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नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’

समीक्ष्य कृति: बेनज़ीर-दरिया किनारे ख़्वाब 
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव 
प्रकाशक:भारतीय साहित्य संग्रह, नेहरू नगर, कानपुर-२०८०१२
२४, लॉकवुड ड्राइव, प्रिंसटन, न्यूजर्सी, यू, एस. ए. 

 

‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’ प्रदीप श्रीवास्तव का बहुचर्चित उपन्यास है, जो अगस्त 2023 में भारतीय साहित्य संग्रह, कानपुर से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व यह उपन्यास पुस्तक बाज़ार डॉट कॉम, कैनेडा और मातृभारती डॉट कॉम, गुजरात से प्रकाशित हो चुका है। हमारे समाज के अधिकांश मुस्लिम परिवार के समसामयिक मुद्दों को इस उपन्यास की विषय-वस्तु बनाया गया है। इस उपन्यास के ब्लर्ब समकालीन दो शीर्षस्थ साहित्यकारों—उद्भ्रांतजी और प्रोफ़ेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित जी ने लिखा है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कवि और साहित्यकार उद्भ्रांत जी उनके लेखन पर पहले ब्लर्ब टिप्पणी करते हैं, “प्रदीपजी मूलतः यथार्थवादी लेखन करते हैं, समाज में हो रही छोटी सी छोटी घटनाओं पर उनकी तीक्ष्ण दृष्टि रहती है। साठ से अधिक प्रकाशित हो चुकी उनकी कहानियाँ हों या अब तक प्रकशित चार उपन्यास, वह किसी यथार्थ घटना पर आधारित, या उनसे प्रेरित हैं, उनका ऐसा ही कहना इस उपन्यास के लिए भी है। इसके नायक-नायिका असाधारण समस्याओं, स्थितियों के बावजूद अपने सपनों के संसार के सृजन हेतु प्रतिबद्ध रहते हुए, किसी स्थापित मूल्य-मान्यता के विरोध की बात न सोच कर अपनी मूल्य-मान्यताएँ स्वयं गढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं। उत्कृष्ट औपन्यासिक संरचना, संवाद-कौशल, सहज-सरल, पात्रानुकूल रोचक संप्रेष्य भाषा, पठनीयता, उपन्यास को दिलचस्प बना रहे हैं। अपने पात्रों की तरह स्वयं प्रदीप जी भी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बहुत व्यापक और महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, इनका जीवन नए लेखकों के लिए प्रेरणास्रोत बनेगा।” 

ऐसी ही कुछ टिप्पणी दूसरे ब्लर्ब पर प्रोफ़ेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित लिखते हैं, “प्रदीप श्रीवास्तव का यह उपन्यास ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’ उनकी विमर्श मुक्त लेखकीय सोच को प्रतिबिंबित कर रहा है। उनका यथार्थवादी लेखन इस उपन्यास में भी मुखरता से उपस्थित है। मुख्य चरित्र अपने सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष, जीवटता की नई परिभाषा गढ़ते हैं।” 

ब्लर्ब पर लिखी ये दोनों टिप्पणियाँ उनके यथार्थवादी लेखन की ओर संकेत करती हैं। उपन्यासकार प्रदीप श्रीवास्तव इस उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं कि इस उपन्यास का मुख्य पात्र बेनज़ीर कोई काल्पनिक पात्र नहीं है। पात्र नाम भले ही, कुछ और होगा, मगर उन्होंने बदलकर बेनज़ीर रखा है। उपन्यासकार को बेनज़ीर के संघर्षों, संकल्पों और महत्वाकांक्षाओं की गाथा सुनने के लिए उससे कई बार मुलाक़ात करनी पड़ी होगी। जैसे कभी राजस्थान की लोक-कथाओं को संगृहीत करने के लिए विजय दान देथा गाँव-गाँव घूम कर वहाँ के बुज़ुर्ग लोगों से, ख़ासकर बुज़ुर्ग महिलाओं से मुलाक़ात करते थे और उनसे सुनी लोक-कथाओं का राजस्थानी और हिन्दी में अनुवाद कर बहुचर्चित कहानी-संग्रह ‘बातां री फुलवारी’ और ‘चौधराइन की चतुराई’ नाम से प्रकाशित करवाए, वैसे ही प्रदीप श्रीवास्तव जी अपने उपन्यास के पात्रों की खोज में निकले या वे ख़ुद उनके पास आए—यह मैं नहीं कह सकता हूँ, मगर इतना सत्य है उनके उपन्यास ‘मन्नू की वह एक रात’ और ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’ यथार्थ पात्रों पर आधारित उपन्यास हैं, एकदम सच्ची घटनावलियों का बयान करती हुई। 

इस आलोच्य कृति के मुख्य पात्र बेनज़ीर को सबसे पहले दाद देनी पड़ेगी कि उसने लेखक को अपने जीवन और परिवार की विकृत, मगर यथार्थ और उन्मुक्त कहानी को बेबाकी से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने से नहीं रोका, वरन् अपने शून्य से शिखर तक पहुँचने वाली इस प्रेरक कहानी को सकारात्मक माना। 

