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प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए

समीक्षित पुस्तक: वह लावारिस नहीं थी (कहानी संग्रह-प्रवासी कथाकार शृंखला)
लेखक: सुमन कुमार घई
प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन प्रा. लि., ठाणे (महाराष्ट्र)
पृष्ठ संख्या: 176
मूल्य: ₹260.00 (हार्ड कवर), ₹155.00 (सॉफ़्ट कवर)
ISBN-10 ‏ : ‎ 9390500303
ISBN-13 ‏ : ‎ 978-9390500307
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प्रसिद्ध कंप्यूटर इंजिनीयर श्री सुमन कुमार घई हिन्दी साहित्य के एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं जो सात समुंदर दूर कैनेडा की धरती के सुनहरे गगन में चमकते हुए भी विगत पाँच दशकों से अपने नाम के अनुरूप ही अपने साहित्यिक सुमनों की सुवास हिन्दी जगत की वसुंधरा पर बिखेर रहे हैं। प्रख्यात प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा के सम्पादन में प्रेलक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, ठाणे, महाराष्ट्र द्वारा प्रकाशित प्रवासी कथाकार शृंखला के माध्यम से उनकी प्रतिनिधि हिंदी कहानियों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और ऐसे भी उनके हिन्दी साहित्य को पढ़ने के पीछे मेरा मुख्य उद्देश्य भी निहित था कि वह कैनेडा की धरती पर हिंदी की अलख जगा रहे हैं, अपनी वेब पत्रिका ‘साहित्य कुञ्ज’ के सम्पादन के माध्यम से, आज से नहीं, बल्कि लगभग दो दशकों से। इस पत्रिका में मुझे मेरे शुरूआती लेखन के समय से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। दूसरा कारण यह भी था कि कुछ वर्ष पूर्व मेरी भतीजी का परिवार कैनेडा में बस गया है, इस वजह से वहाँ के भारतीयों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति की जानकारी के साथ-साथ उनके संघर्ष और सांस्कृतिक पहलुओं को नज़दीकी से जानने की उत्कंठा हमेशा बनी रही। इस दिशा में कभी-कभी सुमन घई साहब का मन टटोलने के लिए मैं व्हाट्सएप कॉल से घंटों-घंटों बातें करने लगा था, न केवल साहित्यिक बल्कि इधर-उधर की गप्पबाज़ी भी। धीरे-धीरे उनकी कम्पन भरी थर्राती मधुर आवाज़ सुनना मेरी फितरत-सी बन गई। सप्ताह में एक-दो बार बात नहीं करने से ख़ालीपन-सा लगने लगता था। कभी-कभी मुझे इस पत्रिका की तकनीकी बारीक़ियाँ समझाते थे तो कभी-कभी अपने जीवन के उत्तरार्ध पर प्रकाश डालते हुए कहते थे, “मेरे जाने के बाद इस पत्रिका का भार कौन सँभालेगा? ऐसे तो शैलेजा को मैं तैयार कर रहा हूँ लेकिन फिर भी यह प्रश्न मेरे मन में उठता रहता है। क्योंकि इस पत्रिका के सुचारु रूप से संचालन के लिए तन-मन-धन तीनों की आवश्यकता होती हैं।” 

