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आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास? 


आधी दुनिया के सवाल
लेखिका: डॉ. सौभाग्यवती
प्रकाशक: महावीर समता सन्देश प्रकाशन, उदयपुर
मूल्य:₹300/-

डॉ. सौभाग्यवती की पुस्तक ‘आधी दुनिया के सवाल’ सन्‌ 2010 में महावीर समता संदेश प्रकाशन, भोपालपुरा उदयपुर से प्रकाशित हुई थी, जिसकी भूमिका ‘महिला मुक्ति से जन्म मुक्ति तक’ शीर्षक से हेमेंद्र चांडालिया जी ने लिखी थी और प्रधान संपादक हिम्मत सेठ जी ने उसे अपने अठारह सालों से अनवरत प्रकाशित होने वाले अख़बार के स्वर्णिम काल का आलेख-संग्रह माना। 

एक दशक पूर्व इस पुस्तक के साथ ‘शतायु लोहिया’ मुझे हिम्मत सेठ जी ने मेरी उदयपुर यात्रा के दौरान दी थी, जिस पर मैंने अपने निबंध भी लिखे थे, ‘शतायु लोहिया’ वाला निबंध तो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ, मगर इस पुस्तक पर लिखा हुआ आलेख कालांतर में कहीं खो गया था और बहुत ढूँढ़ने के बाद न तो उसकी हार्ड कॉपी मिली और न ही सॉफ़्ट कॉपी, अन्यथा तत्कालीन 82 वर्षीय लेखिका (पाँच साल पूर्व उनका निधन हो गया) अपनी आँखों के सामने वह आलेख पढ़ पाती और अपने सार्थक लेखन से समाज में हो रहे परिवर्तनों पर चर्चा सुनकर अवश्य ही उनकी आत्मा महावीर समता संदेश की संपादक मंडली को आशीर्वाद देती। उनकी पुस्तक में 29 आलेख है, मगर में उसे आदि दुनिया के सवाल नहीं मानकर भारत की आधी आबादी के सवाल मानता हूँ, यह दूसरी बात है कि उन्होंने अपने एकाध आलेख में अवश्य विश्व की महिलाओं के आंदोलन और उनकी स्थिति का उल्लेख अवश्य किया है, परन्तु वास्तव में उन्होंने इस पुस्तक में जितने मुद्दे उठाए हैं, वे भारतीय महिलाओं के ही मुद्दे हैं। ये सारे मुद्दे 13 साल पहले के है, इसलिए हो सकता है कुछ मुद्दों का कुछ हद तक समाधान हुआ होगा। मगर अधिकतर मुद्दे वैसे के वैसे हैं, सुरसा के मुँह की तरह खुले हुए, इसलिए आज भी उन पर विमर्श करना उतना ही प्रासंगिक है, जितना एक दशक पूर्व था। 

कभी-कभी सोचता हूँ, क्या सच में ‘आधी दुनिया के सवाल’ अर्थात्‌ महिलाओं के सवाल कोई पुरुष उठा सकता है? किसी स्त्री के जीवन पर यथार्थ लेखन के लिए स्त्री होना निहायत ज़रूरी है, तभी तो उनकी अपनी पीड़ा, मनोभाव शारीरिक संरचनाओं, बीमारियों, यौनता और भाषा-शिल्प पर लिखा जा सकता है। इसलिए मेरा मानना है कि अगर कोई पुरुष रचनाकार स्त्रियों के बारे में लिखता है, या तो वह धरातलीय होगा या फिर पुरुष वर्चस्ववादी नज़रों में स्त्री के प्रति दया, करुणा, ग्लानि जैसे मनोभावों तक ही सीमित रहेगा। वैदिक और रीतिकालीन कवियों ने स्त्रियों के सौन्दर्य की तारीफ़ें बहुत कीं, मगर उन्हें वस्तु ही समझा। 

ऐसा क्या हुआ कि तत्कालीन मैत्रेयी, गार्गी, अनुसूया, कुंती, कौशल्या, द्रौपदी, गांधारी जैसी कई विदुषियों ने साहित्यिक रचनाओं में अपना योगदान नहीं दिया। कविता, कहानी, उपन्यास या आत्मकथा जैसा लेखन नहीं किया। और अगर किया भी होगा तो पुरुषों ने अपने नाम डाल दिए होंगे। जब भी आप पुराने युग को याद करते हैं तो पूरे विश्व में एक ही वस्तु देखने को मिलती है—वह है स्त्री को वस्तु समझकर उनका अपहरण किया जाना। एक राजा दूसरे राजा को उन्हें उपहारस्वरूप भेंट कर देते थे। ऐसी अवधि में ‘नारी-विमर्श’, ‘नारी-स्वातंत्र्य’ के बारे में सोचना ही क्या? कालांतर में महिलाओं ने अपनी शक्ति और स्थान को तलाशा। कार्ल मार्क्स ने तो श्रम-विभाजन पर आधारित पुरुष और महिला का वर्गीकरण किया था। 

महिलाओं की समस्याओं पर पहली बार मैरी वुलस्टोनक्राफ़्ट (27 अप्रैल 1759-10 सितंबर 1797) ने अपनी पुस्तक ‘A Vindication of the Rights of Woman (1792)’ के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों के लिये आवाज़ उठाई कि नारी के शोषण का कारण है शिक्षा की कमी। औरत की नियति क्या है? वह ग़ुलाम क्यों है? किसने ये बेड़ियाँ, कुलाचें मारती हिरणी के पैरों में पहनाईं? इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए अस्तित्ववाद के मसीहा दार्शनिक ज्यां पॉल सा‌र्त्र से आजीवन बौद्धिक सम्बन्ध रखने वाली फ़्रांसीसी सिमोन द बोउआर ने ‘द सेकंड सेक्स’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी। ‘द सेकंड सेक्स’ का प्रभा खेतान द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएँ, इच्छाएँ, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में। विवाह और वंश परम्परा की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ उसने आवाज़ उठाई। विवाह को एक जर्जर ढहती हुई संस्था माना क्योंकि यह आधी दुनिया की ग़ुलामी का सवाल है, जिसमें अमीर–ग़रीब हर जाति और हर देश की महिला जकड़ी हुई है। इसलिए वह नारियों को गर्भ-धारण नहीं करने का आह्वान करती हैं, जबकि फ्रॉयड पुरुष और महिला के विभाजन में महिला के अंदर लिंग-ईर्ष्या और पुरुष के अंदर गर्भ-ईर्ष्या को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। आज भी मुझे हमारे एक मित्र का कथन याद आता है, “हमारी सरकारें आदमी और औरतों के बीच में समानता चाहती हैं, मगर भगवान ने तो स्वयं आदमी और औरत के बीच में अंतर किया है तो समानता कैसे हो सकती है?” 