इस उपन्यास में ऐसे तो सब-कुछ है, धर्म है, अधर्म है; बहुविवाह है, तलाक़ है; हिंदू है, मुस्लिम है; ग़रीबी है, अमीरी है; मगर महिलाओं की समस्याओं पर पहली बार मैरी वुलस्टोनक्राफ़्ट (27 अप्रैल 1759-10 सितंबर 1797) ने अपनी पुस्तक ‘A Vindication of the Rights of Woman (1792)’ के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों के लिये आवाज़ उठाई कि नारी के शोषण का कारण है शिक्षा की कमी। औरत की नियति क्या है? वह ग़ुलाम क्यों है? किसने ये बेड़ियाँ, कुलाचें मारती हिरणी के पैरों में पहनाईं? इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए अस्तित्ववाद के मसीहा दार्शनिक ज्यां पॉल सा‌र्त्र से आजीवन बौद्धिक सम्बन्ध रखने वाली फ़्रांसीसी सिमोन द बोउआर ने ‘द सेकेण्ड सेक्स’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी। ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का प्रभा खेतान द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएँ, इच्छाएँ, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में। विवाह और वंश परम्परा की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ उसने आवाज़ उठाई। विवाह को एक जर्जर ढहती हुई संस्था माना क्योंकि यह आधी दुनिया की ग़ुलामी का सवाल है, जिसमें अमीर–ग़रीब हर जाति और हर देश की महिला जकड़ी हुई है। 

इस उपन्यास में एक ग़रीब मुस्लिम महिला का हिंदू आदमी से प्रेम विवाह कर रैंप वॉक करते हुए मॉडलिंग के माध्यम से अमीरी के तुंग तक पहुँचने वाली एक दर्द भरी दास्तां है। यह उपन्यास मंजू अहिंसा के ‘सूखा बरगद’ और ओड़िया लेखिका सरोजिनी साहू के ‘बंद कमरा’ की याद दिलाती है। 

यह तो मैं नहीं कह सकता हूँ कि ‘सूखा बरगद’ या ‘बंद कमरा’ उपन्यास यथार्थ धरातल पर आधारित उपन्यास हैं या काल्पनिक, मगर निःसंदेह श्री प्रदीप श्रीवास्तव की ‘बेनज़ीर’ यथार्थ कहानी का दीर्घ सुपाठ्य विस्तार है। 

मंज़ूर एहतेशाम के ‘सूखा बरगद’ उपन्यास की कहानी भोपाल के एक शिक्षित मुस्लिम परिवार पर आधारित है, जिसके प्रमुख पात्र रशीदा और सुहेल के माध्यम से देश में अल्पसंख्यक समुदाय को पेश आने वाली समस्याओं का चित्रण किया गया है। दोनों पक्षों के झगड़े के पीछे राजनीतिक मंसूबों को रेखांकित करने के साथ-साथ उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में धार्मिक कट्टरता का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। मंज़ूर एहतेशाम ने बरगद के पेड़ के माध्यम से सुहेल की मनोदशा में उसकी पुरानी याद और वर्तमान के आभास के वैषम्य को बहुत संवेदना से व्यक्त किया है। जिस हिन्दुस्तान को वह एक हरे-भरे बरगद के रूप में देखता था और जिसकी छाया में उसे शान्ति मिलती थी, अब वही बरगद का पेड़ प्रेम रूपी जल के अभाव में सूख गया है जहाँ छाया की अपेक्षा शरीर को झुलझाने वाली गर्मी और एक वीरानापन है। अब उसके लिए हिन्दुस्तान एक सूखा बरगद हो चुका था। 

राजपाल एंड संस द्वारा सन्‌ 2010 में प्रकाशित ‘बंद कमरा’ लेखिका सरोजिनी साहू के बहुचर्चित ओड़िया उपन्यास “गम्भीरी घर” का मेरे द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है, जिसके अंग्रेज़ी, बांग्ला और मलयालम संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। इस उपन्यास में हिन्दू स्त्री और मुस्लिम पुरुष के अनूठे रिश्ते की कहानी है। कुकी एक गृहिणी है जिसकी ई-मेल के ज़रिये पाकिस्तान के एक कलाकार शफ़ीक़ से जान-पहचान होती है और यह जान-पहचान आगे चलकर दोस्ती और फिर प्रेम में बदल जाती है। यह केवल स्त्री-पुरुष की प्रेम-कहानी ही नहीं है बल्कि परिवार, समाज और देश के आपसी रिश्तों की कहानी भी है; जहाँ पर कहीं धर्म का टकराव है और कहीं देश का। प्रदीप श्रीवास्तव का उपन्यास ‘बेनज़ीर’ सरोजिनी साहू के ‘बंद कमरा’ से पूरी तरह उलटा है, उनके पात्रों को लेकर। ‘बंद कमरा’ में कुकी हिन्दू है तो शफ़ीक़ मुस्लिम, जबकि ‘बेनज़ीर’ में बेनज़ीर मुस्लिम है और मुन्ना हिन्दू। 

‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम परिवार की दुर्दशा, हिन्दू-मुस्लिम समुदायों में धार्मिक कट्टरता और ‘बेनज़ीर’ में बहुविवाह, तलाक़, ग़रीबी, लड़कियों के घर से भाग कर शादी करने आदि की संस्मरणात्मक क़िस्सागोई प्रमुख रूप से प्रस्तुत हुई है, जबकि ‘बंद कमरा’ में एक संभ्रांत हिंदू विवाहित महिला का पाकिस्तान के किसी बुद्धिजीवी मुस्लिम युवक शफ़ीक़ के साथ रागात्मक संबंधों का अद्भुत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। ममता कालिया के अनुसार आज भी हमारे देश में न केवल नारी का सबला रूप ही कुचला जा रहा है, बल्कि मूक-बधिर, विक्षिप्त, बेघर, दलित, असहाय औरतें भी आए दिन उत्पीड़न, हिंसा और हत्या का शिकार हो रही है। विश्व की सभी महिलाओं को आर्थिक नीतियों का विशेष रूप से शिकार होना पड़ रहा है, मगर आज भी भारतीय समाज में संकीर्ण, पिछड़ी और स्त्री-विरोधी रीति-रिवाज़ों की भरमार है। मज़दूर महिलाओं के पास रोज़गार नहीं है और वे प्रतिदिन नृशंस हिंसा का शिकार हो रही हैं और यही कारण है कि भारत में देह व्यापार बढ़ता जा रहा है। कभी उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईवी रामास्वामी नायर, महात्मा ज्योतिबा फूले ने भयंकर उत्पीड़न झेला था। उन महापुरुषों की बदौलत हिन्दू परिवारों में पर्दा-प्रथा कम हुई, बालिका शिक्षा बढ़ी, अस्पृश्यता घटी और लैंगिक विषमता में भी कुछ हद तक कमी आई, मगर अपनी धार्मिक कट्टरता, दक़ियानूसी के कारण मुस्लिम परिवारों की स्थिति वैसी ही बनी रही। 

