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उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’

समीक्षित पुस्तक: हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के 
संपादक: उद्भ्रांत 
प्रकाशक: यश प्रकाशन,नई दिल्ली 
मूल्य: ₹ 595/- (पेपरबैक) 

विगत दशक में मैंने उद्भ्रांत जी के लगभग समग्र साहित्य का गहन अध्ययन किया है,  उनकी लगभग सभी विधाओं का,  एक शोधार्थी के रूप में—उनके गीत-गज़ल-नवगीत, कहानी, समकालीन कविता,  काव्य-नाटक,  आत्मकथा,  उपन्यास,  अनुवाद,  संस्मरण,  आलोचना, पत्र-विधा सभी का। साहित्यिक लेखन की हर विधा में उनका योगदान उल्लेखनीय है। जिस तरह उनकी कविताएँ ‘सदी का महाराग’ बन जाती हैं,  उसी तरह उनका अन्य गद्य लेखन भी वैश्विक धरातल पर ‘सदी का महालेख’ बन जाता है। 

जिस तरह अशोक के शिलालेख अथवा पुरालेख तत्कालीन मानव समाज में हो रहे परिवर्तनों के लेखा-जोखा का सिलसिलेवार ब्योरा देते हैं,  उसी तरह आगे जाकर भविष्य में उद्भ्रांत जी का समग्र लेखन भी अपने साहित्यिक जीवन के कालखंड–यानी 1960 से आज तक हिन्दी जगत में हो रहे गंभीर चिंतन-मनन, वैचारिक उत्थान-पतन,  बदलता समाज,  बदलती राजनीति,  लेखन-शैली में हो रहे परिवर्तन, बहती नदी की तरह बदलती भाषा आदि पर प्रकाश डालने वाला विश्वसनीय दस्तावेज़ सिद्ध होगा। 

उद्भ्रांत जी की अद्यतन संपादित पुस्तक ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’ में सन्1965 से आज तक की अवधि के सहस्राधिक यानी 1041पत्रों का संग्रह है, जो उन्हें वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकारों, प्रिय पाठकों, प्रकाशकों और प्रशंसकों ने भेजे थे और जिन्हें उन्होंने अपनी अमूल्य धरोहर समझ कर सँभाल कर रखा, इस पुस्तक के माध्यम से वे नई पीढ़ी को सौंप रहे हैं। यही नहीं, इससे पूर्व भी उन्होंने इस विधा में ‘पत्र ही नहीं, बच्चन मित्र है’ तथा ‘पत्र भी, इतिहास भी’ जैसी पुस्तकें संपादित कर साठोत्तरी हिंदी साहित्य जगत की हलचल को पारदर्शिता के साथ निःस्पृह भाव से उजागर करते हुए एक विपुल अनमोल धरोहर हमारी पीढ़ी को सौंपी थीं। इन सभी पुस्तकों से प्रेरणा पाना हमारा परम कर्तव्य है। 

इस अद्भुत ज्ञानकोष में हम जान पाएँगे, अपने पूर्वजों के संघर्ष, भाषा के प्रति अगाध निष्ठा, वर्तमान सभ्यता के उन्नयन हेतु उनके चिंतन-मनन, भावी पीढ़ी के मन में मानवता के प्रति करुणा का उद्दीपन, साहित्य से सहृदयों के भीतर पनपने वाला स्नेह, मनोरम-मधुरिम भाव, स्नेहासिक्त आशीर्वाद, जीवन जीने की कला हेतु मार्गदर्शन, सौंदर्य-बोध, जिजीविषा की झलक, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के प्रयास, राजनीतिक परिपक्वता के लिए उठाये गए क़दम, परिवर्तनशील मानव समाज की आशा-आकांक्षाओं की होड़ आदि। 

वर्तमान युग की नब्ज़ पकड़कर उद्भ्रांत जी ने इस पत्र-संग्रह के शीर्षक को अत्यंत ही सोच-समझकर कर रखा है–‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’; क्योंकि वे ख़ुद मानते हैं कि पत्र-लेखन का वह दौर अब चला गया। क्या वह लौट पाएगा फिर से? कभी नहीं। महर्षि अरविन्द के शब्दों में समय के साथ मानव अतिमानव बनने के क्रम में अग्रसर है। कभी हुआ करता था पत्र-लेखन का जमाना, मानवता के उन्नयन हेतु; जब समाज के कर्णधार लेखक, आलोचक, पाठक, प्रोफ़ेसर सभी मानव सभ्यता को अपने-अपने चिंतन-मनन से बेहतर से बेहतर बनाने के लिए पत्रों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते थे। 

