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प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि

 
समसामायिक प्रसंगों पर पैनी नज़र रखने वाले प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव का नाम व्यंग्य-विधा में चिर-परिचित हैं। जाने-माने समाजवादी विचारक और ‘महावीर समता संदेश’ के प्रधान संपादक हिम्मत सेठ के इस अख़बार में समय-समय पर कागभुशुंड के छद्म नाम से लिखने वाले प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव उदयपुर की मोहनलाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र विभाग के सेवा-निवृत्त विभागाध्यक्ष हैं। यही नहीं, महावीर समता संदेश और धौलपुर साप्ताहिक के संपादक मण्डल के सदस्य हैं। आपके व्यंग्य आलेख और चित्र उदयपुर, इंदौर, भोपाल और धौलपुर से प्रकाशित होते रहे हैं। राजस्थान जनरल ऑफ़ सोशियोलॉजी के आप संपादक रह चुके हैं। 

महावीर समता संदेश प्रकाशन के बैनर तले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के आचार्य और स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज के चेयरमैन प्रोफ़ेसर रामबक्ष के स्तंभ ‘आओ दोस्ती निभाई’ का संकलन ‘साहित्य और मीडिया’ नाम से, फिर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर सौभाग्यवती (जो बाद में उदयपुर में बस गईं) के लेखों का संग्रह ‘आधी दुनिया के सवाल’ और तत्पश्चात् महावीर समता संदेश में डॉ. राम मनोहर लोहिया के लेखों और उन पर लिखे गए लेखों का संग्रह उनकी जन्म शताब्दी पर ‘शतायु लोहिया’, प्रोफ़ेसर हेमेंद्र चंडालिया के लोकप्रिय चेतक सर्कल के चयनित लेखों का संग्रह ‘श्शश चुप, विकास हो रहा है’ और पाक्षिक समता-संवाद के विचार-विमर्श पर आधारित रिपोर्टों का संकलन ‘समता-संवाद’ प्रकाशित हुआ है। इसी शृंखला की अगली कड़ी में प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव का व्यंग्य आलेखों का संग्रह ‘काक-दृष्टि’ इसी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इस व्यंग्य-संग्रह में 89 आलेख हैं, अगर यह भी मान लेते हैं कि सभी पाक्षिक प्रकाशित हुए हैं तो उनकी 1365 दिन की कम से कम अवधि यानी लगभग 4 साल की अनवरत दीर्घ सारस्वत कमाई का परिणाम है। 

प्रोफ़ेसर हेमेन्द्र चंडालिया ‘काक दृष्टि’ के बारे में कहते हैं कि समाज की विषमताओं के विरुद्ध विडंबना और अंतर विनोद को सरल भाषा में मनोविनोद की शैली में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने वाली पुस्तक है। छोटे-छोटे व्यंग्य लेखों के माध्यम से समसामयिक विषयों पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर भार्गव पाठकों का दिल चुरा लेते हैं। वे समाजशास्त्री तो हैं ही, मगर उसके साथ राजनीतिक दृष्टि से प्रगतिशील विचारों के पक्षधर होने की कला भी उनमें परिलक्षित होती है। 

व्यंग्य एक ऐसी विधा है, जो छोटी-छोटी घटनाओं पर कटाक्ष कर पाठक के मन के किसी कोने को प्रभावित करती है। घटनाएँ भले ही छोटी हो, मगर उनके भीतर एक ख़ास उद्देश्य छुपा हुआ होता है। समाज के किसी भी परिपेक्ष में घटनाएँ चाहे, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक सामाजिक या व्यावहारिक पहलुओं को आधार व्यंग्यात्मक रूप से बनाकर लिखी गई हों, अवश्य पढ़ते समय पाठकों के मन में गुदगुदी पैदा होती है, उसका कारण होता है उन शब्दों का प्रयोग जो साधारणतया आम जनता बोलती है और उस भाषा के माध्यम से वह उनके आलेखों में पात्रों के समीप पाती है। 