यद्यपि यह पुरुषवर्चस्ववादी कथन था, मगर यथार्थ। क्या शारीरिक परिवर्तन होने के कारण महिलाओं के अधिकार, कार्यशैली, पारिश्रमिक, जीवन-पद्धति और रहन-सहन के तरीक़ों में समानता की माँग नहीं की जा सकती है? जब ईश्वर की बनाई सृष्टि में आधी आबादी महिलाओं की है तो इस पृथ्वी पर हुकूमत का आधा हक़ तो उनका बनता ही है। लेकिन शुरू से ही सामाजिक-व्यवस्था ने आदमी और औरत के नाम में अंतर रखा, अकारांत-आकारांत का भेद, जैसे राम, रमा; भाषा-बोली का भेद, स्त्रीलिंग-पुलिंग दिखाने के लिए; ‘मैं जा रहा हूँ’, ‘मैं जा रही हूँ’, कपड़ों में भी अंतर, आदमी के कपड़े अलग, औरतों के कपड़े अलग। एक ही काम के लिए पारिश्रमिक में भी अंतर, यहाँ तक कि सार्वजनिक उपक्रम की सरकारी नौकरी में भी कार्य-प्रणाली में विभेद। कहाँ-कहाँ अंतर नहीं! ये सारे अंतर तो मनुष्यकृत हैं, भगवान ने भी कुछ अंतर रखे हैं जैसे अलग-अलग हार्मोनों को स्राव, आवाज़, शारीरिक बनावट, सोचने का तरीक़ा आदि। 

इतने सारे अंतरों को जानने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि डॉ. सौभाग्यवती जैसी मूर्धन्य लेखिका ने महिलाओं के किन पहलुओं को स्पर्श किया, जिनका लेखन गढ़गौरव (गढ़वाल), जनयुग (अलीगढ़), दैनिक जागरण, समय माजरा (जयपुर), उद्भावना (दिल्ली), शिक्षा विमर्श, उत्तरा, लोकशासन, महावीर समता संदेश, मूलप्रश्न (उदयपुर) आदि देशभर की पत्र पत्रिकाओं में छपा करता था? प्रणय-प्रेम, स्वाधीनता, यौन-शुचिता, यौनता, शक्ल-सूरत, व्यवसाय, उम्र आदि किन पहलुओं पर? अभी तक भारतीय संस्कृति देवी-देवताओं की संस्कृति मानी जाती रही है। देखा जाए तो देवताओं ने भी अपनी देवियों को सशक्त नहीं बनाया, बल्कि केवल अपनी भोग्या बनाकर दबाकर ही रखा। उदाहरण के तौर पर शिवजी के बाहर जाने पर पार्वती नहाने जाते समय अपनी सुरक्षा के लिए मिट्टी के बच्चे का निर्माण करती है। यहाँ यह सवाल उठता हैं पार्वती को अपने घर में नहाते समय डर क्यों लग रहा है, जिसके लिए उसे अपनी रक्षा के लिए किसी मिट्टी के पुतले की आवश्यकता है? क्या देवी-देवताओं के संसार में भी बलात्कार, शीलहरण सतीत्व-भंग जैसे दुष्कर्म होते थे। बच्चे तो गर्भ से पैदा होते हैं फिर पार्वती को मिट्टी से क्यों पैदा करना पड़ा? अगर एक तरीक़े से सोचा जाए तो शिव ने पार्वती को उनके प्राकृतिक अधिकार से वंचित रखा। और यहाँ तक, कि सुनने में आता है कि शिव और पार्वती के केलि का वर्णन ‘कुमार संभवं’ जैसे संस्कृत के महाकाव्य में करने के कारण महाकवि कालिदास को किसी वेश्या के हाथों मरना पड़ा। 

इसी तरह आप दूसरा उदाहरण देख सकते हैं, सीता और राम का। जो किसी से छिपा नहीं है। पग-पग पर सीता को अपना सतीत्व सिद्ध करने के अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी, राम की अपनी झूठी मान-मर्यादा के ख़ातिर। गर्भवती होने के बाद भी उन्हें जंगल में छोड़ा गया था। इस पर आधुनिक नारीवाद क्या कहता है? सीता अगर अपनी आत्मकथा लिखती तो परिदृश्य कुछ और ही होते! वाल्मीकि जैसे ऋषि लिखते हैं अपने पुरुष वर्चस्ववादी निगाहों से, तुलसीदास उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हैं अपने तरीक़े से। सीता के मन में क्या गुज़री होगी, यह सीता को छोड़कर कोई और बता पाएगा? या उनके बारे में लिख पाएगा? उन मनोभावों को आधार बनाकर अगर कोई पुरुष लिखता है तो अवश्य ही कहीँ-न-कहीँ वह प्रभाव पैदा नहीं हो पाएगा, जो प्रभाव पीड़ित महिला की क़लम से प्रवाहित होगा। 

ख़ैर, यहाँ बात चल रही थी सौभाग्यवती जी के आलेखों में स्त्री-विमर्श की। यह दूसरी बात है कि नारीवादी महिला रचनाकारों में प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ तथा मन्नू भण्डारी ने अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी ऐसी भी’ में ‘स्त्री-विमर्श’ को जो स्थान दिया हैं, उनकी पुस्तक ‘आधी दुनिया के सवाल’ में भले ही नारीवाद का वह स्वरूप नज़र नहीं आए, मगर उनकी नज़रों में नारियों के प्रति हार्दिक संवेदना-सहानुभूति तो अवश्य प्रकट होती है, तभी तो वह उनके सवाल समाज के सामने रखती है। 

मानवीय मूल्यों के अपक्षय को प्रस्तुत करने वाली उनकी यह कृति आज की शासकीय और सामाजिक विसंगतियों पर करारा कटाक्ष है। आधुनिक पीढ़ी आज भी पाराशरी संस्कार से ओत-प्रोत है और लेखिका ने अपने आलेखों के माध्यम से समकालीन प्रश्नों और वर्तमान जीवन की विद्रूपताओं और विसंगतियों को सामने लाने का प्रयास किया है। इस कृति के आलेखों में उन्होंने भारतीय महिलाओं की स्थिति, नर-नारी में विभेद के कारण, बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, भ्रूण-हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, भूमंडलीकरण के प्रभाव, वनों के कटाव, पर्यावरण प्रदूषण, औद्योगीकरण, विश्व बाज़ार की दमघोंटू प्रतिस्पर्धा आदि को यथार्थ धरातल पर उकेरा है, जिसमें मौजूदा समय के ज्वलंत विमर्श-स्त्री और दलित को प्रतिबिंबित करते हुए जाति, वर्ग, संप्रदाय, आदिवासी उत्पीड़न, हिंसा, अनाचार और बाज़ार के बढ़ते प्रभाव से जुड़ी समस्याओं पर विचार के लिए उत्प्रेरित करता है, तो दूसरी ओर मनुष्य की सभी अराजक, पाशविक, नकारात्मक प्रवृत्तियों को शमित करने के लिए संघर्ष का आह्वान भी। उनके अधिकांश आलेख वर्जीनिया वुल्फ़ के न्यूनहम कॉलेज, गिर्टन महिला कॉलेज और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दिए गए दो व्याख्यानों पर आधारित निबंध-संग्रह ‘ए रूम ऑफ़ वन ओन’ से मिलते-जुलते है। वर्जीनिया वुल्फ़ महिलाओं के प्रति सामाजिक अन्याय और महिलाओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कमी का कारण मानती है, शिक्षा का अभाव। महिलाओं को दशकों से हाशिए पर रखा गया है, इसका कारण पितृसत्तात्मक साहित्य है। सामाजिक समस्याएँ समय-समय पर आकार बदलती हैं, लेकिन अवसर की अनुपस्थिति असमानता का कारण बनती है। 