‘बेनज़ीर’ उपन्यास पढ़ते समय आपको लगेगा कि एक तरह से यह प्रेरणास्पद कहानी है, “ज़ीरो से हीरो’ बनने की यानी एक अनपढ़ मुस्लिम लड़की सिलाई-कढ़ाई-बुनाई सीख कर धीरे-धीरे अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुए पूर्ण आत्मविश्वास के साथ पहले मॉडलिंग और फिर होटल व्यवसाय की एक लंबी शृंखला खड़ी कर देना अपने आप में रश्मि बंसल की पुस्तक ‘स्टे हंगरी स्टे फुलिश‘ या ‘आई हेव ए ड्रीम’ की किसी भी ‘बिजनेस सक्सेस स्टोरी’ से कम नहीं लगती है। 

प्रदीप श्रीवास्तव जी की औपन्यासिक लेखन शैली बहुत अद्भुत है। पाठकों को पूरी तरह बाँधकर रखती है। सारे परिदृश्य एक-एक कर आँखों के सामने गुज़रते लगते हैं और तो और जिस नाटकीय अंदाज़ में वह अपने पात्रों की रूपरेखा तैयार करते हैं कि पाठक मन-ही-मन सोचने लग जाता है, शायद ऐसा अतियथार्थ लेखन भी सम्भव है! जिस तरह यथार्थवादी नारीवादी महिला रचनाकारों में प्रभा खेतान ने अपनी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ तथा मन्नू भण्डारी ने अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी ऐसी भी’ में ‘स्त्री-विमर्श’ को जो स्थान दिया है, वैसा ही नारीवाद का स्वरूप इस उपन्यास में आपको नज़र आएगा और आपकी नज़रों में नारियों के प्रति हार्दिक संवेदना-सहानुभूति तो अवश्य प्रकट होगी। 

प्रदीप श्रीवास्तव जी से फोन पर इस उपन्यास के बारे में मेरी बातचीत के दौरान जब मुझे यह पता चला कि उन्होंने अपना एक उपन्यास ‘मन्नू की वह एक रात’ गंभीर रूप से अस्वस्थ रहते हुए अपने एक मेजर ऑपरेशन से पूर्व लिखा है, ऑपरेशन इतना गंभीर था कि अनवरत क़रीब चौदह घंटे चला, उसके बाद लम्बे समय तक वेंटिलेटर पर रहे। सर्जरी से पूर्व डॉक्टर्स ने बचने की आशा कुछ ही पर्सेंट बताई थी, इस स्थिति के बावजूद हॉस्पिटल में एक लम्बी कहानी ‘किसी ने नहीं सुना’ भी लिखी। स्थिति यह थी कि सुबह ही सर्जरी होनी थी और वह रात क़रीब बारह बजे तक कहानी पूरी करते रहे, बेड के ऊपर लगे नाइट लैम्प की धीमी रौशनी में ही। लखनऊ पीजीआई में जब नर्स सोने के लिए कहती, नाराज़ होती तो यह कहकर समय माँग लेते प्लीज़ पूरा कर लेने दीजिये, शायद मेरे जीवन की यह आख़िरी कहानी हो। नर्स उनके इस मार्मिक आग्रह पर यह कहती हुई चली जाती कि आप समझते क्यों नहीं, नींद पूरी नहीं हुई तो बीपी डिस्टर्ब हो जाएगा, सर्जरी नहीं हो पाएगी। यह लम्बी कहानी भी बाद में साहित्यकुंज, कैनेडा और मातृभारती डॉट कॉम गुजरात से प्रकाशित हुई। 

यह जानने के बाद मैं अपने आप उनके साहित्य अनुराग, ज़िद और हिम्मत के समक्ष मन-ही-मन नतमस्तक हुआ और सोचने लगा कि आज भी इस दुनिया में ऐसे भी दृढ़ संकल्प वाले लेखक विद्यमान है। प्रदीपजी किशोरावस्था में गले में क्रिकेट बॉल से लगी चोट से उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। सर्जरी कर के उनके गले में आगे पीछे दोनों तरफ़ टाइटेनियम की प्लेट्स लगाई गई हैं, जो छोटे बड़े दर्जनों स्क्रू से टाइट की गई हैं, यहाँ तक की बाएँ तरफ़ की नीचे से ऊपर की तरफ़ की तीन पसलियों को भी निकाल कर प्लेट्स लगाई गई हैं। ऐसी विपरीत अवस्था में भी वे अनवरत सम्पादन, कहानी, उपन्यास जैसी विधाओं में विपुल लेखन कर रहे हैं। क्या उनकी यह दुनिया किसी विस्मय से कम है! सच में, वह समाज को अपने यथार्थ अनुभवों और अनुभूतियों के माध्यम से बहुत कुछ दे जाना चाहते हैं। निस्संदेह, उनके उपन्यास सोद्देश्यपरक हैं। जिनमें वे अनेक सामाजिक विद्रूपताओं को उजागर करते हुए, उनसे लड़ते हुए धर्म, जाति, लिंग-भेद, नस्ल-भेद और संप्रदायों से ऊपर उठने का आह्वान करते हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों की विषय-वस्तु साधारण परिवार के संघर्षों के इर्द-गिर्द घूमती है, जबकि उनके बिम्ब इतने सजीव होते हैं कि पाठक पढ़ते समय यह अनुभव करता है कि सारी घटनाओं से उसका कहीं-न-कहीं कोई ताल्लुकात है। 