‘काक दृष्टि’ शीर्षक से ही मन में एक व्यंग्य छवि उभर कर आँखों के सामने आती है। कहने को तो दृष्टि दो प्रकार की होती है, दिव्य दृष्टि और गिद्ध दृष्टि। आधुनिक युग में दिव्य दृष्टि की बात रहने देते हैं। अपनी तेज़ पैनी निगाहों से जिस तरह मीलों ऊँचाई से उड़ते हुए भी गिद्ध पल भर में अपने शिकार को पकड़कर नोंच लेता है, काक में ऐसी दृष्टि कहाँ? बक दृष्टि भी समझ में आती है कि बगुला एकाग्र होकर गहरे पानी में तैरती मछली या अन्य जलीय जीवों को ध्यानपूर्वक देखते हुए झट से अपना शिकार बना लेता है मगर काक दृष्टि? 

निस्संदेह कौआ बुद्धिमान होता है, तभी तो प्यासा कौवा पानी के मटके में कंकड़ डालता है और पानी ऊपर आने पर पीकर अपनी प्यास बुझाकर उड़ जाता है। इस तरह वह पंचतंत्र, हितोपदेश जमाने की कहानियों की विषय-वस्तु बन जाता है। इस तरह कौए की मेहनत, प्रयास की हर जगह तारीफ़ होती है। 

विद्यार्थियों के लक्षण बताते हुए चाणक्य ने आप्त वाक्य कहा:

“काक-चेष्टा, बक ध्यानम्, श्वान-निद्रा, मितभाषी, अल्पाहारी, इति विद्यार्थीनाम षट लक्षणम्” 

जो आज तक सर्वव्यापी वाक्य है। यही नहीं, रामायण में काग-भुशुंडी तुलसीदास जी के प्रमुख पात्रों में एक हैं, जो संकट के समय में रामचंद्रजी का मार्गदर्शन करते हैं। रामायण ही क्यों, बुकर पुरस्कार से सम्मानित आधुनिक उपन्यास ‘रेत समाधि’ की लेखिका गीतांजलि ने भी भारत-पाकिस्तान बँटवारे की कहानी में कौआ को एक विशिष्ट पात्र बनाया है। राजस्थान के गाँवों में आज भी कौओं की काँव-काँव से किसी अतिथि के आगमन की सूचना मिलती है। प्रोफ़ेसर भार्गव ने कौए की प्रजाति में कुछ-न-कुछ अवश्य ख़ासियत देखी होगी जैसे कि झूठ बोलने पर कौआ काटता है, चोंच मारता है। सच में नहीं, फ़िल्मों में ही सही। तभी तो रामायणकालीन पात्र कागभुशुंड को प्रोफ़ेसर भार्गव ने अपना छद्म नाम चुना। अब प्रश्न यह उठता है कि एक प्रख्यात समाजशास्त्री लेखक को कागभुशुंड क्यों बनना पड़ा? सोचने का विषय यह भी है कि अगर वे चाहते तो अपनी क़लम की तलवार से विरोधियों पर सीधा प्रहार कर सकते थे। क्या सच में उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ पढ़कर अभिव्यक्ति का ख़तरा उठाना नहीं चाहा? जो भी कारण रहे हों व्यंग्य विधा को हरिशंकर परसाई जी की तरह समृद्ध करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘भोलाराम का जीव’ की तरह भले ही उनकी कोई व्यंग्य कहानी सामने नहीं आई, मगर इस संग्रह में उनके ‘सड़क पर’, ‘पप्पू प्रोफ़ेसर’, ’जूताकथा’, ’लेखकनामा’, ’मंत्री उवाच’, ’सूर की डायरी’, ’घोटम घोंट’, ‘नई मेघ यात्रा’ जैसे व्यंग्य आलेख भी उसी श्रेणी से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। ‘सड़क पर’ व्यंग्य में दिल्ली की सड़क पर उतरे हुए बड़े-बड़े लोगों में बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, केजरीवाल पर चुटकी लेते हैं तो ‘पप्पू प्रोफ़ेसर’ आजकल विश्वविद्यालयों की शिक्षण पद्धति पर करारा प्रहार किया है कि किस तरह कम पढ़े लिखे लोग ‘पप्पू प्रोफ़ेसर’ विश्वविद्यालयों में काम करते हैं, मंत्रियों का भाषण लिखते हैं बहुत कठिन शब्दों का प्रयोग करते हुए, जिनका अर्थ उन्हें ख़ुद नहीं मालूम होता है। ‘जूताकथा’ में व्यंग्यकार ने जूतों को आधार बनाकर नेताओं के ऊपर विधानसभा में किस तरह जूते फेंके जाएँगे-उसके बारे में कटाक्ष किया है। 