अपने आलेखों ‘महिला दिवस की चुनौतियां’ और ‘8 मार्च का महिला दिवस: सामाजिक चुनौतियों के प्रति सन्नद्ध होने का दिन’ में लेखिका ने स्पष्ट किया है कि विश्व की सभी महिलाओं को आर्थिक नीतियों का विशेष रूप से शिकार होना पड़ रहा है, मगर आज भी भारतीय समाज में संकीर्ण, पिछड़ी और स्त्री-विरोधी रीति-रिवाज़ों की भरमार है। मज़दूर महिलाओं के पास रोज़गार नहीं है और वे प्रतिदिन नृशंस हिंसा का शिकार हो रही है और यही कारण है कि भारत में देह व्यापार बढ़ता जा रहा है। कभी उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईवी रामास्वामी नायर, महात्मा ज्योतिबा फूले ने भयंकर उत्पीड़न झेला था। उन महापुरुषों की बदौलत पर्दा-प्रथा कम हुई, बालिका शिक्षा बढ़ी, अस्पृश्यता घटी और लैंगिक विषमता में भी कुछ हद तक कमी आई। उसके बावजूद भी कभी राजस्थान के धौलपुर ज़िले की तरह देश के अनेक हिस्सों में दरिंदे खुलेआम भरे बाज़ार से किसी महिला को उठाकर ले जाते थे तो कभी अपने पुत्र के ख़िलाफ़ कोर्ट में शिकायत करने जा रही साठ वर्षीय महिला की पीट-पीट कर हत्या कर डालते हैं। क्या आज भी ये घटनाएँ रुक पाई हैं? ‘भारतीय नारी की स्थिति और मुक्ति संघर्ष की दशा’ में डॉ. सौभाग्यवती प्रसिद्ध हिन्दी लेखिका ममता कालिया के किसी लेख का हवाला देते हुए लिखती है कि आज भी हमारे देश में न केवल नारी का सबला रूप ही कुचला जा रहा है, बल्कि मूक-बधिर, विक्षिप्त, बेघर, दलित, असहाय औरतें भी आए दिन उत्पीड़न, हिंसा और हत्या का शिकार हो रही हैं। पुरुषवादी सोच के कारण राजस्थान में लैंगिक अनुपात 1000:886 से भी ज़्यादा कम हुआ है। नारी को देह मानकर अश्लील पुस्तकों-पत्रिकाओं, मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्त्री का रंग-अंग, चेहरा वस्तु की तरह विज्ञापन के माध्यम से बेचा जा रहा है। देश के अनेक प्रांतों में गोवा जैसे सेक्स स्कैंडल थमने का नाम नहीं ले रहे है, नाबालिग युवतियों से यौनाचार बढ़ता ही जा रहा है, कांकरोली में बारबालाओं का पकड़ा जाना उसका उदाहरण है। ऐसे ही उदाहरण उन्होंने अपने आलेख ‘नारी की आजादी’ में दिए हैं। पूरे विश्व की लगभग यही दशा है। कभी समाजवादी नेत्री क्लारा जेटकिन ने 8 मार्च 1910 को कोपेहेगन में वैश्विक स्तर पर महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था, महिलाओं के मताधिकार और अन्य अधिकारों के लिए लड़ाई के लिए, क्योंकि 8 मार्च 1908 को शिकागो में महिला मज़दूरों की सफल हड़ताल हुई थी। उनका नारा था ‘ब्रेड और रोज’ यानी आर्थिक सुरक्षा एवं ख़ुशहाल ज़िन्दगी। बाद में सन्‌ 1917 में क्लारा जेटकिन ने अलेक्जेंड्रा कोलानाइट के साथ मिलकर ‘रोटी और शांति’ का नारा दिया अर्थात् ‘युद्ध का विनाश हो’ और ‘युद्ध से हमारे पतियों को वापस भेजो’ उनका मुख्य उद्देश्य था। नौवें दशक में वियतनाम, चिली, स्पेन महिला दिवस की गूँज उठी, जबकि 8 मार्च 1981 में तेहरान की सड़कों पर ईरान के विभिन्न क्षेत्रों से 50000 महिलाओं ने अयातुल्लाह खामिनी के ख़िलाफ़ मुर्दाबाद के नारे लगाए। बदलते वैश्विक परिदृश्यों के कारण भारत में आनंदीबेन पटेल, सुचेता कृपलानी, नंदिनी सतपत्थी, शशिकला काकोडकर, सैयदा अनवरा तैमुर, जयललिता, जानकी रामचंद्रन, मायावती, राजिंदर कौर भट्ठल, राबड़ी देवी, सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, उमा भारती, वसुंधरा राजे सिंधिया, ममता बनर्जी आदि महिला मुख्यमंत्री और कॉर्पोरेट जगत में नैनीताल किदवई, रंजना कुमार, ललिता गुप्ता, नेहा कांत, रोशनी सन्हा जायसवाल, मेधा सिंह, विनीता सिंह, इंद्रा नूई, किरण मजूमदार, चंदा कोचर, इंदु जैन जैसे अनेक नाम उभरकर सामने आए, मगर असंगठित क्षेत्रों में महिलाओं की क्या हालत है, किसी से छुपा हुआ नहीं है। इस पुस्तक में सौभाग्यवती जी उदाहरण देती है कि गुजरात में अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ दरिंदों ने बलात्कार किया, यहाँ तक की गर्भस्थ शिशुओं को भी चीर-फाड़ डाला, जिससे पूरी दुनिया में भारत का नाम बदनाम हुआ, इसलिए उनकी अवस्था सुधारने के लिए 33 प्रतिशत महिला आरक्षण ज़रूरी है। उनके ‘आधी आबादी को अविलंब एक तिहाई आरक्षण वांछित’ आलेख में इस दिशा में गंभीर विचार-विमर्श हुआ है। 