अब तो सूचना प्राद्यौगिकी का ज़माना है! इंटरनेट, फ़ेसबुक, टि्वटर, व्हाट्सएप आदि तरह-तरह के अभिव्यक्ति के साधन उपलब्ध हैं। मन में जिस समय जो आया, एक पल में सार्वजनिक पटल पर। सोचने का समय भी नहीं है। फिर पत्र लिखने या पत्र सुरक्षित रखने की आदत बची कहाँ है! साधारण पत्र-लेखन अब तो लगभग मृतप्राय है, केवल कार्यालीन पत्राचार को छोड़कर! कुछ समय बाद लोग ‘पोस्ट-ऑफ़िस’ या ‘डाकिए’ जैसे शब्द भूल जाएँगे। यह भी भूल जाएँगे कि सरकार पोस्ट ऑफ़िस जैसी सर्विस भी चलाती थी। यहाँ ‘अस्ति’ में संगृहीत उद्भ्रांत जी की कविता ‘पोस्टकार्ड’ की याद सहसा आ जाती है, जिसमें कवि ने उस दौर में पोस्टकार्ड के भावनात्मक महत्त्व को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। उद्भ्रांत जैसे बड़े लेखकों के मन में यह कमी अवश्य खटकती होगी, मगर तकनीकी के साथ क़दमताल मिलाते हुए चलना और परिवर्तित जीवन-शैली को स्वीकार करना हमारे लिए अपरिहार्य शर्त ही नहीं बाध्य-बाधकता भी है, आने वाले युग के संक्रमण बिन्दु पर हम हाथ पसारे खड़े हैं, हमारे दैनिक कार्यों में वैज्ञानिक प्रगति को आत्म-सात करने के लिए। 

आज यूट्यूब पर कहानियों, कविताओं और साक्षात्कारों के ऑडियो-वीडियो वर्शन तैयार हो रहे हैं, जिसका मूलाधार हमारे पूर्वजों की साहित्यिक विरासत है। वे न केवल प्रेम-पत्रों तक सीमित रहते थे, बल्कि साहित्यिक पत्रों के माध्यम से अपने कालखंड की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए मानव-सभ्यता के विकास को परिमार्जन करने में लगातार अपना उल्लेखनीय योगदान दे रहे थे। 

उद्भ्रांत जी अंगुलियों पर गिने जाने वाले ऐसे ही महान किंवदंती चरित्र हैं, जिनका जन्म देश की आज़ादी के एक साल बाद यानी1948 में होता है और किशोरावस्था की प्रथम पायदान पर ही यानी सत्तरह-अठारह साल में कॉलेज पहुँचते-पहुँचते प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ वैचारिक मंथन करना शुरू कर देते हैं, गहन साहित्यिक विमर्श करते हैं, उनका आशीर्वाद पाकर कहीं-कहीं लेखन शैली की नई क्रांति के सूत्रपात का बीजारोपण करते हुए नज़र आते हैं तो कहीं अपने पाठकों का अभिवादन स्वीकार करते हैं, उनकी प्रतिक्रियाओं का रसास्वादन कर प्रत्युत्तर देते हैं। अच्छा तो यह होता कि अपनी क़लम से पाठकों और साहित्यकारों के नाम लिखे हुए अपने पत्रों को भी इसमें शामिल करते तो दोनों तरफ़ा साहित्यिक विमर्श के आदान-प्रदान से हम और ज़्यादा लाभान्वित हो पाते। लेकिन यह सम्भव नहीं था जिसका स्पष्टीकरण उन्होंने अपनी भूमिका में किया है कि मेरे जैसे सामान्य जन के पत्रों को क्यों कोई सुरक्षित रखेगा! हालाँकि एक तरफ़ा प्रस्तुति के रूप में उन्होंने अपने कुछ पत्र शामिल किए हैं, जो उनकी तत्कालीन मन:स्थिति और रचना-संघर्ष को अभिव्यक्त करते हैं।उनके इस संग्रह के पत्रों में हमारे पूर्वजों का धड़कता हुआ हृदय है, जिसमें कुछ विभूतियाँ इस संसार से विदा हो गईं, कुछ विभूतियाँ बची भी हैं तो अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में शारीरिक पीड़ा और मानसिक व्यथा से जूझ रही हैं। भावी पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना होगा, उनके अनुकरणीय कार्यों से। गीता में भी आता है-यद-यद आचरति श्रेष्ठ, तत-तत इतरो जन। हमारी सुवासित सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने के लिए हमें अपने अग्रजों का अनुकरण करना होगा 