उनकी व्यंग्य विधा कितनी तेज़ और प्रखर है! यह उनके पाठक ही जानते हैं। वे व्यंग्य की भाषा लिखते ज़रूर हैं, मगर पाठकों को अल्पकालिक हँसाने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिए। उनके व्यंग्य लेखन में ‘हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और’ की उक्ति चरितार्थ होती है। उनकी व्यंग्य की भाषा बाहर से बाहर से भले ही हँसोड़ प्रतीत होती हो, मगर उसके पीछे उनका दुख-दर्द, आक्रोश और रुदन छिपा हुआ है, जिन्हें आप निम्न पैराग्राफ में अनुभव कर सकते हैं:

“अभी चुनाव हो चुके हैं। ऐसी व्यंग्य भाषा के आगे सभी व्यंग्य लेखक चित्त हो गए। रिश्तों का बखान तो व्यंग्य में बहुत हुआ पर फूहड़ता की एक नई भाषा बन रही है। इसका आभास अभी हुआ है। असल में हमारे राजनेता किताबें पढ़ते ही नहीं हैं। वसुन्धरा जी अंग्रेज़ी में पढ़ती हैं। सो अंग्रेज़ी में ही ख़ुश रहती हैं। हिन्दी के राजनीतिक वक्ता जन भाषाओं का भी शुद्ध प्रयोग नहीं कर सकते वैसे भी यहाँ हिन्दी साहित्यकारों का राजनीति से क्या लेना-देना? साहित्य की राजनीति से उबरे तो देश की राजनीति की सुध ले। 

“सो भाइयो और बहनो अख़बार, टीवी और रेडियो की क्या कहें किताब के आनन्द के दिन अब पुरातत्व संग्रहालय में है। पर्यटकों के गाइड अब कहा करेंगे इस देश में कभी पढ़ने की आदत थी पर अब सामने वाले मुर्दा के रूप में (रांगेय राघव से क्षमा प्रार्थना के साथ) सब दबे पड़े हैं।” (किताबें, पृष्ठ-29, काक-दृष्टि) 

हिन्दी के आलोचक अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा-शैली में वक्रोक्ति कब आती है? किसी लेखक का मस्तिष्क और हृदय इतना संवेदनशील होता है कि जब वह अपनी आँखों के सामने कुछ ग़लत होते हुए देखता है, चाहे शोष, दमन, रुदन, क्रंदन और बहुत कुछ . . . मगर वह उन्हें रोकने में अपने आप को असहाय और असमर्थ पाता है तो वह मन के कोह और तनाव को कम करने के लिए वक्र भाषा का प्रयोग करता है। दुष्यंत की तरह ही सही, ‘कौन कहता है आसमान में सूराख़ नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो’ की तर्ज़ पर वे पत्थर तो उछाल देते हैं, भले ही वे पत्थर आसमान तक पहुँचे या न पहुँचे, यह दूसरी बात है। मगर उनका उद्देश्य—‘यह आग मुझ में नहीं तो, तुझ में ही सही जलनी चाहिए’ साकार कर दिखाते हैं। इस आग के कुछ अंश देखें:

“अब लोग पुस्तकें नहीं पढ़ते। पुराने ज़माने में लोगों के मनोरंजन के लिये अनेक किताबें थी जो शहर के थोड़े बहुत पढ़-लिखे ओर ग्राम में कुछ पढ़े-लिखों के बीच लोकप्रिय थीं। गंगाराम पटेल बुलाकी नाई, किस्सा हातिम ताई, गुलबकावली, डॉ. डाकू बहराम और न जाने कितने शीर्षक अभी भी ताज़ा हैं। इसके अलावा उत्तरप्रदेश के पश्चिम क्षेत्र में आल्हा, लोक भजन और सुखसागर न जाने कितना भक्ति काव्य विभोर में मिला रखा था। इसके अलावा रामायण, महाभारत और इन्द्र दरबार सभी कुछ बेस्ट सेलर थे। चाँद के 1929 के मारवाड़ी अंक में जयपुर से प्रकाशित पुस्तकों में घरेलू रास लीलाएँ भी चटखारे लेकर पढ़ी जाती थीं। यदि उस ज़माने की पत्रिकाएँ देखें तो तत्कालीन चित्र कला के अद्भुत नमूने भी नज़र आते थे। विज्ञापन देखें तो न केवल केश शृंगार पर उस ज़माने के मात्र चार सौ रुपये में मोटर गाड़ियाँ भी उपलब्ध थीं। इण्डियन प्रेस की सरस्वती, दुलारे प्रेस की माधुरी सब कुछ ऐसी ही थीं। अब यह माल बिखरा हुआ है। इनको प्राप्त करना बड़ा कठिन है। हिन्दी साहित्य सममेलन प्रयाग में भी नहीं। 

“एक बड़ा प्रश्न उठा खड़ा हुआ है क्या कोई पढ़ता है? उत्तर मिला अब लोग देखते हैं। किताबें अब पुस्तक विक्रेता के यहाँ नहीं, पर कम्प्यूटर पर मिलती हैं। आप स्विच दवाइये, आँखें फाड़िये और देखिये। आप और अब पुस्तकें भी वह नहीं है जो पहले पढ़ी जाती थी। मराठी, बंगाली, तमिल और में पाठक तो मिल जायेंगे पर हिन्दी का क्या? हिन्दी के परिवेश में बहुत कुछ बदल गया है। अब लोग कवि सम्मेलनों में इसलिये जाते है क्योंकि वहाँ जाकर वे हँसेंगे। यानी हिन्दी के कवि सम्मेलन, सम्मेलन न हुए कॉमेडी सर्कस हो गये। आइये और हँसिये। भारतेन्दु बाबू होते तो अपना सर पकड़ लेते। कैसी कविता पर अभिमान करें। हिन्दी के समाचार पत्रों को देख लीजिए।” (किताबें, पृष्ठ-29, काक-दृष्टि) 

भले ही, मैं प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव को अभी तक नहीं मिला हूँ, मगर उनकी ‘काक दृष्टि’ पढ़कर उनके मन की वेदना-संवेदना की अथाह गहराई को अवश्य स्पर्श करने का अवसर मिला है। उनका लेखन भी एक प्रकार का असहयोग आंदोलन है, महात्मा गाँधी की तरह, जिसमें जनता के दुख-दर्द को शोषक शासकों के कानों तक पहुँचाने के लिए उनकी ‘काक दृष्टि’ एक सार्थक उद्यम है। उनके व्यंग्य आलेखों को राजनीति, शिक्षा के स्तर, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं आदि के व्यंग्यों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

राजनीति पर व्यंग्य:

प्रोफ़ेसर भार्गव समाजशास्त्री हैं, इसलिए समाज की हर गतिविधि पर उनकी निगाहें रहती है और ख़ासकर राजनीति पर। हो भी क्यों नहीं, जैसा राजा वैसी प्रजा। प्रजा को जानने के लिए बेहतर यह होगा कि राजा को ही क्यों न जान लिया जाए, उनका चाल-चलन, उनकी गतिविधियाँ और उनका व्यवहार। ऐसे तो व्यंग्यकार भार्गव के हर आलेख में राजनीति आ ही जाती है, मगर ‘झाड़ू परिषद’, ’लोकतंत्र की भागदौड़’, ’मंत्री उवाच’, ’चुनाव की होली’, ’आइए वोट दें’, ’लोकतंत्र में सामंतवाद’, ’चुनावी बयार’, ’छद्म धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म राष्ट्रवाद’, ’संघम् शरणम् गच्छामि’, ’राजनीति में कुछ अजब तमाशे’, ’काला सफेद’ ‘नमो नमो’, ’देश की बात’ और ‘नई मेघ-यात्रा’ प्रमुख है। कुछ पद्यांश:

“हे मेघ तुम केरल से रवाना हो रहे हो। वहाँ अभी-अभी कम्यूनिस्टों की सरकार बनी है। ज़रा-सा सम्भलकर चलना। आगे बढ़ोगे तो इसके विपरीत नज़ारा देखोगे। वहाँ कांग्रेस के क्षेत्रप की सरकार चल रहे हैं। इसलिये सँभलकर चलना। वहाँ वर्षा कर देना। फिर तुम्हें महाराष्ट्र मिलेगा। वहाँ सूखा पड़ रहा है। गोआ में अटकते-अटकते और परिक्कर की तोपों से बचते-बचाते और महाराष्ट्र की लावणी सुनते थोड़ा ठहर लेना। शिव सेना भक्त तुम्हारा स्वागत करें और पंचासवीं जयंती के सिलसिले में अभिनंदन करेंगे वहाँ भाजपा की सरकार है सो मैदान में भगवा झंडे ज़्यादा दिखाई देंगे, अपनी हवा से नागपुर का झण्डा ज़रा हिला देना। फर फर की आवाज़ से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग प्रसन्न हो जायेंगे। थोड़ा विश्राम कर ज़रा शिवराज सिंह की सरकार के नमूने देख लेना। बीच में तुम्हेंं छत्तीसगढ़ का हिस्से भी मिलें नक्सलवाद की गोलियों से थोड़ा सावधान रहना। गर्जना ज़रूर जिससे कम्पन और बढ़े। यही छत्तीसगढ़ की माया है। बंगाल में झारखण्ड है बंगाल की खाड़ी के मेघ भी तुम्हेंं मिलेंगे। ममता बनर्जी की छवि यहाँ व्यापक है। थोड़ा छवि को भी देख लेना दूर से तुम्ह हिमालय की चोटियाँ भी दिखाई देंगी पर दक्षिणी वहाँ नहीं मिलेगी। बिहार और बंगाल की सुन्दरियों से ज़रा हटकर तुम अपनी सीधी राह पकड़ लना और शिवराजसिंह के साम्राज्य पर ही चल पड़ना। बहुत पहले जब गया था तो माला की सुन्दरियों से सावधान किया गया सो भैय्या तुम भी सावधान रहना। 

“और फिर मिलेगा उत्तर प्रदेश जहाँ अगली यात्रा में दिखाई देनेवाला चुनावी अखाड़ा खोदा जा रहा है। वहाँ लोग भाग रहे हैं। समाजवादी मुलायमसिंह यादव, ठाकुर राज नाथसिंह, बहन मायावती आदि बहुत से राजनीतिक दिग्गज वहाँ ज़ोर लगा रहे है। इसे ज़ोर आज़माइश मम्मा तुम पड़ना। यह धोती फाड़ युद्ध है। सो ज़रा सँभल कर चलना। भाजपा वहाँ बहुत धुआँ करेगी पर अपनी वर्षा से उसे शान्त कर देना। दिल्ली की नालियों का कीचड़ जब सड़कों पर बहेगा तो बड़ा मज़ा आयेगा। अब तुम जा पहुँचे हो हिमालय क्षेत्र में भारी भूकंपों ने जाने क्या-क्या किया है? यक्षिणी का पेड़ अभी सुरक्षित है। वहीं तुम्हारा इन्तज़ार हो रहा है। पहाड़ों पर टकरा कर यह प्रेमपत्र दे देना और कहना यक्ष ज़रूर आयेगा पर रास्ते में उसे भाजपा के कार्यकर्ताओं से पकड़े जाने का भय है। भारतीय संस्कृति के किसी भी खुले आधार को वह अपनी तिज़ोरी में बंद कर लेते है।” (नई मेघ यात्रा, पृष्ठ-61, काक-दृष्टि) 