मनुष्यता के अस्तित्व के सामने वेद, बाइबिल क़ुरान कुछ भी मायने नहीं रखती है। उनका वुजूद तब तक ही है जब तक मनुष्यता जीवित है। क्या ऐसा भी कोई धर्म हो सकता है, जिसमें किसी पति के “तलाक़! तलाक़!! तलाक़!!!” बोल देने मात्र से उसका अपनी पत्नी से तलाक़ हो जाए? जहाँ गायत्री मंत्र, क़ुरान की आयतें, वेदों की ऋचाएँ, गुरु ग्रंथ की वाणी और बाइबिल के सरमनों से आज समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो क्या ‘तलाक़’ जैसे तीन अक्षरों वाले शब्द का तीन बार उच्चारण करने से पति-पत्नी का सम्बन्ध हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा? क्या यह न्याय-संगत है? अगर बीवी ‘खुला! खुला!! खुला!!!’ तीन बार कह दे वह अपने पति से दूर हो सकती है? इस तरह से सौभाग्यवती जी ने मुस्लिम समाज की औरतों पर तलाक़ की इस परिपाटी के नाम से हो रहे अत्याचार को इंगित करते हुए अपनी आवाज़ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘नारी अस्मिता के प्रति दृढ़ संकल्प’ आलेख में मुस्लिम समाज में क़ानून बनने के बाद भी बुर्क़े वाली और बिना बुर्क़े वाली तलाक़ और दहेज़ उत्पीड़न के कारण बदहाल है। पिछड़ी सोच वाले पुरुषों द्वारा प्रताड़ित आदिवासी युवतियाँ निर्वस्त्र घुमाई जाती हैं। सरेआम दलित समूह की नारियों को बिहार, हरियाणा, कर्नाटक और दिल्ली आदि प्रदेशों में अश्लीलता और यौनाचार की कुत्सित स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। यह सब कब रुकेगा? जब तक उन्हें 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिल जाता, तब तक ये सब कुकृत्य होते ही रहेंगे। निस्संदेह उनके आलेखों की कहीं-न-कहीं गंभीर भूमिका रही होगी, बीजेपी सरकार द्वारा तलाक़ की इस मानवता विरोधी वाहियात प्रथा का क़ानूनन उन्मूलन और उनकी सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने के पीछे। लेखिका का मुख्य उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों का निवारण करना भी है ताकि वह जीवन के हर मोड़ पर, बड़े से बड़े दुख में, कड़े से कड़े संघर्ष में और यहाँ तक कि भयंकरतम आँधी या तूफ़ान में अपने परिवार को सहारा दे सके। 

अपने आलेख ‘देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति’ में फरहत हाशमी का संदर्भ देते हुए उन्होंने लिखा है कि तीन तलाक़ इस्लाम के ख़िलाफ़ है। उन्हीं के शब्दों में, “आज मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। ग़ौर करने का विषय है कि हमारे लोकतान्त्रिक देश में संवैधानिक रूप से अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी गई है लेकिन क्योंकि इस्लाम धर्म के अनुयायी मुसलमानों का समाज अपने पवित्र धर्मग्रन्थ क़ुरान की आयतों के निर्देशों को महत्त्व देता है इसलिए धार्मिक कट्टरता ख़ासतौर से मुस्लिम महिलाओं के जीवन को निरन्तर प्रभावित करती है। मुस्लिम समुदाय के धर्म गुरु और उलेमाओं ने क़ुरान शरीफ़ के नाम पर मुस्लिम महिलाओं को अनेकों बन्धनों में जकड़ दिया है जबकि क़ुरान में महिला मुक्ति के संदेश सहित महिलाओं को अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं। यह शुभ संकेत है कि वर्तमान में शिक्षित प्रशिक्षित व मुस्लिम पुरुषों और कुछ स्त्रियों ने भी अपने धर्म ग्रन्थ का अध्ययन मनन करके उन सच्चाइयों का उद्घाटन किया है जो स्त्री अधिकारों और स्त्री के दर्जे के सम्बन्ध में क़ुरान में रेखांकित की गई है। 

कुछ समय पूर्व नैनीताल से प्रकाशित होने वाली नारी पत्रिका “उत्तरा” ने फरहत हाशमी नामक ऐसी महिला का उल्लेख किया था जिसने महिलाओं के बीच सांगठनिक कार्य करते हुए पाया कि मुस्लिम स्त्रियाँ उलेमाओं की धार्मिक शिक्षाओं से काफ़ी परिचालित होती आ रही है। फरहत हाशमी ने क़ुरान का अध्ययन किया और मुस्लिम स्त्रियों को समझाया कि क़ुरान की आयतों में स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक विचार विद्यमान है। हाशमी ने बताया कि तीन बार तलाक़ कहकर पत्नी को छोड़ देना इस्लाम के ख़िलाफ़ है। हजरत मोहम्मद तीन “तलाक़” को नापसन्द करते थे। हजरत मोहम्मद के समय स्त्रियाँ मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ती थीं। युद्ध में चोट लगने पर उनकी पुत्री फातिमा ने उनकी चिकित्सा की थी। युद्ध के दौरान पुरुष चिकित्सकों की तरह महिला/चिकित्सक भी घायलों और पीड़ितों की चिकित्सा करती थीं। फरहत के विचार जानकर उसके संगठन और सम्पर्क में आने वाली स्त्रियों की आँखें खुल गई। जिस हथियार से अब तक धर्मगुरू और सामाजिक कट्टरता वाले पुरुष महिलाओं पर अपना दबाव बना कर रोब जताते रहे थे उसी के सहारे स्त्रियाँ पुरुषों के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाकर पलटवार करने लगीं। यह एक उदाहरण है जिससे हम समझ सकते हैं कि मुस्लिम समुदाय की, ख़ासतौर से निरक्षर और घरेलू वातावरण में रहने वाली औरतों को धार्मिक चक्रव्यूह में किस तरह रूढ़िवादी धर्मान्ध लोग फँसाये रहते है। विवेकशील स्त्री और पुरुष दोनों यदि सचेष्ट प्रयास करें तो स्थिति में काफ़ी बदलाव लाया जा सकता है।” 

इस आलेख में उन्होंने सन्‌ 2000 के इमराना प्रकरण का भी उल्लेख किया है। पुरुष प्रधान समाज की शरीयत ने अपने ससुर द्वारा बलात्कार की शिकार बनाई गई बहू इमराना को दोषी बताया। जाति-पंचायत के बाद फ़तवों का दौर शुरू हो गया। अब बताइए क़ानून बड़ा है या जाति पंचायत या शरीयत? डॉ. सौभाग्यवती अपने आलेख ‘निरक्षता के अभिशाप से मुक्त होना होगा’ में राजस्थान की लाखों बच्चों की सरकारी स्कूलों को छोड़ने की शिकायत का उल्लेख करती हैं, जिसका मुख्य कारण श्रमिकों के बच्चों को आस-पास कहीं काम मिल जाता है तो वे स्कूल छोड़ देते हैं। बालिकाओं की शिक्षा का तो और भी बुरा हाल है। सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की तबादला नीति में व्याप्त घूसखोरी और भ्रष्टाचार रोका जाए। दलित, खेतिहर मज़दूर, भूमिहीन लोग शिक्षा के साधनों से अभी भी वंचित है। साक्षरता अभियान का सकारात्मक पहलू का उदाहरण देते हुए वह लिखती है कि सन्‌ 2004 में हरिसिंह पूरा गाँव के भोपाल सिंह की दो पुत्रियों का बाल-विवाह रुकवा दिया। 