इस पत्र-संग्रह में झलकती है उद्भ्रांत जी के काव्य-पुरुष बनने की दीर्घयात्रा, जो वर्ष 1959 से प्रारंभ होती है, फिर 1964 में बाल साहित्यकार राष्ट्रबंधु से प्रभावित होकर प्रथम ‘नंदन’, ‘पराग’, ‘चंपक’, ‘बाल सखा’ जैसी पत्रिकाओं में लिखने वाले एक बाल-साहित्यकार के रूप में भी परिवर्तित हो रहे है, अनंतर देखते-देखते गीतकार, नवगीतकार और ग़ज़लकार की शृंखला से होते हुए अखिल हिंदी जगत का ध्यान आकृष्ट करते हैं। कालांतर में वे उन विधाओं का भी अतिक्रमण कर कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक और महाकवि के रूप में अपनी छटा बिखेरते हुए हिंदी साहित्य के उपवन में सुगंधित पुष्पों के परागकण रोपते हैं और अपनी प्रचंड सर्जन शक्ति के माध्यम से हिंदी साहित्य को सुसमृद्ध करते हैं। देश की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘गगनांचल’, ‘वसुधा’, ‘पहल’, ‘उत्तर कथा’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘कलम’, ‘साक्षात्कार’, ‘शिखर’, ‘दस्तावेज़’, ‘लहर’, ‘सापेक्ष’, ‘युवा-धारा’, ‘प्रसंग’, ‘मूल्यांकन’, ‘विपक्ष’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अभिप्राय’, ‘कदम’, ‘उत्तरशती’, ‘अब’, ‘मधुमती’, ‘नयी संस्कृति' ‘धर्मयुग’, ‘हिदुस्तान’ (साप्ताहिक), ‘कादम्बिनी’, ‘नवभारत टाइम्स' (रविवार), ‘जनसत्ता' (रविवार), ‘आज’, ‘अवकाश’, ‘रविवार’, ‘वामा’, ‘सरिता’, ‘आजकल’, ‘आने वाला कल’ आदि में उनके लेखन की ज़बरदस्त माँग होने लगती है। इस तुंग तक पहुँचने में हरिवंशराय बच्चन, अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह, से.रा. यात्री, रघुवीर सहाय, धूमिल, राजेंद्र यादव, नागार्जुन, काशीनाथ सिंह, पद्मश्री गोपालदास ‘नीरज’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, शरद पगारे, केदारनाथ अग्रवाल, गिरिराज किशोर, शंभु नाथ सिंह, मुद्राराक्षस जैसे अनगिनत मसिजीवियों का अपने जीवन के अलग-अलग पड़ाव में साथ पाकर सोने की तरह निखरते हुए अपना रास्ता अपने हाथों से बनाते जाते हैं। उद्भ्रांत जी का पत्रों का यह संसार हिन्दी साहित्यिक जगत की अनमोल धरोहर है, जिस पर शोध कर हिंदी साहित्य में हो रहे परिवर्तनों को सहजतापूर्वक देखा जा सकता है। जिस तरह अल्बर्ट आइंस्टीन, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की बेटी के प्रियदर्शनी यानी इंदिरा गाँधी के नाम लिखे पत्र वैश्विक धरोहर माने जाते हैं, उसी तरह उद्भ्रांत जी का यह पत्र-संकलन हिंदी इतिहास में अमिट छाप छोड़ेगा। 