आलोच्य उपन्यास में बेनज़ीर के अब्बू की चार पत्नियाँ हैं। एक बेनज़ीर की माँ से बड़ी और दो छोटी। तीन को वे तलाक़ दे चुके हैं। बेनज़ीर की अम्मी उन्हें ‘खुला’ करना चाहती है, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। और ऐसे भी मध्यमवर्गीय हिन्दू या मुस्लिम परिवार की किसी भी स्त्री में क्या यह हिम्मत हो सकती है? नहीं। मनुष्यता के अस्तित्व के सामने वेद, बाइबिल क़ुरान कुछ भी मायने नहीं रखती है। उनका वुजूद तब तक ही है जब तक मनुष्यता जीवित है। क्या ऐसा भी कोई धर्म हो सकता है, जिसमें किसी पति के “तलाक़! तलाक़!! तलाक़!!!” बोल देने मात्र से उसका अपनी पत्नी से तलाक़ हो जाए? जहाँ गायत्री मंत्र, क़ुरान की आयतें, वेदों की ऋचाएँ, गुरु ग्रंथ की वाणी और बाइबिल के सरमनों से आज समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो क्या ‘तलाक़’ जैसे तीन अक्षरों वाले शब्द का तीन बार उच्चारण करने से पति-पत्नी का सम्बन्ध हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा? क्या यह न्याय-संगत है? अगर बीवी ‘खुला! खुला!! खुला!!!” तीन बार कह दे वह अपने पति से दूर हो सकती है? प्रसिद्ध लेखिका प्रोफ़ेसर सौभाग्यवती अपनी पुस्तक ‘आधी आबादी के सवाल’ के आलेख ‘देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति’ आलेख में फरहत हाशमी का संदर्भ देते हुए लिखती हैं कि तीन तलाक़ इस्लाम के ख़िलाफ़ है। 

उन्हीं के शब्दों में, “आज मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। ग़ौर करने का विषय है कि हमारे लोकतान्त्रिक देश में संवैधानिक रूप से अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुविधाएँ दी गई हैं लेकिन क्योंकि इस्लाम धर्म के अनुयायी मुसलमानों का समाज अपने पवित्र धर्मग्रन्थ क़ुरान की आयतों के निर्देशों को महत्त्व देता है इसलिए धार्मिक कट्टरता ख़ासतौर से मुस्लिम महिलाओं के जीवन को निरन्तर प्रभावित करती है। मुस्लिम समुदाय के धर्म गुरु और उलेमाओं ने क़ुरान शरीफ़ के नाम पर मुस्लिम महिलाओं को अनेकों बन्धनों में जकड़ दिया है जबकि क़ुरान में महिला मुक्ति के संदेश सहित महिलाओं को अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं। यह शुभ संकेत है कि वर्तमान में शिक्षित प्रशिक्षित व मुस्लिम पुरुषों और कुछ स्त्रियों ने भी अपने धर्म ग्रन्थ का अध्ययन मनन करके उन सच्चाइयों का उद्घाटन किया है जो स्त्री अधिकारों और स्त्री के दर्जे के सम्बन्ध में क़ुरान में रेखांकित की गई है।” 

यह तो तक़दीर की बात है कि बेनज़ीर के नाना ने उसकी अम्मी के नाम पर कुछ ज़मीन जायदाद छोड़ दी थी, जिसके किराए से उन लोगों का जीवन गुज़र बसर हो रहा था; अन्यथा उसका भी बहुत पहले ही “तलाक़! तलाक़!! तलाक़!!!” हो गया होता। बेनज़ीर की अम्मी अपनी लड़कियों को चिकनकारी का हुनर सिखाती है और यही कला बेनज़ीर के जीवन की सफलता की कहानी बन जाती है और प्रदीप जी के लिए उपन्यास की सामग्री। 