इस पितृात्मक समाज में यह तो जग ज़ाहिर है कि भारतीय स्त्री उत्पीड़ित है, पर एक पुत्री का पिता भी कम उत्पीड़ित नहीं है। यानी यह पुरुष प्रधान समाज ख़ुद पुरुष के लिए भी उत्पीड़नकारी है और ऐसे पुरुष का तो घोर शत्रु है जो इसके नियमों को, रीतियों को धारण या वहन करने में समर्थ नहीं है। उसका दर्जा भी इस कारण कोई ऊपर का नहीं है कि वह पुरुष है वरन् दोयम दर्जे का ही है। ‘दहेज़ की बर्बरता की शिकार भारतीय युवतियां’ आलेख में लेखिका दहेज़ क़ानूनों की पृष्ठभूमि का उल्लेख करती हुई लिखती हैं कि सन्‌ 1961 के क़ानून के अनुसार दहेज़ माँगना अपराध है और क़ानून के संशोधित रूप 1986 के तहत दहेज़ के आरोपी को 5 साल की सजा और 15000 रुपया जुर्माने का प्रावधान है, जबकि 1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला दिया था विवाह की बातचीत में दौरान भी दहेज़ का ज़िक्र अपराध माना जाएगा। मगर क्या अपराध थमा? सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत चंद्र मोहनी सलूजा के उच्च अधिकारी पति ने बड़ा रेफ्रिजरेटर की माँग पूरी न करने से उसकी हत्या कर दी। इसी तरह, दिल्ली की रीता खुराना, गजेटेड अधिकारी को हनीमून के दौरान पहलगाम में तेज़ पानी की धार से मार दिया गया, दहेज़ के पैसों के ख़ातिर। दहेज़ के हत्यारे पढ़े-लिखे लोग ज़्यादा है। लेखिका के अनुसार इन हत्याओं से बचने के लिए पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अधिकार, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन, कोर्ट मैरिज और ग्रामीण पिछड़े क्षेत्र की बालिकाओं को अच्छी शिक्षा देना ज़रूरी है। 

आज भी हमारे समाज में औरतों के प्रति नज़रिया अच्छा नहीं है, तभी तो आए दिन बलात्कार जैसे दुष्कर्म होते रहते हैं। नहीं मानने पर चेहरे पर एसिड फेंकना या केरोसिन डालकर जला देना आमबात होती जा रही है। जहाँ ‘मनुस्मृति’ ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर स्त्रियों के जीवन को बद से बदतर बना दिया, इसी तरह नई जीवनशैली ने स्त्री को आधा यथार्थ, आधा स्वप्न; आधा देवी, आधी दानवी; आधी माँ, आधी वेश्या; आधी रूढ़िवादी तो आधी उत्तर आधुनिक घोषित करती है। आज भी पुरुष समाज बाँझ और केवल लड़कियाँ पैदा करने वाली स्त्रियों को डायन कहकर पुकारता है, जो हमारे समाज के लिए कलंक हैं। असमानुपात लैंगिकता के कारण समाज में आने वाले ख़तरों के प्रति सचेत किया है कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार समाज को विनाश के गर्त में धकेल देगा। 

‘जनतांत्रिक प्रणाली पर काला धन है बाल विवाह’ आलेख आज़ादी के अमृत महोत्सव के बाद भी आज भी अक्षय तृतीया के दिन राजस्थान में बच्चों को गोद में लेकर शादी करवा दी जाती है। कारण, खर्चीली शादियों के बचने के लिए और माँ-बाप की आँखों के सामने उनकी शादी करने का ख़्वाब पूरा करने के लिए। अपने दूसरे आलेख ‘बाल विवाह उन्मूलन एक सामाजिक सांस्कृतिक अभियान की ज़रूरत’ में वह लिखती है: 

“आखातीज के दिन राजस्थान के अधिकतर ज़िलों, क़स्बों ग्रामीण इलाक़ों नगरों तथा जयपुर जैसे राजधानी क्षेत्र के निकटवर्ती क्षेत्रों में हज़ारों दुधमुहे बच्चों तक की शादियाँ सम्पन्न करा दी जाती हैं। आखातीज के दिन का अबूआ मुहूर्त के रूप में श्रेयस्कार मानकर एक ही परिवार के कई लड़के लड़कियों की शादियाँ एक साथ कर दी जाती हैं। गुर्जर, मीणा, अहीर, कालबेलिया, भील, माली व रेवारी आदि अनेक जातियों में सैकड़ों सालों से चली आ रही परम्परा के रूप में की जाने वाली अल्पायु लड़के-लड़कियों की शादी प्रथा में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। राजनेता सभा मंचों पर सामाजिक कुरुतियों पर भाषण तो ज़ोरदार देते हैं। पर दहेज़, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा और मृत्युभोज जैसे नकारात्मक कारकों में स्वयं शामिल होते हैं।” (पृष्ठ-66) 

‘आदिवासी अस्मिता: उलझनों के बीहड़ में मानवीय गरिमा की ओर’ आलेख में वनों के विघटन से आदिवासियों का परंपरागत जीवन के छिन्न-भिन्न होने और भूख, रोज़गार, सुरक्षा और आवास की बुनियादी ज़रूरत के अभाव में उनका भयंकर तरीक़े से विस्थापन होने पर प्रकाश डाला गया है। यद्यपि ओड़िशा में नियमगिरी से पास्को, वेदांत जैसे उद्योग हटे, मगर अभी भी दूसरे उद्योग गिद्ध दृष्टि डाले बैठे हुए हैं। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स परियोजना के अंतर्गत पिकासा नामक गाँव उजड़ गया। ‘कोलाब कुंड योजना’ में आदिवासियों को वन-विभाग और प्रशासनिक अधिकारियों ने धमकियाँ दी कि वे वहाँ विस्फोट कर देंगे तो भयभीत होकर काफ़ी आबादी वहाँ से भाग गई। लेखिका लिखती है: 

“भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मई 2002 में आदिवासियों के लिए एक सर्कुलर जारी किया जिसमें सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के 2001 के एक वन सम्बन्धी मामले के नाम पर इस तरह का आदेश अंकित है कि वन भूमि के सभी अतिक्रमणों (12 लाख 55 हज़ार हैक्टेयर के क़रीब है) को ख़ाली कराया जाए। यह आदेश 1980 के पूर्व के निपटारे वाले मामलों के साक्ष्यों को भी ख़त्म कर देता है। यह आदेश एक प्रतिगामी क़दम की तरह है और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग के सिफारिशों के सर्वथा विपरीत है। यही कारण है कि आदिवासी तमाम संगठनों और वामपंथी संगठनों ने उक्त सकूलर का ज़ोरदार अभियान चलाकर विरोध किया। 