‘साहित्य कुञ्ज’ एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय मंच है, जिसने देश-विदेश के लाखों हिंदी लेखकों को उभरने का अवसर दिया है, न केवल साहित्यिक विधाओं में बल्कि प्रयोजनमूलक हिंदी की पहचान समूचे विश्व में करवाई है, अंग्रेज़ी जैसी विश्व की अग्र-गण्य भाषाओं की भाँति। दस-पंद्रह साल पहले पूर्णिमा वर्मन की अभिव्यक्ति-अनुभूति, आशुतोष दूबे की हिन्दी कुञ्ज, मनीषा कुलश्रेष्ठ की हिंदीनेस्ट, डॉ. सी जयशंकर बाबू की युगमानस, रवींद्र श्रीवास्तव की रचनाकार, रवीन्द्र प्रभात की परिकल्पना ब्लॉगोत्सव एवं वटवृक्ष, ललित कुमार की कहानी कोश एवं कविता कोश, जय प्रकाश मानस की सृजनगाथा, डॉ. श्रीमती तारा सिंह की स्वर्गविभा, कनिष्क कश्यप की राजनीतिक पत्रिका के अतिरिक्त अपनी माटी, बोलोजी जैसी अनेक हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक वेब पत्रिकाओं में ‘साहित्य कुञ्ज’ को अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज कराना कोई साधारण काम नहीं था। न केवल तकनीकी प्रतिभा, बल्कि असीम धैर्य की भी ज़रूरत थी। आज जब अधिकांश हिन्दी साहित्यिक वेब-पत्रिकाएँ एक-एककर विलुप्त होने लगी हैं, वहाँ श्री सुमन कुमार घई के कंप्यूटर ज्ञान, कठिन परिश्रम, कर्मठता, कार्य-कुशलता और जीवंत प्रबंधन ने ही उनकी पत्रिका में नित दिन नए प्रयोगों को समाहित करते हुए नए-नए मुक़ाम हासिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही कारण है कि इस वेब पत्रिका के अनेक रचनाकारों को साहित्य अकादेमी और अन्य साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित होने का अवसर मिल रहा है। इसके अतिरिक्त, अनेक विश्वविद्यालयों में भी उनकी सामग्री शिक्षा के प्रयोजन में प्रयुक्त हो रही है। 

अपनी धरती छोड़ने का कोह किसी इंसान को इस क़द्र व्यथित कर देता है, मानो किसी पेड़ की तरह उसे जड़ से उखाड़ दिया गया हो। विदेशी धरती पर अपने अस्तित्व की पहचान बनाए रखने के लिए उन्हें क्या-क्या क़दम नहीं उठाने पड़ते हैं? घोर सांस्कृतिक पार्थक्य के बावजूद क्या उन्हें वहाँ का सामाजिक परिवेश रास आता है? क्या वे पूर्ण रूप से आर्थिक स्वावलंबी हो जाते हैं? क्या भारत की धरती, जो उन्हें दे न सकी, वह सब-कुछ परदेश की धरती दे पाती है? क्या उन्हें पैसे कमाने के लिए अपने मानवीय मूल्यों, मापदंडों और रिश्तों के साथ समझौते नहीं करने पड़ते? तरह-तरह के इन वैचारिक प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए मेरे पास भारतीय और कैनेडा की संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए प्रसिद्ध प्रतिनिधि साहित्यकार के रूप श्री सुमन कुमार घई से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। 

उनके कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ की भूमिका प्रख्यात प्रवासी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा ने लिखी है, इस वजह से भी इस कहानी-संग्रह का महत्त्व ऐसे ही बढ़ जाता है। वे सुमनजी के बारे में लिखते हैं:

“सुमन कुमार घई कैनेडा के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। उनके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं। वे कवि, कथाकार, पत्रकार, संपादक वग़ैरह-वग़ैरह सभी कुछ तो हैं। उनकी कहानियाँ ‘सुबह साढ़े सात से पहले’ एवं ‘लाश’ बहुत लोकप्रिय हुई हैं। सुमन जी ने एक लंबा समय कैनेडा के साहित्यकारों को मंच प्रदान करने में लगा दिया। उन्होंने कभी भी अपने साहित्य को किताब के रूप में पाठकों के सामने लाने में कोई अतिरिक्त ऊर्जा नहीं लगाई।” 

इस कहानी-संग्रह को एक ही बैठक में तल्लीनता से पढ़ने के बाद मुझे उनके लेखन में अपनी भारतीय स्मृतियों के साथ-साथ कैनेडा के अर्जित दीर्घ अनुभवों का मिश्रित रूप उकेरा हुआ नज़र आता है। अंबाला की पैतृक धरती पर कभी ‘चंदामामा’ पढ़ने वाले सुमनजी मानवीय संवेदना की मौलिक अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए कैनेडा में अपने अन्य दो साहित्यिक मित्रों के साथ  मिलकर ‘हिंदी राइटर्स गिल्ड’ की स्थापना कर लेखकों के मन को पढ़ते हैं। जब भी भारत या विदेश का कोई हिन्दी साहित्यकार टोरोंटो, कैनेडा पहुँचता है तो यह गिल्ड उनके सम्मान में कोई-न-कोई साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन अवश्य करवाती है। विदेश की धरती पर अपने देश की यादों को अक्षुण्ण रखने का उनका यह सार्थक प्रयास उन्हें एक विशिष्ट पहचान दिलाता है। 