शुरू-शुरू में अनपढ़ बेनज़ीर केवल अपनी मेहनत से अपने निकाह भर का पैसा कमाना चाहती थी, मगर बाद में मुन्ना चीपड़ अर्थात् रोहित के संपर्क में आने से धीरे-धीरे पढ़ना-लिखना सीख जाती है। पहली बार अँगूठा लगाकर सैलेरी उठाने वाली बेनज़ीर के लिए मुन्ना हिन्दी, अंग्रेज़ी और व्यवहारिक ज्ञान के लिए तीन टीचर्स की व्यवस्था करता है। इस वजह से बाराबंकी और काशी में लगने वाले ट्रेड फ़ेयर में मुन्ना के साथ जाकर अपनी कला का प्रदर्शन आत्म-विश्वास के साथ कर पाती है, जिससे उसकी कला में और निखार आता है। यही नहीं, जैसे कहते हैं कि किसी सफल व्यक्ति के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है तो यह भी सत्य है कि किसी सफल स्त्री के पीछे किसी पुरुष का हाथ होता है। उसका प्रेमी मुन्ना उसे लैपटॉप पर ऑनलाइन सेल करना, ऑनलाइन एजुकेशनल यू-ट्यूब चैनलों के माध्यम से सिखा कर उसका प्रोफ़ाइल बनाकर सोशियल साइट पर उसके डिज़ाइनों का प्रचार करना और कैमरे के सामने तरह-तरह के माइक्रो, मिनी, लार्ज, एक्सेल, स्लीपिंग सूट, लेडीज़ पैंट-शर्ट, स्लीवलेस कपड़े और बनारसी साड़ियाँ पहनाकर मॉडलिंग के गुर सिखाता है। यहाँ तक कि नेकेड फ़ैशन शो के मॉडलों की तरह रिहर्सल भी करवाता है। पूरी तरह प्रशिक्षित होने के बाद वह विभिन्न बिज़नेस प्रदर्शनियों में भाग लेती है, पुरस्कार पाती है, सम्मानित होती है। देखते-देखते उसे कई फोटोजेनिक फ़ेस कंपनियों के विज्ञापन के ऑफ़र मिलना शुरू हो जाते हैं। और एक दिन वह मॉडलिंग के शिखर पर पहुँच जाती है। तब उसका स्टेटस किसी सेलिब्रेटी से कम नहीं होता है। मगर मेरा मानना है कि मनुवादी सोच के कारण आज भी देश की आज़ादी के 75 साल पार होने के बाद भी नर-नारी असमानता की जटिल समस्या बनी हुई है। क्या ‘विश्व सुंदरी’ को छोड़कर विश्व की शेष स्त्रियाँ असुंदर हैं? उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के कारण शहरों और क़स्बों में यत्र-तत्र ब्यूटी पार्लर खोलने की होड़ लगी हुई है। 

अपने किराए वाले घर में जाहिदा और रियाज़ के प्रणय केलि प्रसंग को बेनज़ीर दरवाज़े की झिरी से झाँककर देखती है, यानी ‘पीपिंग थ्रू होल’ करती है तो फ्रॉयड के मनोविश्लेषण के अनुरूप Voyeurism से ग्रस्त युवती अपने कपड़े खोलकर फेंक देती है और जाहिदा के सुडौल अंगों से अपने शरीर के अंगों का मिलान करती है। बेनज़ीर के शब्दों में: 

“मेरी नज़र बड़ी देर तक ज़ाहिदा के शरीर पर ऊपर से नीचे तक, बार-बार सफ़र करती रही। बग़ल में ही रियाज़ पर मेरी नज़र बस एक बार ही सफ़र कर पाई। मैं ख़्यालों में खोई रही कि ज़ाहिदा मुझसे कहने भर को ही थोड़ी सी ज़्यादा गोरी है। उसके अंगों से अपने अंगों का मिलान करती हुई मैं बैठ गई। मुझे लगा कि, जैसे वह दोनों भी सोते हुए अपने बिस्तर सहित मेरे कमरे में आ गए हैं। दोनों ही अब भी एकदम पहले ही की तरह लेटे हुए हैं। गर्मी से बचने के लिए अपने सारे कपड़े अब एक बक्से पर फेंके हुए हैं। मन में आते ऐसे तमाम ख़्यालों का ना जाने मुझ पर कैसा असर हुआ कि, मैंने भी अपने एक-एक करके सारे कपड़े निकाल फेंके, कमरे के दूसरे कोने में। मैं ज़ाहिदा से अपने अंग-अंग का मिलान करके, अपने तन की वह ख़ामी मालूम करना चाहती थी, जिसके कारण मुझे उसके जैसा सुख नसीब नहीं था। मैंने रोशनी अपनी तरफ़ करके, शीशे में पहले अपने चेहरे का मिलान किया। अपनी आँखें, नाक, होंठ और अपनी घनी ज़ुल्फ़ों का भी। यह सब मुझे ज़ाहिदा से बीस नहीं पचीस लगीं। गर्दन, छातियों पर नज़र डाली तो मैं देखती ही रह गई। बड़ी देर तक। एकटक। वह मुझे जाहिदा की छातियों से कई-कई गुना ज़्यादा ख़ूबसूरत नज़र आ रही थीं। ज़ाहिदा से ज़्यादा बड़े, ज़्यादा भूरे लट्टू एकदम तने हुए। पूरी छाती उससे भी कहीं ज़्यादा सख़्त, मानो संगमरमर की किसी ख़ूबसूरत इमारत पर अग़ल-बग़ल दो ख़ूबसूरत संगमरमरी गुम्बद हों। अपने संगमरमरी गुम्बदों को देख-देखकर मैं ना जाने कैसे-कैसे ख़्वाब देखने लगी। हद तो यह कि मैं उन्हें छेड़ने भी लगी। इससे ज़्यादा यह कि मैं अजीब से ख़ूबसूरत एहसास से गुज़रने लगी। मेरे ख़ुद के हाथ मुझे अपने ना लगकर ऐसे लगने जैसे कि रियाज़ के हाथ हैं। वह ज़ाहिदा के पास से उठकर मानो मेरे पास आकर बैठ गया है। एकदम मेरे पीछे और मुझे अपनी आग़ोश में समेटे हुए है। उसके हाथों की थिरकन के कारण मैं आहें भर रही हूँ। ज़ाहिदा से भी तेज़। उफ़ इतनी तेज गर्मी कि, मुझे गुम्बदों पर पसीने की मोतियों सी चमकती अनगिनत बूँदें दिखने लगीं। जो एक-एक कर आपस में मिलकर, धागे सी पतली लकीर बन गुम्बदों के बीच से नीचे तक चली गईं। फिर देखते-देखते गोल भँवर सी गहरी झील में उतर गईं। मुझे वह ज़ाहिदा की नदी में पड़ी भँवर सी बड़ी नाभि से भी बड़ी और ख़ूबसूरत लगी। और नीचे गई तो वह लकीर घने अँधेरे वन से गुज़रती एक खोई नदी सी दिखी। वह भी जाहिदा की नदी से कहीं . . . ओह, जो जाहिदा सी ख़ूबसूरत जाँघों के बीच जाने कहाँ तक चली जा रही थी।” (बेनज़ीर, पृष्ठ-32) 

