (वह अब भी वहीं है, पृष्ठ-247) 

विश्वेश्वर उसका अंतिम संस्कार करता है, मगर अपने घर नहीं जाता है। रमानी बहनें भारत में अपना व्यवसाय विश्वासपात्र मैनेजर के सहारे छोड़कर विदेश चली जाती हैं। ज़िन्दगी से सब-कुछ छूट जाने के कारण विश्वेश्वर अकेला पड़ जाता है और समीना की आशंका भी सच होती है। उसे भी एड्स हो जाता है, जल्दी ही काम-धाम करने लायक़ नहीं रहता और उदास रहने लगता है। यह देखकर सहृदय मैनेजर को उस पर दया आ जाती है और वह उसके जीवन-संघर्षों में रुचि लेने लगता है, उसके संघर्षपूर्ण जीवन पर एक वेब सीरीज़ बनवाने का आश्वासन देता है तो विश्वेश्वर उसे अपनी पूरी जीवन-गाथा से अवगत कराता है। 

यद्यपि उपन्यास में विश्वेश्वर की मृत्यु के बारे में लिखा हुआ नहीं है, मगर उपन्यासकार प्रदीप श्रीवास्तव से पूछने पर पता चलता है कि भदोही के विश्वेश्वर की कुछ वर्ष पहले मुंबई में एड्स के कारण मृत्यु हो गई और उसके घर वालों ने उसकी लाश को वहीं पर जला दिया। ताकि एड्स की कालिमा उनके घर-परिवार वालों पर कलंक न बन जाए। 

खुशवंत सिंह के ‘कंपनी ऑफ़ वूमेन’ और प्रदीप श्रीवास्तव के ‘वह अब भी वहीं है’ की तुलना करने से दो तथ्य स्पष्ट उभर कर आते हैं कि पुरुष चाहे तलाक़शुदा हो या घर से भागे हुए अपनी कामुकता-शमन के लिए अनेक यौन-संबंध बनाने से नहीं हिचकते। यह जानते हुए भी कि वे ख़तरों से खेल रहे हैं, उन्हें भी एड्स जैसी गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं; मगर उनका अकेलापन, निस्संगता और साहचर्य की तलाश में उन्हें उन ख़तरों से जूझने के लिए तैयार कर देती है। खुशवंत सिंह के उपन्यास का मोहन कुमार तलाक़शुदा वकील और प्रदीप श्रीवास्तव के उपन्यास का विश्वेश्वर घर से भागा हुआ नवयुवक दोनों एक ही दशा-दिशा के शिकार हैं। जैसे मोहन के जीवन में जेसिका ब्राउन, यासमीन वांचू और धन्नों जैसी अनेक स्त्रियाँ आती है, वैसे ही विश्वेश्वर के जीवन में छब्बी, समीना जैसी स्त्रियाँ आती हैं। मोहन और विश्वेश्वर दोनों की मृत्यु एड्स से होती है। समकालीन परिदृश्य में प्रदीप श्रीवास्तव को हिंदी-साहित्य के ‘खुशवंत सिंह’ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

अवश्य ही, दोनों उपन्यासों में एक महत्त्वपूर्ण अंतर है। वह है उनकी उम्र का। जिस समय खुशवंत सिंह ने ‘कंपनी ऑफ़ वूमेन’ लिखा था, उस समय उनकी उम्र 84 वर्ष थी; जबकि प्रदीप श्रीवास्तव की इस उपन्यास की रचना के समय उम्र 54 वर्ष हैं। मगर वे राजस्थानी लोक-कथाकार विजयदान देथा की तरह कहानियाँ खोजते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि भुक्तभोगी पात्र अक्सर उन्हें अपनी आप-बीती सुनाते हैं, जिसे वे लिपिबद्ध कर न केवल उन पात्रों को अमर कर देते हैं, बल्कि उनके जीवन की घटनाओं से पूरे समाज को शिक्षा भी देते हैं। मेरा यह भी मानना है कि आलोचक प्रदीप श्रीवास्तव की इस कृति को किसी प्रकार का रस-कल्लोल नहीं मानकर गंभीरता से लें, जिसके वे पूर्णतया हक़दार हैं। उनका अनवरत लेखन, धाराप्रवाह भाषा-शैली और आकर्षक प्रस्तुतीकरण के ढंग भारतीय साहित्य में अमिट छाप छोड़ने के सारे निर्धारित निकषों पर चौबीस कैरेट सोने की तरह खरा उतरता है। 

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