इन पत्रों को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उद्भ्रांत जी का जन्म केवल साहित्य सर्जन के लिए ही हुआ हो। लेखन की हर विधा पर उन्होंने अपनी क़लम चलाई है, लगातार अपनी बनी-बनाई प्रतिछवियों को बार-बार तोड़ते हुए और झंपा लहरी के उपन्यास ‘नेमसेक’ की शेक्सपीरियन उक्ति ‘नाम में क्या रखा है?’ को चरितार्थ करते हुए कि नाम नहीं, काम बोलता है। अपने विपुल कृतित्व और उज्ज्वल व्यक्तित्व से साहित्यकार सोहन लाल द्विवेदी के भ्रम को मिटा देते हैं, जिन्होंने कभी उन्हें अपने पत्र में उपनाम बदलने की सलाह दी थी। (उद्भ्रांत, उपनाम तो बदल डालिए। जो स्वयं भ्रमित है, वह दूसरों का भ्रम कैसे दूर करेगा? पता नहीं किस मूर्ख ने ऐसा अविवेकपूर्ण नाम रखने की आपको सलाह दी।)। जिस तरह कभी ‘अष्टाध्यायी’ के रचयिता पंडित पाणिनी ने अपने हाथ में विद्या-रेखा नहीं होने पर किसी नुकीले पदार्थ से अपने हाथ पर नक़ली विद्या-रेखा खोदकर किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी ग़लत सिद्ध कर दी थी कि उनके भाग्य में विद्या का जोग नहीं है, उसी तरह उद्भ्रांत जी ने इस भ्रम को मिटा दिया कि उद्भ्रांत नाम होने से वह एक प्रेरक सर्जनशील व्यक्तित्व नहीं बन सकते। इस पुस्तक के कुछ पत्रों के अंश यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा, जिससे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलोकपात होगा। 

सन्‌ 1967 में अंतर्देशीय पत्र के माध्यम से शंभु प्रसाद श्रीवास्तव उन्हें लिखते हैं—“तुम हिंदी साहित्य गगन के ध्रुव बनो। तुममें वह प्रतिभा है। यह परखते हुए देख ली। मैं चाहता हूँ कि यह बिरवा एक दिन विशाल वृक्ष बने। मुझे विश्वास है कि तुम मेरी यह कामना अवश्य पूरी करोगे।” (पत्र-12)। उस समय उद्भ्रांत जी की उम्र 19 साल रही होगी और आज 2022 में यानी साढ़े पाँच दशक बाद देखा जाए तो उनकी भविष्यवाणी पूर्णतया खरी उतरती है। आज उद्भ्रांत हिंदी जगत के ध्रुवतारा ही नहीं, बल्कि उज्जवल नक्षत्र बन चुके हैं, साहित्यिक नीहारिका में अपने पथ पर विभिन्न चमकीली वलयों के साथ अपने अक्ष पर परिक्रमा करते हुए अपनी रोशनी से पूरे सौर-मण्डल में अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज कराते हुए। 

भारत भूषण के पत्र का यह कथन—“यदि कवि होकर भी कोई संवेदनशील न हुआ और कम से कम भावुक और प्यार के लिए प्यासे प्राणों को दो शब्द भी स्नेह भरे न कह पाया तो कवि बनना एक छल है, प्रवंचना है अभिनय है।” (पत्र-33), उनके सुकुमार मन में पूर्व से ही उपस्थित भावुकता के बीजों को पल्लवित करता है, जो कवि बनने की पहली शर्त है। 

सन्‌ 1969 के पत्र 38 में विनोद कुमार गोयल ‘विधु’ उनके गीतों की रचना पर लिखते है—महमूद ग़ज़नवी घोर लड़ाई के मध्य में भी मधुर गीत सुनने का आनंद लेने के लिए थोड़ा-सा समय निकाल ही लेता था। यह बात आपके सुंदर गीतों और मुग्ध कर देने वाले कंठ के बारे में भी कही जा सकती है। 

कोई पाठक उनके गीतों की तारीफ़ कर उनके हौसले बुलंद करता है तो कोई पिता की तरह उन्हें जीवन जीने की नैतिक शिक्षा देता हैं। जैसे एक बात जीवन भर याद रखने के लिए प्रसिद्ध बाल साहित्यकार निरंकार देव ‘सेवक’ उद्भ्रांत जी को समझाते हैं कि “All the water of ocean can not sink a ship unless it gets into it. तुम्हें दुनिया का यह पानी अपने मस्तिष्क में घुसने ही नहीं देना है।” इसी तरह केदारनाथ अग्रवाल उन्हें कविता की परिभाषा सिखलाते हैं कि “कविता की साधना मरते दम तक की साधना है। तभी कुछ उपलब्धि होती है। मैं तो लिखता जाता हूँ बिना किसी की परवाह किए। केवल उपलब्धि के लिए। न यश न धन। कविता अच्छी होगी तो टिकेगी।” (पत्र-58) यह सलाह मानकर उद्भ्रांत जी आजीवन कविता लिखने का प्रण ले लेते हैं। 