सुमनजी के इस आलोच्य कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ में दस कहानियाँ है और हर कहानी का विषय पूरी तरह से अलग है। उनकी कहानियों का निर्माण ‘ढाई दिन के झोपड़े’ की तरह नहीं हुआ है, बल्कि लाल क़िला, ताजमहल या माउन्ट आबू के देलवाडा जैन मंदिर के महीन नक़्क़ाशी की तरह अनेक वर्षों के भास्कर्यरूपी सर्जन से हुआ है। इस वजह से उनकी कहानियों में अभूतपूर्व परिपक्वता है, जो एक तरफ़ भारत के अंतरात्मा की आवाज़ बोलती है तो दूसरी तरफ़ कनेडियन समाज के रहन-सहन, परिधान, खान-पान और सांस्कृतिक विचलन को भी पाठकों के सामने लाती है। सारी कहानियों की अंतर्वस्तु एक ही सूत्र में आगे बढ़ती हुई नज़र आती है, वह है मूल रूप से मानवीय संवेदना की अभिव्यक्ति, यह सिद्ध करते हुए कि धरती के किसी भी कोने में जहाँ भी मनुष्य साँस लेता है, मानवीय संवेदना का उद्दीपन होता है, वैसा ही उद्दीपन धरती के दूसरे कोने में रह रहे मनुष्य की साँस में होता है। चाहे उनके रीति-रिवाज़, कार्य करने का ढंग, प्राकृतिक सुषमा, भौगोलिक रूपरेखा, वैचारिक धारणा भिन्न-भिन्न क्यों नहीं हो। 

‘उसने सच कहा था’ कहानी में कहानीकार ने कनेडियन समाज के परिवारों की दुर्दशा और अगम्यगामी संबंध (incestuous relationship) को प्रस्तुत करते हुए भारतीय समाज से तुलना करने का प्रयास किया है। कैनेडा के तथाकथित सभ्य समाज में दस साल की पुत्री के साथ पिता को शारीरिक सम्बन्ध बनाने में कोई शर्म नहीं आती है और इससे ज़्यादा दुख की बात यह है कि उस पर भी उसकी शराबी माँ की चुप्पी इस घिनौने दुष्कर्म की मौन सहमति प्रदर्शित करती है। अगर ऐसा भारत में होता तो शायद उसकी माँ अपने पति के ख़िलाफ़ कोर्ट केस दर्ज करवा देती और उसे आजीवन जेल भेजने की व्यवस्था भी। यह कहानी कनेडियन समाज के खोखले पारिवारिक सम्बन्धों पर पैनी नज़र डालती है, जो लेखक की इन पंक्तियों में साफ़ झलकता है: 

जैनी ही थी—अपनी बहनों से थोड़ी दूर खड़ी चीख़ रही थी, “तो तुम्हें माँ ने भेजा है! नहीं लौटूँगी घर, कह देना उस बुढ़िया से, बात-बात में मुझे गश्ती कहती थी, अब बन गई हूँ मैं गश्ती। हो जाए ख़ुश! मैं नहीं लौटूँगी।”

वह पीठ कर, पैर पटक-पटक जाते हुए तक़रीबन दस क़दमों के बाद हो लौट आई। वह फिर चीखी, “वह बुड्ढा, तुम्हारा बाप! कहीं तुम्हें ग़लत ढंग से छूता तो नहीं?” प्रश्न बड़ी लड़की से था जो देखने में दस बरस के आस-पास की लग रही थी। वह लड़की बुरी तरह से डरी हुई थी। उसने अपना सिर नकारात्मक ढंग से हिला दिया। 

जैनी तन कर खड़ी हो गई, “ठीक है, ख़्याल रखना। अगर उसने थोड़ी भी छेड़खानी की तो मुझे बताना!”-कहते हुए उसने अपने पर्स में से एक चाकू निकाल कर हवा में लहराते हुए चेतावनी दी, “हरामज़ादे को काट कर रख दूँगी! तुम्हारी बड़ी बहन अभी ज़िन्दा है!!”

इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी ‘स्मृतियाँ’ लेखक की ख़ुद की अपनी कहानी प्रतीत होती है। जब वह भारत छोड़कर कैनेडा पहुँचते हैं और अपने भाइयों के मित्र वीरेन और सुषमा भाभी के अपार्टमेंट के पास रहते हैं। इधर उन्हें अपने घर की याद सताती है और उधर वीरेन भाई के अचानक हृदय आघात से मृत्यु होने पर सुषमा भाभी पर उनके घर वाले दूसरी शादी का ज़ोर डालते हैं। उसे विधवा देखकर एक बार डॉक्टर खुराना उनके बेटे के जन्म-दिवस पर बिना बुलाए फूलों का गुलदस्ता लेकर पहुँच जाते हैं तो वह उसे दुत्कार कर बाहर भगा देती है। कहानी के अंश देखें: 

एक दिन भाभी ने अनुरोध के जन्मदिवस पर हमें अपने घर खाने पर बुलाया। हम सभी बैठे बातचीत कर रहे थे कि द्वार की घंटी बजी। खोला तो देखा कि सामने डॉ. खुराना हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए हुए खड़ा है। उसे देखते ही भाभी आग बबूला हो गयीं। भाभी ने पूछा-

“डॉ. खुराना आप यहाँ कैसे?” 

“सोचा आज अनुरोध का जन्मदिन है सो उसे उपहार देने चला आया।”

“पर मैंने तो आपको आमन्त्रित नहीं किया।”

हम विस्मयपूर्वक यह वार्तालाप सुन रहे थे। डॉ. साहिब सकपका कर वहीं से लौट गए। जब भाभी वापस कमरे में आयीं तब झल्लाई हुई थीं। कहने लगी, “विधवा होना भी गुनाह है। सभी मर्द सोचते हैं कि जब चाहो सम्पर्क स्थापित कर लो। अब इसे ही देखो चला आया है बिन बुलाए जानती हूँ कि यह फूल किसके लिए लाया था।”

हम सभी लोग डॉ. खुराना को अच्छी तरह से जानते थे। काफ़ी बदनाम आदमी था। 

देखते-देखते उनकी विधवा भाभी बिना शादी के20साल पार कर लेती है और उनके बेटे की शादी की रस्म निभाने के लिए लाल रंग की थैली पकड़ाती है तो अतीत की सारी स्मृतियाँ तरोताज़ा हो जाती हैं। इस प्रकार कहानी में प्रवासी भारतीयों का दुख दर्द उभर कर सामने आया है कि किस तरह वे लोग भारत से आने वालों को आश्रय देते हैं और जब कभी उनके घर में कोई दुख का पहाड़ टूटता है तो वे सभी मिल-जुलकर किसी तरह उसका निदान करने का प्रयास करते हैं। कैनेडा में भारतीय समाज प्राचुर्य में नहीं है, केवल गिने-चुने लोग रहते हैं, मगर दुख के समय तो अपने ही लोग काम आते हैं। कहाँ भारत का संयुक्त परिवार और कहाँ कैनेडा का एकल परिवार! विदेश की धरती पर जीवन गुज़ारना कितना मुश्किल होता है और ख़ासकर जब उस देश की अर्थव्यवस्था ढीली पड़ने लगती है और वहाँ की कंपनियाँ दूसरे देशों में चली जाती हैं तो लोगों की नौकरी भी ख़त्म हो जाती है, ऐसी अवस्था में प्रवासी होना बहुत ही दुखदायक है, जबकि परिजनों और मित्रों का सोचना होता है कि विदेशों में बहुत पैसा मिलता है और पैसे कमाने के लिए हमें अपना देश छोड़कर विदेश जाने में किसी भी प्रकार की कोताही नहीं बरतनी चाहिए। 

‘पगड़ी’ कहानी में पगड़ी भारतीय संस्कारों का प्रतीक है। भारतीय समाज में ‘पगड़ी उतरना’ एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है मानहानि यानी इज़्ज़त पर बट्टा लगना। इस कहानी के मुख्य पात्र हरभजन सिंह को उनका हमउम्र विधुर मित्र बचन कैनेडा के नग्न-नृत्य देखने के लिए उकसाता है, यह कहते हुए कि ज़िन्दगी तो एकबार के लिए ही मिली है, इसलिए उन्हें हर पल का भरपूर आनंद लेना चाहिए। 