इसी तरह उपन्यास के एक प्रसंग में वह उपन्यासकार से कहती है, “मैं पॉर्न मूवीज़ की बात कर रही हूँ। एक बात यह भी कह दूँ कि, माने या ना माने, जिसके पास मोबाइल होता है, वह कभी न कभी ज़रूर देखता है। जैसे बहनों के जाने के बाद एक दिन अचानक ही खुल गया था, और मैं अचरज में पड़ कर देखती ही रह गई। तभी से जब मन होता था, तब देख लेती थी। ऐसे ही हर कोई किसी न किसी दिन देख लेता है। उसमें सारे के सारे औरत-मर्द ज़ाहिदा रियाज़ वाला ही खेल खेलते दिखते हैं। सब बड़े गंदे-गंदे से दिखते हैं। फिर भी चाह कर भी देखने से हम ख़ुद को रोक नहीं पाते।” (बेनज़ीर, पृष्ठ-60) 

इस उपन्यास में ऐसे बहुत सारे सैक्सुअल पर्वर्सन के प्रसंग आते हैं, मगर शुरू-शुरू में मेरे मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक था कि आज इस युग में भी, कोई स्त्री शायद ही अपनी सैक्सुअल डिज़ाइर या रिलेशनशिप के बारे में खुलकर बताएगी। और ख़ासकर उस स्थिति में तो कभी भी नहीं, जब कोई लेखक उस पर उपन्यास जैसी अपनी कृति लिखने जा रहा हो। यह हो सकता है कि अपने उपन्यास की सामग्री को पाठकों को थोड़ा रसानंद की अनुभूति देने के लिए लेखक ने अपनी तरह से यह प्रयोग किया हो। मगर बाद में जब यह बात ध्यान में आई कि प्रदीप श्रीवास्तव जी सहारा के कम्यूनिकेशन विभाग में काम कर रहे हैं और उनका यह उपन्यास किसी मॉडल की ज़िन्दगी पर आधारित है और जैसे कि उनकी पूर्ववर्ती कहानियों में ‘उसकी आख़री छलाँग’ पढ़ने के बाद यह विश्वास हो गया था कि वे मॉडलों की ज़िन्दगी को बहुत नज़दीक से जानते हैं, यह तभी सम्भव हो सकता है कि या तो उन्होंने अपनी आँखों से मॉडलिंग देखी हो या फिर मॉडलों द्वारा सुनी गई कहानियों हो। यही कारण है कि उनकी क़लम से सदैव यथार्थ लेखन होता हैं। 

उपन्यास में दर्दनाक मोड़ तब आता है कि जब इधर मुन्ना से बग़ैर शादी किए बेनज़ीर प्रेग्नेंट हो जाती है और उधर उसकी अम्मी की मृत्यु हो जाती है। वह उनसे शादी की इजाज़त भी नहीं माँग पाती है। यह दुख उसके मन में सदैव बना रहता है, इस वजह से वह अपना अबॉर्शन करा देती है; मगर एक सच्चे प्रेमी की तरह मुन्ना उसके दुर्दिनों में पूरी तरह साथ निभाता है। वे दोनों लखनऊ छोड़कर काशी चले जाते हैं और वहाँ के महल्ले चेतगंज में किराए का मकान लेकर अपने चिकनकारी और मॉडलिंग से अपना कारोबार शुरू करते हैं। वे दोनों वहाँ शादी कर लेते हैं। प्यार से मुन्ना बेनज़ीर को जूही कहकर पुकारता है, मगर उसे जल्दी ही नज़र लग जाती है। पूर्व में हुए अबॉर्शन, दवाओं से उत्पन्न जटिलताओं के कारण शादी के बाद उसका कोई बच्चा नहीं होता है। बेनज़ीर अपने जीवन के बारे में बताती हैं, 

“न जाने कौन सी बदक़िस्मती आ गई कि, देखते-देखते काफ़ी समय निकल गया। हम ना जाने कितने डॉक्टरों के पास दौड़े-भागे। लेकिन हर जगह से लौटे निराश। सारी जाँचों, रिपोर्टों ने एकदम साफ़ कहा कि, हमारे घर नन्हें-मुन्नों की किलकारियों का संगीत भूल कर भी नहीं गूंजेगा। यानी हमारे सपनों का घर प्राणहीन ही रहेगा। वह ईंट-पत्थर का ढाँचा ही रहेगा। उसमें आत्मा नहीं होगी।” (बेनज़ीर, पृष्ठ-185) 

आज भी देखा जाए तो देश में 20 लाख भ्रूण माँ की कोख में दफ़न होता है, बलात्कार और हिंसा की शिकार अलग से, डायन-प्रथा आज अनेक गाँवों में ज़िन्दा है, उनकी खाल उधेड़ना, उन्हें नंगा करना यहाँ तक कि उनके प्राणों की बलि ले लेना आदि नृशंस घटनाएँ ख़त्म नहीं हुई हैं। अगर प्रबुद्ध स्त्री वर्ग आगे नहीं आएगा तो महिला सशक्तिकरण खोखला नारा रह जाएगा। और ऐसे भी नारी बाहर से कितनी भी सशक्त क्यों नहीं हो, मगर बायोलॉजिकल बच्चे की कमी उसे नि:शक्त बना देती है। यद्यपि इस उपन्यास में बेनज़ीर अनाथाश्रम से किसी बच्चे को गोद लेकर अपने जीवन को किसी भी तरह से मुरझाने नहीं देती है, मगर उसकी कमी सदैव कचोटती रहती है। बेनज़ीर के शब्दों में: 