कहीं धूमिल अपने पत्र में इलाहाबाद के समकालीन साहित्यकारों पर कटाक्ष करते हैं कि “वहाँ के साहित्यिक ज़्यादातर ‘सांसद’ हो चले हैं। लेखन उनके लिये अतिरिक्त सुविधा जुटाने का साधन भर होकर है। मज़ा तो यह है कि ज़्यादातर बूढ़े और व्यर्थ लोग विरक्त साहित्य लिख कर भी मंच की शोभा बने बैठते हैं और जुझारू युवा पीढ़ी अपने हौसलों और मारक रुखों के बावजूद उनके हितों को दे दी जाती है। प्रतिष्ठान विरोध के नाम पर चलने वाली साज़िश एक दूसरा प्रतिष्ठान बनाती है। युवा मानसिकता का निरंतर विरोध करने वाले लोग जिसकी झंडाबरदारी करते हैं। हम ऐसी हिमाक़तों का विरोध अपनी अनुपस्थिति से करते हैं। यह सही है कि मंच पर चलने वाली साज़िशों का विरोध मंच से संगठित रूप से किया जाए, लेकिन जब मंच ही उनकी सिद्धि हो तब . . .?” धूमिल की ये बातें उद्भ्रांत जी के कवि-मन में सच्चे साहित्यकार का रूप तैयार करती है तो कही धर्मवीर भारती उन्हें ठोक-पीटकर तैयार करते है, “कहानी तुम्हारी बहुत ध्यान से पढ़ी। कमज़ोर लगी। कथ्य या प्रस्तुतीकरण दोनों में ही कुछ नई ताक़त होनी चाहिए। मैं चाहता हूँ, ‘धर्मयुग’ में तुम्हारी जो रचना छपे, वह अपनी छाप छोड़ जाए।” इसी तरह पत्रिकाओं की दारुण अवस्था पर भी वे उनका ध्यानाकर्षण करते है, ” आपकी यह रचना हमारे अत्यंत उपयोग की है किन्तु दुर्भाग्य से इस समय न्यूज़ प्रिंट कट के कारण बड़ी दारुण स्थिति उत्पन्न हो गयी है। हम नहीं जानते कि वर्तमान पृष्ठ संख्या हम कब तक क़ायम रख पायेंगे। ऐसी स्थिति में चाहते हुए भी हम इस रचना का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।” (पत्र-297) 

उनके बढ़ते हुए प्रशंसकों में हीरालाल नागर का यह कथंन देखें—“‘उद्भ्रांत’ कवि नाम से में परिचित हूँ। आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ पढ़ने को मिलती हैं। इस नाम से मैं और भी आकर्षित हूँ। किसी समय ‘बासन्ती’ जो बसन्तोत्सव पर निकाली गयी थी (शायद अब भी निकाली जाती हो) कविवर अरविन्द उपाध्याय के नाम के अग़ल-बग़ल भी नाम देखा था। उस समय मैं विद्यार्थी था। देखते-देखते‘उद्भ्रांत’ हिन्दी साहित्य का मुँह-हवाली नाम हो गया और जिसे अब भी प्रसिद्ध साप्ताहिक, मासिक और दैनिक पत्रिकाओं में चमकता हुआ देखता हूँ। अगर मेरी भ्रान्ति मात्र है तो क्षमा करें। विश्वास तो पूरा है कि इसके सम्पादक वही ‘उद्भ्रात’ हैं, जिनका नाम मुझको इस ओर खींचे जा रहा है। ‘युवा’ के सहयोग के लिए तत्पर हूँ, कृपया ग्राहक बनाकर अनुगृहीत करें। आशा है आप नियम आदि एक प्रति के साथ अवश्य भेजेंगे।” 

प्यार भरे इन शब्दों ने अवश्य उद्भ्रांत जी का सीना चौड़ा कर दिया होगा और उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित भी। 