उदारीकरण की नीतियों भी आदिवासियों पर भारी मार पड़ी है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर कटौती थोपी जाने और सामाजिक क्षेत्र के लिए सरकारी फण्डिंग की कटौतिया किए जाने के कारण आदिवासी आबादी की दशा दरिद्रतर होती गई। बेदख़ल किए गए आदिवासयिों को पुनर्वास मुआवजों तथा रोज़गार दिलाने के काम से वंचित रखा गया। पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ दें तो आज सभी आदिवासियों तथा अनुसूचित जातियों में निरक्षरता का अनुपात सबसे अधिक है, क्योंकि एक के बाद एक आई सरकारों ने हमारी जनता के इस हिस्से तक शिक्षा का प्रसार करने की कोशिश ही नहीं की।” (पृष्ठ-26) 

‘उजाला और अँधेरों के फासले’ और ‘संपन्नता के उजालों और विपन्नता के अँधेरों का भेद’ में डॉ. सौभाग्यवती लिखती हैं कि हमारे देश में कुरीतियों और असमानता का मुख्य कारण विकास के पश्चिमी मॉडल का अनुकरण करना है। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 30 पर उन्होंने इस अंतर की गहन व्याख्या की है: 

“शहरों और गाँवों के मध्य वर्ग और निम्न वर्ग को दिया जाने वाली राशन सामग्री जैसे चीनी तथा केरोसिन (गाँवों में और भी वस्तुएँ रहीं) को चोरी छिपे बाज़ार में बेच दिया जाता रहा। धीरे-धीरे शहरों के लोग राशन लेना भूल ही गए और गाँवों में बिचौलियों की काला बाज़ारी के कारण राशन विवरण की व्यवस्था बद से बदतर होती जा रही है। एक ग़लत तरीक़ा यह भी रहा कि ग़रीबी रेखा के नीचे के लोगों की सही पहचान जानबूझ कर नहीं की गई और ग़रीबों की बढ़ी हुई तादाद को कम करके दिखाने के फलस्वरूप मध्यवर्ग के उन लोगों को राशन कार्ड दे दिया गया जो उसके हक़दार नहीं थे इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के बारे में सरकार ने कोई कोशिश नहीं की। लेकिन सरकार ने 1997 से जो नई नीति तय की थी कि ग़रीबी रेखा से नीचे वालों को राशन की लागत मूल्य से 52 प्रतिशत कम क़ीमत पर प्रति व्यक्ति 10 किलो अनाज दिया जाए। यह नीति ग़रीबों की सही पहचान न होने के कारण और इस दिशा में ठोस क़दम न उठाने के कारण सफल नहीं हो पाई। वर्ष 2000 में बिहार व उड़ीसा में लोगों ने आम की गुठलियाँ उबाल कर खाई और आंध्रप्रदेश में किसानों ने भूख के कारण आत्म हत्याएँ की। इस भयावह दशा के बाद भी ज़मीनी स्तर पर कुछ ख़ास सरकारी क़दम नहीं उठाए गए। रोज़गार की घोर कमी से वर्तमान दौर में मेहनतकश लोग और ख़ासकर आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा युवा समुदाय, पूँजीपति और भू स्वामी शासकों द्वारा थोपी जा रही जन विरोधी नीतियों के कारण भंयकर बेरोज़गारी की समस्या से पीड़ित है।” 

यही नहीं, इस अंतर के कारण दलितों के प्रति सवर्णों के मन में देश की आज़ादी के बाद भी नफ़रत की भावना भरी पड़ी है, जिसका उदाहरण देते हुए वह लिखती है: 

“धर्मनिरपेक्ष भारत में धर्मान्धता और पाखण्ड का शिकार, दलित जनों को आम रूप से बनाया जा रहा है। वर्ष 2006 में चार दलित महिलाओं ने जब जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करके भगवान की पूजा की तो जगन्नाथ पूरी के पण्डों ने उन चारों की बुरी तरह पिटाई कर दी क्योंकि अछूत स्त्रियों ने भगवान की प्रतिमा का स्पर्श कर लिया था। बाद में मंदिर का पवित्रीकरण भी किया गया। हालाँकि इस घटना के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दलित महिलाओं के पक्ष में फ़ैसला दिया। परिणामस्वरूप बाद में सामूहिक रूप से दलितों ने जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करके की परम्परा निभाई, लेकिन अभी भी फासीवादी सामन्ती ताक़तें पूजा दलितों को घुड़चढ़ी से रोकना, जलाशयों से पानी न लेने देना और धर्म केन्द्रों में जाने से रोकना जैसी हिंसक और अमानवीय स्थितियों का शिकार बनाती रहती है। सबसे अधिक दुर्गति सिर पर मैला ढ़ोने वाले स्वच्छकारों की हो रही है। आश्चर्य है कि सरकार इन शर्मनाक प्रवृतियों पर रोक क्यों नहीं लगा पा रही?” 

अनेक कट्टरपंथियों के पूर्वाग्रह ग्रसित और संकुचित विचारों के ख़िलाफ़ उन्होंने अपने अन्य आलेख ‘साम्प्रदायिकता के जहरीलेपन को कुचलना होगा’, ‘धर्म निरपेक्षता और लोकतन्त्र’ एवं ‘साम्प्रदायिकता से नहीं बनेगा अखण्ड भारत’ में प्रकट किए है कि उड़ीसा के 45 साल से कुष्ठ रोगियों के उपचार और पुनर्वास के कार्यों से संलग्न ग्राम डस्टेंस और दो मासूम बच्चों को ज़िन्दा जलाना, 1990 में सिस्टर रूबी के साथ मारपीट, बलात्कार और पेशाब पिलाना, काव्य और संगीत के ऐतिहासिक निशानों को मिटाने से महान हस्तियों का नामोनिशान मिटाने की चेष्टा करना और जिस तरह पाकिस्तान में पाठ्यक्रम के माध्यम से सांप्रदायिकता भड़काने के अनुचित तरीक़े अपनाए जा रहे हैं वैसे ही भारत में भी करने की मंशा से सरस्वती शिशु मंदिरों स्कूलों में आरएसएस द्वारा पाठ्य पुस्तकों से संकीर्ण सोच वाले पृष्ठों को रखना और यूजीसी में ज्योतिष शास्त्र, भूत विज्ञान जैसे संकीर्ण और वैज्ञानिक विषयों को सम्मिलित करने से बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि वह युवा पीढ़ी के मन मस्तिष्क के दरवाज़े बंद करने पर तुले हुए हैं। उनमें भाग्यवाद और कायरता का समावेश कर विकासोन्मुखी बनाने की साज़िश पिछड़ेपन और धर्मांधता को विकसित करेगी। इस पर विचार करते हुए वह लिखती हैं कि “उल्लेखनीय है आरएसएस के पुरोधा गोलवरकर ने पाकिस्तान बनने से भी पहले 1938 में अपनी पुस्तक ‘हम या हमारा पुर्नर्भाषित राष्ट्रीयत्व’ में लिखा है कि जर्मन में हिटलर ने राष्ट्रीय अभियान अपने राष्ट्र और संस्कृति की शुद्धता की रक्षा के लिए चला कर दुनिया को एक झटका दिया और सैमेटिक नस्ल वाले यहूदियों को अपने देश से खदेड़ दिया इसका निहितार्थ यही है कि हिन्दुस्तान के ग़ैर हिन्दू, हिन्दू संस्कृति और भाषा को स्वीकार करें और हिन्दू जाति या धर्म से भिन्न जो लोग हिन्दुओं के मातहत नहीं उन्हें देश से उसी तरह खदेड़ दो जैसे हिटलर ने जर्मनी से यहूदियों को खदेड़ा था। धर्म और नस्ल को अब इस तरह राजनीति का हथियार बनाया जाता है। तब धर्म निरपेक्षता, मानवतावाद और समता के मूल्य धराशायी हो जाते हैं।” (पृष्ठ-102) 