हरभजन लगभग भौंचक्के से बचन के चेहरे को देख रहे थे। मन में सैकड़ों प्रश्न उठ रहे थे। बचन ने भी उनके चेहरे को पढ़ा- 

“हैरान न हो भजन, यह तो यहाँ आम बात है। सभी जाते हैं, सभी देखते हैं, सभी आनन्द उठाते हैं . . . ऐसी कोई भी अजीब बात नहीं जो मैं भी देख आया सच बताता हूँ भजन, तू भी हो आ एक बार।”

हरभजन की ज़ुबान पर तो ताला सा लगा हुआ था। 

बचन की बातों से प्रभावित होकर हरभजन नग्न-नृत्य देखने के लिए चला जाता है और वहाँ जाकर आंतरिक द्वन्द्व में उलझ जाता है कि कहीं यह नर्तकी हमारे घर की बहू बेटी तो नहीं है, इस वजह से शर्म के मारे लाल-पीला होकर अपनी पगड़ी सँभालते हुए वहाँ उठकर बाहर निकलना चाहता है, इसी दौरान उसकी पगड़ी खुल जाती है और वह अपने आप को सँभाल नहीं पाता। 

अगली धुन शुरू होते ही एक भारत-वंशी नवयौवना मादक थिरकन लिए स्टेज पर झूम रही थी। हरभजन सिंह तन कर बैठ गए। रंग बदलते स्टेज के प्रकाश में वह गहरी निगाह से उसे पहचानने का प्रयत्न रहे थे। नशे के कारण निगाह टिक नहीं पा रही थी। एक-एक करके वह अपने कपड़े उतार कर स्टेज के आसपास बैठे मर्दों पर फेंक रही थी। जिसके हाथ में वह कपड़ा आता, वह उठ कर उसे चूमता हुआ झूमने लगता। हरभजन को लगने लगा कि वह लड़की स्वयं नहीं; यह मरद ही उसके कपड़े उतार रहे थे। किसकी लड़की हो सकती है . . . ? प्रश्न बार-बार गूँज रहा था। वातावरण में छाई कामुकता और शराब के नशे ने सब कुछ धुँधला कर दिया था। जब वह नाचती-नाचती स्टेज के कोने पर बैठ कर थिरकती थी तो कोई युवक उठ कर उसकी जाँघ पर बँधे रिबन में डॉलर खोंसता; वह धन्यवाद करती हुई उस युवक की आँखों में आँखेंं डाल कर सारी कामुकता ढाल देती। पैसे देने वाला मुस्कुराता हुआ अपनी कुर्सी में ढेर हो जाता। 

हरभजन यह सब देखते हुए भी इसमें ही खोए थे—कौन है यह? क्यों कर रही यह सब कुछ? जब तक कोई गोरी नाच रही थी तो उससे तो कोई रिश्ता नहीं था . . . पर यह तो अपनी है . . . क्यों . . . ? हरभजन वास्तविकता की दुनिया में लौट रहे थे। पहली धुन ख़त्म होते ही उन्होंने पूरे हॉल में नज़र दौड़ाई। कोई भी परिचित नहीं दिखा। इसका चिंता अभी तक तो उन्हें नहीं हुई थी तो अब क्यों? उनकी चिन्ता बढ़ती गई। दूसरी धुन शुरू हो चुकी थी . . .। हरभजन अब तक जान चुके थे कि धुन के कौन-से भाग में कौन-सा कपड़ा उतरने वाला है। वह इस सबसे अब दूर जा रहे थे। बार-बार उस स्टेज पर थिरकती लड़की के बारे उठ रहे प्रश्न उनका नशा उड़ा रहे थे। हॉल में फैली शराब की गंध उनका दम घोंटने लगी थी। धुन के अन्तिम चरण में जैसे ही नवयौवना ने अपनी ब्रा को खोलने के लिए हाथ उठाए, हरभजन एक ही झटके में उठ खड़े हुए। नहीं . . . वह यह नहीं देख सकते थे। कोई और होता तो दूसरी बात थी . . . पर यह . . . यह तो मेरी पोती भी हो सकती है! नहीं . . . नहीं . . . यह नहीं!! वह जितना शीघ्र हो सके उतना शीघ्र ही यहाँ से दूर हो जाना चाहते थे। बचन को यह सब अच्छा लगता हो—लगे! वह तो ऐसे नहीं उनकी जीवन की मान्यताएँ इतनी सस्ती नहीं! वह लगभग भागते हुए सीढ़ी उतरते हुए फिसले और गिरते-गिरते बचे। अगर वह डील-डौल वाला नवयुवक न होता तो वह अवश्य ही गिरते। इस हड़बड़ाहट में उनकी पगड़ी खुल कर नीचे जा गिरी। 