एक जगह माहेश्वर तिवारी उन्हें अति संवेदनशील होने के कारण दुनिया की कठोर यथार्थता से परिचित कराते हुए सँभल जाने की सलाह देते हैं, “मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ज़िन्दगी में अपने इस स्वभाव के कारण तुम्हें कितना दारुण दुख होगा, अपने को पता नहीं कितनी-कितनी बार ‘मिसफिट’ महसूस करोगे तमाम दुनिया भर के लोगों के बीच-फिर भी दोस्त! वही बने रहो, जो हो। क़ीमत माँगी भी तो उसी से जाती है जो उसे देने में समर्थ हो।” तो दूसरी जगह कमला प्रसाद उन्हें साहित्य को बुर्जुआ शक्तियों से दूर रखने का आह्वान करते हैं। उन्हीं के शब्दों में, “इसमें सन्देह नहीं कि जनतंत्र के नाम पर बुर्जुआ ताक़तों की आपसी साँठ-गाँठ का पर्दाफ़ाश करते हुए प्रगतिशील लेखकों ने अब तक एक मूल्यवान ऐसी विरासत क़ायम की है, जिसे केन्द्र में रखकर लेखन की सम्भावना को अधिक धारदार और तीव्र बनाया जा सकता है। प्रेमचन्द, राहुल, मुक्तिबोध, यशपाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामविलास शर्मा, भैरवप्रसाद, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर और हरिशंकर परसाई की उपस्थिति से समकालीन लेखक बुर्जुआ संस्कृति के पास नहीं हैं, इसीलिए ये हमारे अनिवार्य क्लासिक बन गये हैं। विभिन्न स्तरों पर हम इन सभी लेखकों के बहाने किसी व्यक्ति की नहीं, पूरे युग की सच्ची तस्वीर पेश करना चाहते हैं।” 

लखनऊ के अश्विनी कुमार द्विवेदी उन्हें लेखन में जन-भाषा के प्रयोग की तार्किक सीख देते हैं, “क्या आप को वे आँकड़े मालूम हैं जिनमें अज्ञेय, पंत, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि प्रेमचन्द की पुस्तकों की बिक्री में सब मिलकर भी मुक़ाबला नहीं कर पाते। ये आज के आँकड़े हैं। ये सब कभी-कभी यूर्नीवर्सिटी में पढ़ाये जायेंगे और प्रेमचन्द को विश्वविद्यालय के अलावा सामन्य जन भी पढ़ेगा। जन-साहित्य, जन-साहित्यकार और मात्र मानसिक विलास के साहित्यकार में इतना बड़ा अंतर है।” 

प्रोफ़ेसर बी ऐन सिंह उन्हें पिता की तरह ऑफ़िस में मधुर कार्यशैली की सलाह देते हैं, “बड़ा और उम्र में अनुभवी होने के नाते तुमसे यही कहूँगा कि ऑफ़िस में अपने व्यवहार से छोटे-बड़े सभी का मन जीतने की चेष्टा करना। अच्छे, मीठे शब्द सभी को अच्छे लगते हैं। अपने अधीन अधिकारियों के कामों की प्रशंसा करना, क्योंकि प्रशंसा किसी को बुरी नहीं लगती। प्रशंसा करके ही किसी से अधिक और अच्छा काम लिया जा सकता है।” इसी शृंखला में उनकी कृतियों को उचित स्थान नहीं मिलने पर दुखी होने के कारण शंभुनाथ सिंह जी उन्हें सलाह देते हैं, “समय आयेगा और आपका मूल्यांकन होगा। भवभूति ने लिखा है, ‘काल अनन्त है’ और पृथ्वी बहुत बड़ी है। कोई-न-कोई मेरा समानधर्मा मिलेगा जो मेरा मूल्यांकन करेगा।” यही मशविरा उन्हें शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ भी देते हैं अपने पत्र में कि “भवभूति की चुनौती कभी न भूलना कि ‘उत्पत्स्यते कोऽपि समानधर्मा, कालो निरवधि विपुला च पृथ्वी’ और हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘अग्निपथ’ से प्रेरणा लेने के लिए कहते हैं—‘क्या महान दृश्य है/चल रहा मनुष्य है/अश्रु, स्वेद, रक्त से लथपथ, लथपथ/अग्निपथ, अग्निपथ।’ तुमसे तो मैं इसी बात से प्रसन्न हूँ कि जितनी भी बाधाएँ आती हैं; उतने ही उत्साह से तुम लिखते हो। चुनौतियों को ललकारने के इसी साहस ने तुम्हारे काव्य को श्रेयस्कर बनाया है।” 