‘कांग्रेस के राज्य में गोहाना के दलितों पर बर्बर जुल्म’ आलेख में हरियाणा के गोहाना में जाति विशेष के लोगों ने 50 घरों को जलाकर भस्मीभूत कर दिया। जिसका कारण लेखिका ने निम्न गद्यांश में दिया है: “बात वहाँ से शुरू हुई कि वाल्मीकि जाति का एक युवक अपनी पत्नी के साथ स्टुडियो में फोटो खिंचवाने गया। वहाँ उसकी पत्नी पर किसी ने फ़िक़रा कस दिया। वह अपने साथियों के साथ फ़िक़रा कसने वाले से अपना क्रोध-प्रदर्शन करना चाहता था पर टकराव हो गया और एक नौजवान जीव की मौत हो गई। जो अगड़ी जाति का था। इसी मौत के बदले दलितों के घर जलाए गए और पुलिस तथा प्रशासन मौन साधे रहे। अगड़ी जाति का कहना है कि उन्होंने अपनी पंचायत के फ़ैसले से सरकार को आगाह कर दिया था कि यदि दो दिन के अन्दर पुलिस और प्रशासन अपना काम नहीं करती तो वे क़ानून अपने हाथ में लेंगे। पुलिस और प्रशासन की लापरवाही का ही नतीजा था कि आगजनी का कांड हो गया, लेकिन वास्तविकता और सामाजिक सच्चाई यह है कि इस कांड में प्रशासन और पुलिस की साज़िश काम कर गई। इसमें सरकार पर भी कलंक लगा है। इस काण्ड से कई सवाल भी सामने आये हैं। क्या यह वही कांग्रेस सरकार है जिसने चौटाला की सरकार को भ्रष्ट और जन विरोधी कहकर अपदस्थ किया था? क्या धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की रक्षक कांग्रेस सरकार ग़रीबों के जान-माल की रक्षा करने में समर्थ रहीं? पुलिस और प्रशासन ने न्यायोचित कार्यवाही की कोताही क्यों की? दुलीना कांड में भी पाँच लोगों की (जो दलित थे मृत गाय का चमड़ा उतारते हुए, भारी भीड़ ने मार-मार कर हत्या कर दी थी। यह हत्या पुलिस चौकी के नज़दीक ही की गई थी। सन् 2002 में हरियाणा के दुलीना में पाँच दलितों के गौहत्या के मिथ्या आरोप में भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला था तब कांग्रेस पार्टी ने तत्कालीन हरियाणा की भाजपा सरकार को बरख़ास्त करने की माँग ज़ोर-शोर से उठाई थी तथा मृत दलितों के परिजनों से मिलकर संवेदना में काफ़ी विलाप-प्रलाप भी किया था।” (पृष्ठ-56) 

“उदारीकरण की चपेट में श्रमिक महिलाएँ” आलेख में लेखिका दृष्टांत देती है कि आज़ादी के समय दिल्ली में 500 गाँव थे और अभी 50 गाँव भी नहीं बचे। इधर कारखाने बंद हो गए। कल्याणपुरी, जहाँगीरपुरी, नेहरू प्रेस आदि स्थलों से झुग्गी-झोपड़ियाँ हटा दी गईं तो औरतों को दूर भेज दिया गया। गर्भवती औरतें ईंटों के भट्टों में काम करने लगी। साबरकांठा में शुष्कता के कारण आज भी पानी उन्हें दूर से लाना पड़ता है। पुरुष बाहर रोटी कमाने जाते हैं, औरतें खेती देखती है, कँटीली झाड़ियों में काम करती हैं। उनकी अवस्था सुधारने के लिए स्त्री कामगार संगठन मज़बूत हों, ताकि राष्ट्रीय श्रम नीति को प्राथमिकता दी जाए। उदारीकरण की नीति की घोषणा के बाद से वर्ष 1991 से प्रारंभिक स्तर से उच्च स्तर तक की शिक्षा के प्रति सरकार की प्रतिगामी नीतियों के कारण तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं। इसकी ख़ास वजह यह है कि सरकार ने शिक्षा की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है और अब शिक्षा नीति इस सोच के तहत संचालित हो रही है कि शिक्षा सामाजिक दायित्व नहीं बल्कि एक वस्तु या माल की तरह है। इसी सोच के फलस्वरूप शिक्षा शुल्कों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, राजकीय फ़ंड प्रणाली में गिरावट आ रही है और निम्न वेतन पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं। कहना न होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय निगमों को शामिल करना उसी विचार की देन है जो शिक्षा को बाज़ारवादी मुनाफ़े की वस्तु की तरह मानता है। आज धनिक लोग व्यावसायिक शिक्षा संस्थान खोल रहे हैं, जिनमें शिक्षकों को श्रमिकों की तरह रखा जाता है, अभिभावक ग्राहकों की तरह अपनी संतानों को दाख़िल करते हैं जहाँ शिक्षा प्राप्त करने की भारी क़ीमत वसूल की जाती है। ज़ाहिर है कि ऐसे में चरित्र निर्माण की बात करना ही व्यर्थ है। यही नहीं, “भूमंडलीकरण के संदर्भ में लघु किसान की व्यथा कथा और निदान’ एवं ‘आज़ादी को बचाए रखने के लिए भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी चाहिए।” जैसे क्रांतिकारी आलेखों का इस कृति में समावेश हैं। 