इस तरह विदेश की धरती पर भी निज देश के लोगों के प्रति प्रेम सहानुभूति और संस्कार मानवीय संवेदना का रूप लेकर लेखक की क़लम से उतरता है। 

अगली कहानी ‘उसकी ख़ुश्बू’ निर्मल वर्मा की कहानी ‘एक रात’ से मिलती-जुलती-सी नज़र आती है। निर्मल वर्मा की कहानी का पात्र इंग्लैंड की धरती पर अपनी तलाक़शुदा पत्नी और बच्चे को मिलने जाता है। बच्ची से मिल तो पाता है, मगर उसकी पत्नी उसे दुत्कार कर भगा देती है कि दूसरी बार वह कभी भी उसके घर में मिलने नहीं आएगा। जबकि सुमन जी ‘उसकी ख़ुश्बू’ कहानी में मुख्य पात्र की पत्नी उससे अलग रहती है, मगर अपने बच्चे को मिलने के लिए घर आती है और उसे कुछ खाने-पीने का सामान देकर लौट जाती है। उसकी ख़ुश्बू से उसके पिता को यह पता चल जाता है तरुण की माँ मीरा अवश्य घर लौटी होगी तो वह बेटे से कहता है कि तुम अपनी माँ से कहना कि वह बार-बार आती रहे। 

सुगंध और स्मृतियाँ इस तरह चोली-दामन का साथ बन जाते हैं। इस तरह विदेशी समाज में भारतीय लोगों के जीवन का ख़ालीपन, खीझ, कुंठा, स्वतंत्र व्यक्तित्व आदि सभी को उभार कर सुमनजी ने पाठकों के समक्ष अत्यंत ही मर्माँतक ढंग से प्रस्तुत किया है। 

‘लाश’ और ‘वह लावारिस नहीं थी’ इस संग्रह भले ही दो अलग-अलग कहानियाँ हैं, मगर उनकी अंतर्वस्तु एक ही है और वे एक-दूसरे की संपूरक प्रतीत होती हैं। ये कहानियाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति के कालजयी उपन्यास ‘संस्कार’ की याद दिलाती हैं, जिसमें उन्होंने एक पथभ्रष्ट ब्राह्मण नारणप्पा की लाश पर उनके घर वालों, सगे-संबंधियों, परिजनों और समाज की यथार्थ प्रतिक्रिया का जैसा वर्णन किया है, ठीक वैसा ही वर्णन इन दोनों कहानियों में परिलक्षित हो रहा है। पहली कहानी में फ़ुटपाथ पर सड़क के किनारे एक महिला की लाश को देखकर घटना-स्थल पर इकट्ठे हुए लोगों की टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं से शुरू होती है। कोई उस मृतिका के चरित्र पर लांछन लगाता है तो कोई उसे देसी औरत, आवारा, पागल संबोधित करते हुए वहाँ से हटना मुनासिब समझते हैं ताकि किसी पुलिस कार्रवाई के चक्कर में न पड़ जाएँ। अंत में, एक महिला रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि वह किसी भारतीय महिला की लाश है, जिसकी शादी उसके घर वाले उसके दूर के रिश्तेदार नरेंद्र से करवा देते हैं, जबकि वह उससे राखी बाँधवाता था। संस्कारहीनता के अपराध बोध से ग्रस्त होकर बेचारी अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में बेघर होकर मौत को गले लग जाती है। मानवीय संवेदनाओं को लेखक ने पेज नंबर 65 के अंतिम पैराग्राफ में प्रस्तुत किया है:

सहेली ने फिर बोलना शुरू किया। लगा कि आवाज़ किसी दूर कुएँ से आ रही हो। शब्द थे अर्थ दिमाग़ तक पहुँच नहीं पा रहे थे। पीड़ा थी पर चोट दिखाई नहीं दे रही थी। 

“बेचारी बेटी होकर भी कभी बेटी न हुई, शादी हुई पर बीवी न बनी, जन्म तो दिया पर माँ न बन सकी। ममता अगर मन में उठी तो मन के पाप ने उसे दबा लिया। मर तो बेचारी उसी दिन गई थी जिस दिन इसकी शादी हुई थी। लाश को कभी न कभी तो गिरना ही था। आज वह भी गिर गई।” कहते कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी। अब कौन किस को सँभालता। शर्मा जी कुछ समय के बाद बोले, “उठ बहन, सड़क पार करते हैं।”

“क्यों?”