शिक्षा के स्तर पर व्यंग्य:

प्रोफ़ेसर भार्गव आजीवन शिक्षा से संपृक्त रहे हैं इसलिए शिक्षा के क्षेत्र की विद्रूपताओं और विसंगतियों पर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक है। वे एक सच्चे शिक्षक हैं और देश की उन्नति में शिक्षा के महत्त्व को अच्छी तरह जानते हैं। मगर तकनीकी कहो या नया जमाना, आजकल विद्यार्थियों का मन शिक्षा से ऊब रहा है। हमारे देश में शिक्षा की नौकरी और व्यवसाय का साधन माना जाता है, जबकि आधुनिक युग में सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद विद्यार्थियों को नौकरी नहीं लगती है और उन्हें किसी प्रकार का रोज़गार नहीं मिलता है तो समाजशास्त्री साथ-साथ शिक्षाशास्त्री होने के कारण प्रोफ़ेसर भार्गव अपनी असहायता प्रकट कर अपने क्षुब्ध मन को शान्ति दिलाने का प्रयास करते हैं, तभी उनकी कलम ‘किताबें’, ’इतिहास बोध’, ’नए पाठ: कक्षा कोई भी’, ’क्यों न नक़ल विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए?”, “विश्वविद्यालय: नई रंगतें’, ’ये हमारे उच्च शिक्षा केंद्र’, ’नौकरी’ जैसे आलेख लिख डालते हैं। आपके अवलोकनार्थ ‘क्यों न नक़ल विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए?” के कुछ पद्यांश प्रस्तुत हैँ: 

“बात यों हुई कि हवाई अड्डे पर किसी को छोड़ने गया। फ़्लाइट देर से थी। वही आम आदमी की बेंच पर बैठ गया। कुछ देर के बाद एक सुरक्षा कर्मचारी वहाँ आ गया और पूछताछ करने लगा। जब उसने समझा कि मैं उच्च शिक्षा से संबंधित हूँ तो उसने एक प्रश्न पूछा—क्या यहाँ चोरी होती है। उसके इस सवाल पर पहले तो चौंका—पर तुरन्त बात समझ में आ गई। उसका आशय था क्या यहाँ नक़ल होती है? मैंने कहा कि मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है। बोला कैसी शिक्षा व्यवस्था है जिसमें नक़ल नहीं होती। इससे तो हमारा प्रदेश अच्छा। लोग नक़ल कराने के लिये तीन-तीन मंज़िल ऊपर चढ़कर नक़ल के कारतूस विद्यार्थियों को बाँट आते हैं और सभी छात्र उत्तीर्ण हो जाते है। बड़ा बैकवर्ड इलाक़ा है।” (‘क्यों न नक़ल विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए?’, पृष्ठ-59, काक-दृष्टि)

सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर व्यंग्य:

समाजशास्त्र के गहन अध्येता होने के कारण अपने चारों तरफ़ समाज में घट रही सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ओर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक है। जब भी वह व्यंग्य लगते हैं तो अपने आप को आम आदमी समझ कर उसकी हताशा, निराशा, कुंठा, आशा-आकांक्षा, प्राप्ति-अप्राप्ति आदि सभी को अपने भीतर आत्मसात कर आम आदमी की वेदना-संवेदना पर क़लम चलाते हैं। उनके ‘टमाटर नामा’, ’पन्नालाल मूँगफली वाले’, ’पत्नी और धर्मपत्नी’, ’आशीर्वाद’, ’प्याज़ का चक्कर’, ’नाम बन जाएगा’, ’हम श्रोता’, ’खेती के किस्से’, ’वासना का ज़हर’, ’उठापटक’, ’मीडिया के रंग’ ‘शोक समाचार’, ’बरसात का आनंद’ जैसे अत्यंत लोकप्रिय व्यंग्य आलेख इस श्रेणी में आते हैं। ‘टमाटर नामा’ में उन्होंने अत्यंत ही रोचक ढंग से महँगाई पर कटाक्ष किया है। कुछ अंश देखें:

“अभी अख़बार में ख़बर थी कि चोर घर में घुसा और पच्चीस किलो टमाटर उठा ले गया। एक विधायक के घर में पचास किलो टमाटर पकड़ा गया। लोग बाग़ भी क्या-क्या इकट्ठा करने लगे हैं। एक और समाचार के अनुसार एक शादी में लड़के वाले ने लड़की वाले से कहा कि भैये बारात के स्वागत में ज़रा टमाटर जूस पिलवो दीओ। पता चला लड़की के पिता को हार्ट अटैक हो गया। जब होश में आया तो उसने हाथ जोड़कर कहा महाराज चाहे जो माँग लो मगर इतना महँगा आइटम न माँगे। एक और ख़बर सुनिये गाँव के गुज़रती बस में जब कंडक्टर ने टिकट माँग तो गाँव वालों ने पाँच टमाटर पकड़ा दिये। कहने लगा भैया मेरे खेत के है। तेरी टिकट की क़ीमत के बराबर इसकी क़ीमत है। टिकट के बदले यही लेले। यह टमाटर आख़िर कहाँ गया? यह टमाटर आख़िर कहाँ गया? जब हिन्दुस्तान में यह लाया गया था तब तो इसको कोई नहीं खाता था। प्याज़ की तरह टमाटर पर भी सरकार को जाँच कमीशन बिठाना चाहिए। अभी उन दिनों मुझे एक नेताजी मिले कहने लगे यह टमाटर का महँगा होना था। अगर किसी बच्चें के गालों की आपने टमाटर से तुलना कर दी तो माँयें गाली निकालने लगी हैं। उनका मानना है कि इससे लोगों की नज़र लगती है। एक कवि ने यह लिख दी है:

टमाटर के भाव, चन्द्रमा की दूरी
घर में नहीं था, इसलिये सब्ज़ी रही अधूरी

पहले कवि सम्मेलनों में कवि पर सड़े टमाटर फेंका करते थे। अब लोग बेर फेंकने लगे है। एक कवि सम्मेलन में एक दो टमाटर फेंके तो सब कवि उन्हें बटोरने के लिये लपके। कुछ भीड़ में से भी निकले कर स्टेज पर आ गये। पता चला एक कवि सम्मेलन में यह भी घोषणा हुई कि अच्छी कविता तभी पढ़ी जायगी जब टमाटर फिकेंगे। (टमाटर नामा, पृष्ठ-10, काक दृष्टि) ” 
 
साहित्य पर व्यंग्य:

व्यंग्य साहित्य की एक अद्भुत विधा है, जो पहले गुदगुदाती है और फिर पीछे रुलाती है। इसमें हास्य भी है तो रुदन भी है। लेखन का निशाना कहीं और होता है और लगता कहीं और है। भले ही, साधारण पाठक ही क्यों न हो, मगर विषय की गंभीरता, सटीकता और सार्थकता ऊँचे-ऊँचे को हिला कर रख देती है। प्रोफ़ेसर भार्गव के आलेख देखने में छोटे लगते हैं, मगर घाव बहुत गहरा करते हैं। उनके आलेख ‘एक कबीर की तलाश’, ’लेखक नामा’, ’आषाढ़ का प्रथम दिन’, ’कमाल के लोग’ ‘007 जासूस’ आदि इस श्रेणी में आते हैं। अगर उनकी ‘काक दृष्टि’ को कोई राजनेता अथवा नीति-निर्धारक वर्ग, समाज के कँगूरे ध्यानपूर्वक पढ़ते तो उन्हें उनके आलेखों में सामान्य जनों के हृदय की पीड़ा भरी धड़कन अवश्य सुनाई देगी। अधरों पर मुस्कान, मगर हृदय में कोह। ‘एक कबीर की तलाश’ का एक पद्यांश देखें:

“सब बहस में उलझे हैं भारत के नागरिकों के लिए यह आत्मभ्रांतियों की उपज है। पाखण्ड और रूढ़िवादिता की चादर और भविष्य का दिवाला। ऐसी ही कुछ कबीर के जमाने में भी थी। तभी कबीर को पाखण्डी धुँध उठना पड़ा और कहना पड़ा-जो घर फूँके आपनो चले हमारे साथ। अब घर कौन फूँके इस पर भी हाय तौबा है। सबसे बड़ा लफड़ा यही है कि किसी के हाथ में कबीर की लाठी है। लाठियाँ यो तो पुलिस के पास है। वैसे तो कामता प्रसाद गुरु भी लिख गये थे—लाठी में गुण बहुत है/सदा राखिये संग। पर कबीर की लाठी सबसे अलग थी। इसीलिये उन्होंने मुल्ला और पुजारियों को कह दिया था—इतनी ज़ोर से क्यों चिल्लाते हो।” (एक कबीर की तलाश, पृष्ठ-73, काक-दृष्टि) 

शोषक शासकों की गिद्ध दृष्टि पर प्रोफ़ेसर भार्गव की ‘काक दृष्टि’ अवश्य ही भारी पड़ेगी और भविष्य में देश की काया को नोच-नोचकर खाने से कतराएँगे। गिद्ध दृष्टि वालों को भी लगेगा कि उनकी तरफ़ साथ में झाँकने वाला कोई इस भूमंडल पर मौजूद है और वह अपने अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर उनके कुइरादों को भाँपकर जनता को पहले से ही सावधान रहने के लिए आगाह कर देता है। अंत में, इतना ही कह सकता हूँ कि नरेश भार्गव की दृष्टि पढ़कर पाठक वर्ग न केवल देश की वास्तविक परिस्थितियों से वाक़िफ़ होंगे, बल्कि उनके समाधान की ओर भी प्रवृत्त होंगे और उनके व्यंग्यों में अपने आपको और अपने इर्द-गिर्द के लोगों को पात्र के रूप में अनुभव कर उनकी परेशानियों के स्थायी निदान के लिए समाज के उत्थान हेतु कुछ सकारात्मक कार्य करेंगे, जो उनके लेखन का मुख्य उद्देश्य भी है। यद्यपि महावीर समता संदेश के नियमित पाठकों ने ‘काक दृष्टि’ को पहले अख़बार में प्रकाशित होने के समय अवश्य पढ़ा होगा और उसके पीछे काग भुशुंड के सही नाम को जानने के प्रयास भी किया होगा, मगर अब इस पुस्तिका के माध्यम से उनका सही नाम हमारे बीच उजागर हो चुका है और हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित हो गए हैं तो लेखक को समग्रता से जानने के लिए फिर से एक बार इस कृति को एक साथ पढ़ना चाहिए। 

हिंदी जगत में इस अद्भुत कृति के रसास्वादन के लिए विपुल पाठक अवश्य खींचा चला आएगा। इसी आशा के इस कृति की सफलता की कामना करते हुए . . .

— दिनेश कुमार माली, 
तालचेर, ओड़िशा

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  1. भिक्षुणी
  2. गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी
  3. त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 
  4. स्मृतियों में हार्वर्ड
  5. अंधा कवि

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. अदिति की आत्मकथा
  2. पिताओं और पुत्रों की
  3. नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