‘हिंसा और संप्रदायिकता को छोड़ने पर ही होगा आतंकवाद विफल’ आलेख में वह ओड़िशा का उदाहरण देते हुए कहती है कि “उड़ीसा का कन्धमाल ज़िला राज्य में सर्वाधिक पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। पिछले दिनों विहिप के नेता स्वामी लक्ष्मणानन्द और उनके कुछ साथियों की हत्या की घटना के बाद से विहिप और उनके अन्य धर्मान्ध सहयोगियों ने ईसाइयों पर ताबड़तोड़ हमले शुरू कर दिये ग़ौर करने की बात यह है कि उक्त हत्या की ज़िम्मेदारी नक्सलवादी समूह ने ली है। लेकिन बिना जाँच और बिना प्रमाण के हिन्दुत्व पोषक ताक़तें मिशनरी चर्चा, पुस्तकों साधनों तथा आवासों को बराबर क्षति पहुँचा रहे है। ग्रामीण ग़रीब ईसाई आदिवासी मौत के शिकार बनाये जा रहे है। लम्बे समय से ईसाई समूह लगातार हिंसक गतिविधियों का शिकार हो रहा है। उड़ीसा राज्य के मुख्यमंत्री की जानकारी में पूरा मामला आ चुका है। लेकिन उनकी कोशिश उपयुक्त रूप से सामने नहीं आई है अन्यथा हिंसा रुक सकती थी।” (पृष्ठ-35) 

‘किशोर पीढ़ी: भटकाव और बचाव’ में लेखिका आधुनिक किशोरों के कॉमिक्स, सिनेमाई पत्र-पत्रिकाओं में अधिक झुकाव पर खेद प्रकट करती है, मगर अब तो ई-ज़माना है, फ़ेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, व्हाट्सएप पर किशोर हमेशा लगे रहते हैं। उनसे उबरने के लिए वह सुझाव भी देती हैं कि किशोरों के साथ नियमित संवाद, उनकी बातें सुनकर समुचित उत्तर देते हुए उनके क्रियाकलापों में सहभागिता निभाएँ। त्योहारों के प्रयोजनों सांझाएँ और ऐतिहासिक, सांस्कृतिक वार्तालाप को बढ़ावा दें। यही नहीं, इस उम्र में पास-पड़ोस के अल्पसंख्यक और दलित किशोरों से उनकी मित्रता करवाई जाए। ‘स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी लालनाएं’ आलेख में 1824 में कर्नाटक की छोटी रियासत कितूर की रानी चेन्नम्मा का अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठाना, पंजाब के अमर शहीद श्रद्धानंद की पौत्री सत्यवती द्वारा महिलाओं को समझाना गाँधी जी ने हमें प्रेरणा दी है कि मातृभूमि की आज़ादी से महत्त्वपूर्ण और कोई कार्य नहीं है और पुलिस की गोलियाँ या अन्य दमन भी हमें इस कार्य से नहीं हटा सकते, लाला लाजपत राय के बॉयकॉट अभियान में महिलाओं ने जो विरोध प्रदर्शन में आर्य समाज की स्त्रियों द्वारा अपने ज़ेवर उतार कर बेच देना और भूमिगत सेनानियों को अपने घरों में ख़तरे से खेल कर भी स्थान देना, अरुणा आसफ अली, भारत-रत्न के लंबे समय तक भूमिगत रहने के साथ-साथ राजस्थान की सीमा से सटे गुजरात की विजयनगर के पालचितरिया में आदिवासी भीलों द्वारा 7 मार्च 1922 के स्थानीय रियासत के कारिंदों द्वारा लगाए गए भारी करो को हटाने की माँग करना, जिसमें सोमी बहन का दुश्मन की गोली से मारे जाने के साथ-साथ इस घटना में 1200 आदिवासियों को गोलियों से चटनी छलनी कर दिए जाने की घटनाओं का उल्लेख है, यह संख्या जलियाँवाला बाग़ के शहीदों से तिगुनी थी। इसके अतिरिक्त, कैप्टन लक्ष्मी सहगल और मानवती आर्य द्वारा आज़ाद हिंद फ़ौज की रानी झांसी रेजिमेंट का संचालन करने, औद्योगिक केंद्रों की मेहनतकश मज़दूर स्त्रियों द्वारा द्वितीय महायुद्ध के बाद कोलकाता, मुंबई और अन्य स्थलों में विद्रोह की शृंखला में कमल दाँड़ नामक महिला ने हड़ताल में प्राणों की आहुति देने जैसी अनेक घटनाओं का सजीव चित्रण हुआ है। सरोजिनी नायडू के शब्दों में, तन-मन-धन से अगर स्त्रियाँ सहयोग नहीं करती तो हमारा आज़ादी का आंदोलन सफल नहीं हो सकता था। 

‘महिला सशक्तिकरण की पड़ताल’ आलेख में लेखिका ने समाज में दहेज-हत्या, भ्रूण-हत्या, नारी विरोधी गतिविधियों की पड़ताल की है, जिसमें इस पुस्तक के सर्जन के समय पाया कि देश में 20 लाख कन्याओं का माँ की कोख में दफ़न होता है, बलात्कार और हिंसा की शिकार अलग से, डायन-प्रथा आज अनेक गाँवों में ज़िन्दा है, उनकी खाल उधेड़ना, उन्हें नंगा करना यहाँ तक कि उनके प्राणों की बलि ले लेना आदि नृशंस घटनाएँ ख़त्म नहीं हुई है। अगर प्रबुद्ध स्त्री वर्ग आगे नहीं आएगा तो महिला सशक्तिकरण खोखला नारा रह जाएगा। मनुवादी सोच के कारण आज भी देश की आज़ादी के 75 साल पार होने के बाद भी नर-नारी असमानता की जटिल समस्या बनी हुई है। क्या ‘विश्व सुंदरी’ को छोड़कर विश्व की शेष स्त्रियाँ असुंदर है? उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण शहरों और क़स्बों में यत्र-तत्र ब्यूटी पार्लर खोलने की होड़ लगी हुई है। 

आलोचकीय दृष्टिकोण से सामान्यतया उनके सारे आलेख विवरणात्मक और समस्यामूलक हैं। इनमें चिन्ताएँ अधिक हैं। विवेकानंद ने कहा था कि–“जिस देश में या जिस घर में स्त्रियों की स्थिति ठीक नहीं है, वे कष्ट में हैं, जहाँ उन्हें सम्मान ना मिलता हो उनको कोई स्थान ना दिया गया हो, उस परिवार या उस देश की उन्नति की आशा व्यर्थ है।” 

इस दृष्टिकोण से परिवार और देश की उन्नति के लिए स्त्री-विमर्श का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो कि आधी दुनिया के सवालों का प्रमुख स्वर है। इस हेतु लेखिका ने अपने जीवन में संपर्क में आई नारियों और आधुनिक नारी के दुखों को आत्मसात कर अपनी प्रभावशाली लेखनी के माध्यम से उनके अलग-अलग स्वरूप को समाज के सामने प्रस्तुत किया है, ताकि वे उनके प्रति मन में करुणा के भाव पैदा हो और उन्हें उनके अधिकारों से वंचित नहीं करते हुए मानव जीवन की गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक दो पहियों में एक बराबरी का पहिया समझे। 

दिनेश कुमार माली, 
तालचेर, ओड़िशा 

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