“पुलिस को बताना है कि लावारिस नहीं है। यह लड़की अपनी ही बेटी है।” यंत्रवत वह उठी और सड़क पार करने लगी। किसी के पास कहने के लिए। कुछ बचा ही नहीं था। 

दूसरी कहानी, पहली कहानी का विस्तार है, जो लावारिस लाश से शुरू होती है। जिस तरह संस्कार उपन्यास में लाश के सामने परिजन तरह-तरह की बातें करते हैं, उसी तरह इस कहानी में एक तरफ़ उस लावारिस लाश के पिताजी अपने दामाद को नामर्द कहते हैं जबकि उसकी माता अपने दामाद को उसकी मौत का ज़िम्मेदार मानती है और जब छह साल उम्र वाले बेटे को कोई बुज़ुर्ग औरत उस लाश को संकेत करते हुए उसकी माँ बताती है तो नरेंद्र आत्म-ग्लानि से भर उठता है और अपने बेटे को लेकर शव-पेटिका की ओर बढ़ते हुए उस लाश की अंत्येष्टि की ज़िम्मेवारी अपने कंधों पर लेता है कि पड़ोसी शर्मा जी के मुँह से निकल पड़ता है “बेटी लावारिस नहीं है।”

‘सुबह साढ़े सात से पहले’ कहानी में यह दर्शाया गया है कि जो कमाता है, उसी की घर में चलती है, चाहे वह औरत हो या आदमी। कैनेडा में एक बार अचानक शेयर मार्केट गिरना शुरू हो जाते हैं और कंप्यूटर की कंपनियाँ बंद होने लगती हैं तो राजीव बेकार हो जाता है और गृहस्थी का भार उसकी पत्नी मीना सँभालने लगती है, यह कहते हुए कि आज से घर के सारे कामकाज करेगा घरेलू पति बनकर, सुबह सात बजे से पहले नाश्ता बनाकर रखना, घर साफ़ करना आदि। काम नहीं मिलने के कारण राजीव मीना की शर्त को स्वीकार कर लेता है और मीना के मीटिंग के समय कैसे कपड़े पहनेगी? प्रजेंटेशन के लिए जैकेट और स्कर्ट निकाल कर देता है तो वह कहती है क्या मैं गर्मी में मरूँगी? राजीव की मीना के सामने नहीं चलती है, फिर भी आर्थिक तौर पर परावलंबी होने के कारण वह नहीं चाहते हुए भी अपने जीवन से समझौता करने को बाध्य हो जाता है। 

‘असली नक़ली’ कहानी मन्नू भंडारी की प्रसिद्ध कहानी ‘त्रिशंकु’ की याद दिलाती है, जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों को आधुनिक बनने की सलाह देते हैं और जब वे आधुनिक बनने लगते हैं तो उनसे हम पर छींटाकशी करने लगते हैं। इस वजह से संक्रमण के दौर की यह पीढ़ी त्रिशंकु की तरह न तो ऊपर जा पाती है और नहीं नीचे आ पाती है, वह अधर में लटक कर रह जाती है। इसी तरह सुमन जी की कहानी ‘असली नक़ली’ में लेखक आधुनिक पीढ़ी के प्रेमी-प्रेमिका की बातें रेस्टोरेंट में छुपकर सुनने लगता है। बुज़ुर्ग पीढ़ी आधुनिक होने की चेष्टा तो करती है, मगर जब अपने बच्चों के साथ आधुनिकता की बात आती है तो उन्हें खटकने लगती है। इस तरह लेखक ने वर्तमान यथार्थ को सामने रखा है पेज नंबर 88 के अंतिम दो पहरे इस चीज़ को दर्शाते हैं:

“क्या करें दो संस्कृतियों का टकराव है। और हमारी पीढ़ी अपनी संस्कृति का अन्वेषण स्वयं ही कर रही है। माँ-बाप भारतीय संस्कृति हम पर लाद देना चाहते हैं, जबकि स्वयं वह भी उसका अनुसरण नहीं करते। जब भी देखो मम्मो अपनी ‘किट्टी पार्टी’ में व्यस्त रहती है। होता क्या है वहाँ? . . . वही जुआ या दूसरों की चुगलीबाज़ी और खुलतीं वाईन की बोतलें। हमारी भारतीय सभ्यता तो यह नहीं कहती,” लड़की ने फिर से कहा। 

“मेरे घर में तो इससे भी एक क़दम आगे का वातावरण है। दादा जी, जब भी अवसर मिलता है, धर्म, सभ्यता, भाषा या संस्कृति का भाषण देते रहते हैं, और स्वयं महीने में दो बार ‘केसिनोरामा’ जाकर जुआ खेलना नहीं भूलते। हर शाम ‘माल’ में बैठकर आने-जाने वाली सभी महिलाओं को घूरना भी उनकी संस्कृति का ही अंग है,” लड़के ने मुस्कुरा हुए कहा। 

‘स्वीट डिश’ कहानी में एक विधुर अपनी पत्नी की सहेली, जो स्वयं अकेली है, एक पार्टी के आयोजन से घर लौटते समय उसे अपनी कार में पनाह देता है। बातचीत के दौरान वह अपनी इच्छा ज़ाहिर करती है। और गाड़ी से उतरते समय उसके होंठों पर चुंबन देकर चली जाती है। सोचने की बात यह है कि उनके बहू और बेटे भी उनके एकाकी जीवन में उस सहेली के जीवन-संगिनी के रूप में आगमन को बुरा नहीं मानते हैं। इस प्रकार किस तरह समाज में वैचारिक परिवर्तन होते जा रहे हैं—वह समझने लायक़ तथ्य है। 

‘छतरी’ कहानी मुझे प्रसिद्ध ओड़िया कहानीकार सुरेन्द्र मोहंती की कहानी ‘गुलमोहर’ की याद दिलाती है, जिसमें एक व्यक्ति अपने एकाकीपन से नजात पाने के लिए रात को अकेले गुलमोहर पेड़ पर चढ़कर वर्तमान के क्षणों को जीना चाहता है, अपनी नीरसता को दूर करना चाहता है, ठीक उसी तरह ‘छतरी’ कहानी में पत्नी की मृत्यु के बाद छतरी लेकर सुरेंद्रनाथ बाज़ार में घूमता है, मंदिर जाता है, सैर-सपाटा करता है, छतरी के बहाने लोग उसे मौसम का हाल-चाल पूछते हैं और वह मिलने वालों की कुशल-क्षेम पूछता है, इस तरह वह अपनी निस्संगता और नीरसता को दूर करता है। अंत में, एक मंदिर में जाकर पुजारी के साथ काम करने का निश्चय करता है और अपना छाता वहीं छोड़ कर। 

इस कहानी-संग्रह को पढ़ने के पश्चात इतना कहा जा सकता है कि सुमन घई जी जैसे समर्पित विद्वान लेखकों द्वारा कैनेडा में रचे जा रहे ऐसे उदात्त हिंदी साहित्य को हिंदी की मुख्य धारा वाले साहित्य की श्रेणी के अंतर्गत गिना जा सकता है। प्रवासी कथाकार शृंखला के संपादक तेजेंद्र शर्मा के शब्दों में “इस साहित्य को प्रवासी साहित्य न कहकर भारतेतर साहित्य कहना ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि विदेश की धरती पर रह रहे भारतीयों में हिंदी के बेहतरीन कथाकार, उपन्यासकार और कवि लेखक हमारे सामने आए हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा को सुदृढ़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उनके साहित्य में अपने प्रवास की कथा अवश्य आएगी और उसके बिना वह साहित्य सफल भी नहीं होगा।” 

अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि वरेण्य लेखक संपादक सुमन कुमार घई के कहानी संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ का हिंदी जगत में उन्मुक्त मन से स्वागत सत्कार होगा। 

इन्हीं शब्दों के साथ अशेष शुभकामनाएँ देते हुए

दिनेश कुमार माली, 
तालचेर, ओड़िशा
 

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