देवेश ठाकुर उन्हें कमलेश्वर जी जैसे गुटबाज़ी वाले साहित्यकारों से सतर्क रहने की सलाह देते हैं कि “उनसे कहें कि ‘गंगा’ में लिखें। इतनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक की समीक्षा परिचय कमलेश्वर को सार्वजनिक रूप से लिखना चाहिए। पर लेखकों को, मैं समझता हूँ, गिरोह और गुटबाज़ लोगों की टिप्पणियों से अधिक उत्साहित नहीं होना चाहिए। ये लोग नयी पीढ़ी को टॉयलट पेपर की तरह ‘यूज’ करते हैं जैसे मुझे, जितेंद्र भाटिया और सुधा को किया गया था—‘कथायात्रा’ के संदर्भ में। आपने मुझे पूर्वाग्रहों से मुक्त पाया है, इसीलिए एक कड़वी सच्चाई सामने रख रहा हूँ।” 

डी.बी.एस. कॉलेज, कानपुर के रीडर तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. श्यामनारायण पाण्डेय का पत्र देखते ही बनता है, “जैसा कि आपको समाचार-पत्रों से ज्ञात ही हुआ होगा कि स्नातक स्तर पर दो वर्ष के स्थान पर तीन वर्षीय हिन्दी पाठ्यक्रम बनाया जा रहा है। इस पाठ्यक्रम में विद्वानों का ऐसा विचार क्रम रहा है कि तृतीय वर्ष में वर्तमान पीढ़ी के ऐसे साहित्यकारों की रचनाओं को भी शामिल किया जाए, जो विगत पच्चीस-तीस वर्षों से लिख रहे हैं। अस्तु, अनुरोध है कि आप अपने संक्षिप्त परिचय के साथ अपनी प्रकाशित रचनाओं को उपर्युक्त चिन्हांकित पते पर अति शीघ्र मुझे प्रेषित करने की कृपा करें, जिससे कि उन्हें मूल्यांकित कर विश्वविद्यालय के नये पाठ्यक्रम के लिए बोर्ड के समक्ष प्रस्तावित किया जा सके। इस सम्बन्ध में अपने विचार एवं सुझाव भी तुरन्त भेजें।” 

मुंबई से वीरेन्द्र मिश्र लिखते हैं, “हिन्दी में नवगीत रचना की दिशा में वास्तविक रूप से सक्रिय कवियों में कानपुर के ‘उद्भ्रांत’ एक महत्त्वपूर्ण काव्य हस्ताक्षर हैं। उनके ऐसे अनेक काव्य गीतों से मैं परिचित हूँ जिनमें नवगीत का नया युवा तेवर है। उद्भ्रांत के गीतों की विशेषता है उनका बहुआयामी यथार्थ, जिसे उन्होंने संघर्ष करते हुए जिया है। मेरी दृष्टि में उनके प्रकृतिमुखी गीतों की अपेक्षा उनके इन यथार्थपरक गीतों का विशेष महत्त्व है।” 

प्रभाकर माचवे का पत्र भी यहाँ उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने सन् 1964 में ‘उद्भ्रांत’ को बच्चन जी के एक संदेश का ज़िक्र किया था कि “कविता लिखने के लिए/अनुभव/अध्ययन/अभ्यास तीनों की बड़ी आवश्यकता है।” जिस पर उद्भ्रांत जी ने टिप्पणी फ़ुटनोट में दी है कि सुकांत भट्टाचार्य और तरू दत्त छोटी उम्र में दिवंगत हो गये। उन्हें कहाँ अनुभव और अध्ययन का समय मिला? अर्थात्‌ उद्भ्रांत के अनुसार ‘प्रतिभा’ ही मुख्य गुण है। ऐसी प्रतिभा ओड़िशा के कवि हलधर नाग में देखी जा सकती है। न अध्ययन, न अनुभव और न ही अभ्यास। मगर इस पत्र में माचवे जी नये कवि नवगीतकार-ग़ज़लकार उद्भ्रांत जी से शिकायत करते हैं कि उनकी रचना श्रुतिप्रिय चाहे हो, मन पर गहरा असर क्यों नहीं छोड़ती? वे उनकी एक कविता को उद्धृत करते हैं— “नहीं होते टिकाऊ। ऐसे सम्बन्ध। होते हैं महज़ क्षणजीवी/ छलावा/ और हर बार मैंने सोचा है ऐसे सम्बन्धों का अर्थ ही क्या है/जो क्षणजीवी हों।”