“जी हाँ, यह सब बनावटी है। हमारे जीवन में कोई ख़ुशी नहीं है, और ना ही हो सकती है। यह सब तो अपने दुःख को छुपाने का एक छद्मावरण है, जिसे हमने बनाया है। हमें हर साँस में दिल को भीतर तक बेध देने वाली यह फाँस चुभती रहती है कि, हमारी कोई बायोलॉजिकल चाइल्ड नहीं है।” 

मॉडलिंग के बिज़नेस से वह कब होटल के बिज़नेस में प्रवेश कर जाती है, उसे पता ही नहीं चलता है। धीरे-धीरे वह महिला उद्यमी इंदिरा नुई, मजूमदार शॉ की तरह अपने भविष्य के सपने देखने लगती है। बेनज़ीर की हर बात को पूरा करने वाला मुन्ना अपनी गोवा यात्रा के दौरान बेनज़ीर के वहाँ समुद्र के किनारे बसने के ख़्वाब को पूरा करने के लिए गोवा शिफ़्ट हो जाते हैं और उनका एक ही सपना आँखों में रहता है, देश के हर शहर में होटल खोलने का। इस तरह उपन्यासकार ने बेनज़ीर को साहसी, अपने लक्ष्य के प्रति सदैव जागरूक और दूरदृष्टि वाली महिला के रूप में दर्शाया है। 

“चौंक क्यों रही हो, यदि इस नेकेड फ़ैशन शो के मॉडलों की तरह, हम अभी रिहर्सल कर लेंगे तो कल के फ़ैशन शो में ड्रेस पहनकर रैंप पर चलने में हम दोनों को कोई हिचक नहीं होगी। हम दोनों सबसे ज़्यादा कॉन्फिडेंस के साथ कैटवॉक कंप्लीट करेंगे। वहाँ हमारी सफलता हमारे लिए रास्ते खोल देगी। हम लोगों के पास इतने पैसे तो नहीं हैं कि, हम अपने प्रोडक्ट के लिए मॉडल हायर कर सकें।” (बेनज़ीर, पृष्ठ-141) 

बदलते वैश्विक परिदृश्यों के कारण भारत में आनंदीबेन पटेल, सुचेता कृपलानी, नंदिनी सतपत्थी, शशिकला काकोडकर, सैयदा अनवरा तैमुर, जयललिता, जानकी रामचंद्रन, मायावती, राजिंदर कौर भट्ठल, राबड़ी देवी, सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, उमा भारती, वसुंधरा राजे सिंधिया, ममता बनर्जी आदि महिला मुख्यमंत्री और कॉर्पोरेट जगत में नैना लाल किदवई, रंजना कुमार, ललिता गुप्ता, नेहा कांत, रोशनी सनाह जायसवाल, मेधा सिंह, विनीता सिंह, इंद्रा नूई, किरण मजूमदार, चंदा कोचर, इंदु जैन जैसे अनेक नाम उभरकर सामने आए, मगर असंगठित क्षेत्रों में महिलाओं की क्या हालत है, किसी से छुपी हुई नहीं है। और मुस्लिम परिवारों के बारे में तो कहना ही क्या! आज भी उन परिवारों में नारी शिक्षा उपेक्षित है। इसका एक उदाहरण इस उपन्यास में देखने को मिलता है। 

“अंगूठा लगाते हुए मुझे इतनी शर्मिंदगी हुई कि कह नहीं सकती। मन हुआ कि कहाँ छिप जाऊँ कि मुन्ना देख ना सकें। उस कुछ ही वक़्त में अपने वालिदैन पर इतनी ग़ुस्सा आई कि मैं बता नहीं सकती। किसी भयानक तूफ़ान सी यह बातें दिमाग़ में घूम गईं कि, अपने बच्चों को क्या इतना भी नहीं पढ़ा सकते थे कि वह अपना नाम लिख सकें। उन्हें दुनिया के सामने किसी अँधेरी दुनिया से आए जानवरों की तरह ना रहना पड़े। हमारा क़ुसूर क्या था जो हमें जाहिल बनाकर रखा? इसलिए कि हम लड़कियाँ थीं। इसलिए पढ़-लिख नहीं सकती थीं। जाहिल बनी रहें, जाहिल ही होकर जियें, जाहिलियत ही लिए मर जाएँ। क्या हमें कोई हक़ ही नहीं था कि हम पढ़-लिख सकते। इंसान बन सकते। कितना मन होता था कि, महल्ले की बाक़ी लड़कियों की तरह हम भी स्कूल जाएँ, पढ़ें-लिखें। मगर अब्बू एक ही रट लगाए रहते थे कि, ‘नहीं लड़कियों का स्कूल जाना, लिखना-पढ़ना किसी भी सूरत में जायज़ नहीं है। हराम है’।” (बेनज़ीर, पृष्ठ-55) 