देवेन्द्र शर्मा के पत्र का यह अंश बहुत प्रासंगिक है: “जीवनयापन के नवीनतम साधनों ने सर्जनात्मक लेखन को प्रभावित किया है। राजनीति, शिविरबद्धता और जोड़-तोड़ के इस युग में गंभीर और समर्पित रचनाकार स्वयं को अप्रासंगिक महसूस करने लगा है। सन् 46-47 से लिखना शुरू किया था, धीरे-धीरे आधी शताब्दी होने को आ रही है, किन्तु अब लगता है कि कुछ भी सार्थक नहीं किया। हम जैसे कल्पना-विहारी और मसिजीवियों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। एकान्त में मौन साधक बने रहने के भ्रम ने कहीं का भी नहीं छोड़ा है, ‘उद्भ्रांत’ जी मुमकिन है, आप भी मेरी ही तरह सोचते हों . . . . . . . . . . . . खेद है कि किशन सरोज की प्रतिभा को अंततः व्यावसायिक मंचों ने निगल लिया। अब तो कुँअर बेचैन का गीतकार भी उसी दिशा में जा चुका है। सोम ठाकुर की भी यही करुण परिणति हुई। गीत या किसी भी विधा को हाशिये में रखकर जब रचनाकार आत्म प्रतिष्ठा के व्यामोह से ग्रस्त होता है, तब प्रायः ऐसा ही होता है। मैं तो समझता हूँ कि यही ट्रैजेडी बुद्धिनाथ मिश्र के साथ हुई।” 

कन्हैयालाल नन्दन उद्भ्रांत जी द्वारा उनके ऊपर कुछ अनबन का संदेह करने पर अपनी सफ़ाई में तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं, “आपने पत्र के अंत में मेरे ऊपर अनर्गल आक्षेप जड़ दिया है कि मैं सुनियोजित तरह से आपके बारे में कुछ मिथ्या प्रचार करता आ रहा हूँ। प्यारे भाई, मेरा आग्रह है कि आप ऐसे कुविचारों से निश्चिंत होकर चलें। मैंने तो बरसों से शायद किसी से आपके संदर्भ में बात भी नहीं की। पता नहीं क्यों आपके मन में ऐसा भ्रम पलता रहा है। मैं क्षमा चाहता हूँ। आपके लिए कोई मिथ्या प्रचार क्यों करूँगा?” यहाँ नंदन जी जो कह रहे हैं, वह उनके उद्भ्रांत के प्रति समय-समय पर किए गए उस व्यवहार और आचरण के विपरीत है जिसका ख़ुलासा उद्भ्रांत जी की आत्मकथा के दूसरे खंड में हुआ है, जहाँ वे पी.पी.ऐन. कॉलेज के सेमिनार में उद्भ्रांत की अनुपस्थिति में उनके विरुद्ध विष-वमन करते हैं और जिसका पता अगले दिन उद्भ्रांत जी को सुमन राजे से चलता है। यह प्रसंग साहित्यकारों द्वारा कथनी और करनी में द्वैध को दर्शाता है। 

इस आलेख के ज़्यादा दीर्घ होने के भय से केवल गिने-चुने पत्रों का ज़िक्र किया गया है, फिर भी उद्भ्रांत जी के काव्य-पुरुष की सटीक छवि सामने उभर कर आती है। अंत में इतना कह सकता हूँ, जब भी साठोत्तरी हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा तो अवश्य ही सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की तरह देश के प्रमुख महाकवियों में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। मेरा पाठक वर्ग से अनुरोध है कि उद्भ्रांत जी के इस अनमोल कोष को सहेज कर रखा जाए और अपने अतीत में झाँकते हुए साहित्य के नव निर्माण में सहयोग प्रदान करें। 

दिनेश कुमार माली 
तालचेर,ओड़िशा 
मोबाइल: 9437059979 
ईमेल आईडी: dinesh911mali@gmail.com 
Website: dineshkumarmali.in 

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  2. सौन्दर्य जल में नर्मदा
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  5. त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 
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