आज भी हमारे समाज में पुरुषों का औरतों के प्रति नज़रिया अच्छा नहीं है, तभी तो आए दिन बलात्कार जैसे दुष्कर्म होते रहते हैं। नहीं मानने पर चेहरे पर एसिड फेंकना या केरोसिन डालकर जला देना आमबात होती जा रही है। जहाँ ‘मनुस्मृति’ ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर स्त्रियों के जीवन को बद से बदतर बना दिया, इसी तरह नई जीवनशैली ने स्त्री को आधा यथार्थ, आधा स्वप्न; आधा देवी, आधी दानवी; आधी माँ, आधी वेश्या; आधी रूढ़िवादी तो आधी उत्तर आधुनिक घोषित करती है। आज भी पुरुष समाज बाँझ और केवल लड़कियाँ पैदा करने वाली स्त्रियों को डायन कहकर पुकारता है, जो हमारे समाज के लिए कलंक हैं। असमानुपात लैंगिकता के कारण समाज में आने वाले ख़तरों के प्रति सचेत किया है कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार समाज को विनाश के गर्त में धकेल देगा। यद्यपि आधुनिक पीढ़ी का कॉमिक्स, सिनेमाई पत्र-पत्रिकाओं में अधिक झुकाव है, मगर अब तो ई-ज़माना है, फ़ेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, व्हाट्सएप, कू पर वे लोग हमेशा लगे रहते हैं। शिक्षा से वंचित मुस्लिम नारियों की हालत देखकर उपन्यासकार का मन द्रवित हो उठता है और संस्कारवश उसके मन में संस्कृत के श्लोक गूँजने लगते हैं, “माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पाठित:/ न शोभते सभामध्ये हँसमध्ये बको यथा:।” कहते हैं औरतें शृंगार के बिना सूनी सी लगती है, जबकि कई मुस्लिम परिवारों में शृंगार के साजोसामान भी नसीब नहीं होते हैं। जिसका ज्वलंत उदाहरण इस उपन्यास में बेनज़ीर का यह कथन है: 

“मगर हमारे घर की बदक़िस्मती रही कि, उनकी इस बात पर उन्हें अब्बू से गंदी-गंदी गालियाँ सुनने को मिलीं। इसके बाद वह जब-तक रहीं शृंगार के नाम पर तेल-कंधी, साबुन से भी कतरातीं। बालों में महीनों-महीनों तक तेल नहीं डालतीं। अजीब से उलझे-उलझे बाल लिए रहती थीं। जुएँ पड़ जाती थीं। एक बार तो इतना खीझ गईं, इतना आज़िज़ आ गईं कि, बालों में मिट्टी का तेल (केरोसिन आयल) लगा दिया। पूरा सिर मिट्टी के तेल से तर कर दिया। मगर जब उसकी लगातार बदबू से उन्हें उबकाई आने लगी, तो मेरी अम्मी के बहुत कहने पर कपड़े वाले तेज़ साबुन से ख़ूब धो डाला। इससे उनके लंबे-लंबे ख़ूबसूरत बाल बुरी तरह उलझ गए। ख़राब हो गए। ख़ूब टूटने लगे, कुछ ही महीने में उनके बाल आधे रह गए।”  (बेनज़ीर, पृष्ठ-180) 

इस उपन्यास में और अनेक पहेलू हैं जैसे एक तरफ़ विदेशी महिलाओं के बनारस की आध्यात्मिक संस्कृति के आत्मसात करने के उदाहरण मिलते हैं तो दूसरी तरफ़ बनारसी बाबुओं से शादी के भी। जैसे विदेशी लूसी दिव्यप्रभा बन जाती हैं। धोती पहनती है, तिलक लगाती है, अंग्रेज़ी, संस्कृत और हिन्दी भाषा फर्राटेदार बोलती हैं। उसी तरह कोरियन लड़की मिजांग चाय की होटल वाले पुनीतम से शादी कर लेती है और उसका होटल चलाने लगती है। बिंदी लगाती है; जींस, टी-शर्ट पहनती है। 

भारतीय संस्कृति के पुरातन से अनुराग रखने वाले उपन्यासकार प्रदीप जी बनारस के मिथकीय मोह से अपने आपको दूर नहीं रख सके हैं, तभी तो ग्रंथों और आस्था के नाम पर यह कहना नहीं चूकते कि बनारस भगवान शंकर के त्रिशूल की नोक पर विद्यमान है। और वहाँ के दर्शनीय स्थलों जैसे विश्वनाथ मंदिर, दशाश्वमेघ घाट, गंगा आरती, मणिकर्णिका घाट, अपनी नींव पर क़रीब नौ डिग्री एक तरफ़ झुके रतनेश्वर महादेव मंदिर-जिसकी तुलना इटली की पीसा की झुकी मीनार से करते हैं, आदि की भव्यता का बख़ूबी वर्णन करते हैं। जिसे संतुलित करने के लिए धर्म निरपेक्षता का भी उन्हें विशेष ख़्याल रहता है, इसलिए मुस्लिम वर्ग की आस्था का भी ध्यान रखते हैं, यह कहते हुए कि मोहम्मद पैगंबर को अल्लाह के संदेश प्राप्त होते थे। यही नहीं, अपने अगाध साहित्यिक अनुराग के कारण प्रदीप जी अपने उपन्यास में खुशवंत सिंह की आत्मकथा ‘सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत’, वरेण्य साहित्यिक हस्तियों जैसे फ़िराक़ गोरखपुरी, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऐन हैदर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘लीक पर वे चलें’ कविता की पंक्तियाँ को भी उद्धृत किया है। 

अंत में, प्रदीप श्रीवास्तव जी का यह उपन्यास अपने आप में कई विमर्श समेटे हुए हैं। धर्म, जाति और संप्रदाय से ऊर्ध्व नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, नारी-शिक्षा, नारी उद्यमिता और उनके स्वावलंबन के लिए महिलाओं के संघर्ष में पुरुषों की सहायता जैसे कई मुद्दों को उन्होंने रोचक साक्षात्कार शैली में प्रस्तुत किया है, जिसे पढ़कर न केवल सहृदय महिला ही प्रेरित होगी, बल्कि पुरुष वर्ग भी प्रभावित होकर महिलाओं के ‘पोटेंशियल’ को ध्यान में रखते हुए उन्हें अपने जीवन में आगे बढ़ने के सारे मार्ग सुलभ करवाएँगें, ताकि अपने परिवार के साथ-साथ देश के विकास में दोनों अहम भूमिका अदा कर सकें। 

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