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डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण 

समीक्षित पुस्तक: प्रिय ओलिव (उपन्यास)
लेखक: डॉ. आर.डी. सैनी
प्रकाशक:  बुक विलेज, भारत 
संस्करण: 1 जनवरी 2018
ISBN-10 ‏: ‎ 8193705610
मूल्य: ₹100/-

एक दशक पूर्व प्रख्यात हिंदी उपन्यासकार गिरीश पंकज के बहुत चर्चित उपन्यास ‘गाय की आत्मकथा’ की भूमिका लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिसमें मैंने अपने कुछ व्यक्तिगत संस्मरण लिखे थे, जिन्हें प्रसंगवश यहाँ उद्धृत करना मुझे उचित लग रहा है: “एक दृश्य मुझे आज भी विचलित करता है कि जब हमारी गाय, जिसे माँ गोमती कहकर पुकारती थी, अचानक एक ऐसी बीमारी की चपेट में आई कि वह अपने खूँटे से उठ नहीं पा रही थी और बैठी-बैठी वह अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रही थी। माँ उस गाय को नहलाती, धुलाती गरम पानी में कपड़ा भिगो कर उसके गल-कंबल का सेंक करती, मगर गोमती की आँखों से झर-झर टपकते आँसू माँ के हृदय को विचलित कर देते थे। वह अन्यमनस्क हो जाती थी और एक विचित्र-सी परेशानी दुख या यंत्रणा के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई स्पष्ट दिखाई देने लगते थे। मेरे लिए वह घटना कितनी हृदय-विदारक थी। जब गाय ने अपना शरीर त्याग दिया तो माँ फूट-फूटकर रोई थी और तीन-चार दिन तक उसने खाना भी नहीं खाया था। वह तो इतनी शोक-विह्वल हो चुकी थी मानो घर के किसी आत्मीय सदस्य की मृत्यु हो गई हो। माँ, भले ही, अनपढ़ थी, मगर उसकी संवेदनाएँ, भावनाएँ और जानवरों के प्रति भी प्रेम हमारे लिए अनुकरणीय था।” 

‘गाय की आत्म-कथा’ उपन्यास पढ़ने के लगभग एक दशक बाद राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्व निदेशक, राजस्थान लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं सदस्य, देश के प्रमुख शिक्षाविद-साहित्यकार डॉ. आर.डी. सैनी का जैवमैत्री पर आधारित अद्यतन उपन्यास ‘प्रिय ऑलिव’ पढ़ने का अवसर मिला। हमारे लिए गर्व की बात है कि इस नवीन प्रयोगात्मक उपन्यास को विषय-वस्तु की विविधता के कारण राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च मीरा पुरस्कार से भी नवाज़ा गया है। 

बस, फ़र्क़ इतना ही था कि यह गाय पर आधारित न होकर घरेलू पालतू कुत्ते की सेवा की दुर्लभ सच्ची कहानी है। यह दूसरी बात है कि इस उपन्यास के शुरूआत में लेखक अपने घर की दो गायों की आँखोंदेखी मौत का वर्णन करते हैं। पहली गाय छोणी की करंट वाले बिजली के खंभे में चिपकने से तो दूसरी गाय छोणी की प्राकृतिक मौत। घर में पशु-पालन के कारण जानवरों से प्रेम करने का पहला अध्याय वे अपने माँ से सीखते हैं, इस वजह से यह कृति उन्होंने अपनी माँ को समर्पित की हैं। 

आज विद्रूपताओं और विसंगतियों से भरे संवेदनहीन समय में न कोई कविता काम कर रही है और न ही कोई उपन्यास, क्योंकि हमारे जीवन का मूल ढाँचा टूट गया हैं। संयुक्त परिवार बिखर गए हैं। आज आदमी से मन की बात तक करने वाला कोई नहीं है। संवादहीनता की स्थिति घर-घर में देखने की मिल रही है। ऐसी अवस्था में कम से कम जानवरों को पालतू बनाकर अपने घर में रखकर अपनी निराशा, हताशा, उदासीनता और अवसाद की स्थिति से उबर सकते हैं। मगर जब वे घर में आदी हो जाते हैं तो उनके साथ गली के जानवरों की तरह व्यवहार करना ठीक नहीं है। घर में पालतू पशुओं के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसे कि वे हमारे घर के सदस्य हो। ‘प्रिय ओलिव’ में लेखक ने ऐसे ही अपने विचार प्रस्तुत किए हैं:

“जहाँ तक मेरा सवाल है तो वह फेमिली मेम्बर बन चुका था। चूँकि उसके पास ज़ुबान नहीं थी इसलिए दूसरे मेम्बर से कहीं ज़्यादा हमदर्दी पाने लगा था। मेरे दिल उसने अपनी ख़ास जगह बना ली थी क्योंकि वह मुहब्बत लूटना और लुटाना जानता था।” (पृष्ठ-38, प्रिय ओलिव) 
 
यह उपन्यास महाभारत के स्वर्ग आरोहण पर्व के उदाहरण से शुरू होता है, जिसमें पांडवों के साथ एक कुत्ता भी सशरीर स्वर्ग जा रहा होता है। इस उदाहरण के माध्यम से लेखक हमारे आदि ग्रंथों में कुत्ते की महिमा का अन्वेषण करते हैं। इस उपन्यास के मुख्य-पात्र लेखक स्वयं है, जो राजस्थान सरकार में उच्च अधिकारी है, जयपुर में रह रहे उनके परिवार में पत्नी इंदिरा रानी, सात वर्षीय पुत्र ऋत्विक और एक पोमेरेनियन कुत्तिया रूबी है। रूबी बीमार होने के कारण लेखक की अनुपस्थिति में, उनके पटना प्रवास के दौरान, किसी फ़ार्म हाउस में छोड़ दिया जाता है, जिससे उन्हें इतना दुख पहुँचता है कि बारह साल तक और कोई पालतू कुत्ता अपने घर में नहीं रखते हैं। जब उनका बेटा उन्नीस साल का होता है तो वह एक दूसरे कुत्ते को ख़रीदना चाहता है, लेकिन लेखक उसमें कोई रुचि नहीं दर्शाता है। ज़्यादा दबाव के कारण वह अपनी मन की इच्छा को दबाते हुए उसे ख़रीदने की अनुमति दे देता है। 

इस कृति की लेखन-शैली आलोचकों और साहित्यकारों के लिए चर्चा का विषय बनी हुई है कि इस रचना को उपन्यास या रोज़नामचा या डायरी लेखन में से किस साहित्यिक विधा में लिया जाए? पाठक के तौर पर मुझे इस कृति में हिन्दी उपन्यास लेखन की बदलती शैली नज़र आ रही है। वैसी शैली 1899 में प्रकाशित जोसेफ कॉनराड के बहुचर्चित अंग्रेज़ी उपन्यास ‘हार्ट ऑफ़ डार्कनेस’ में देखने को मिलती है, जिसमें मुख्य पात्र मार्लो एक हाथीदांत व्यापारी कुर्तज़ की तलाश में अफ़्रीका की कांगो नदी में घूमते-घूमते लापता हो जाता है। जिस तरह जोसेफ कॉनराड उन घटनाओं का तारीख़वार वर्णन कांगो नदी के नक़्शे सहित प्रस्तुत करते हैं, ठीक उसी तरह डॉ. आर.डी. सैनी भी अपने प्रिय श्वान ऑलिव के इलाज का वर्णन चिकित्सक की पर्चियों समेत तारीख़वार अपनी इस रचना में करते हैं, इसलिए इसे उपन्यास की श्रेणी में रखना तर्कसंगत है। पाठक के मन में एक सवाल यह अवश्य आता है कि अपने बीमार पालतू कुत्ते की सेवा-सुश्रुषा को उपन्यास के रूप में लिखने के पीछे लेखक का क्या उद्देश्य रहा होगा? क्या उपन्यास के पुराने सारे प्रासंगिक विषय ख़त्म हो गए? या फिर नए विषय की उन्हें तलाश थी? मेरा मानना है कि सामाजिक, पारिवारिक और मानवीय रिश्तों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अब वह समय आ गया है, जब मनुष्य को विश्व-शांति की अखंडता और अक्षुण्णता के लिए अपनी चेतना और संवेदना का विस्तार करना है, अपने आस-पास के परिवेश और पशु-पक्षियों से प्रेम करते हुए—उन्हें भी इस ग्रह पर संवेदनशील जीवन जीने का अधिकार देना है। बुद्धधर्म के अनुसार हमें ‘जियो और जीने दो’ के दर्शन पर अमल करना होगा। इस पृथ्वी पर प्रत्येक पशु-पक्षी के रहने का उतना ही हक़ है, जितना हमारे जैसे मनुष्यों का। कितनी बड़ी विडंबना है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम मनुष्यों ने पृथ्वी के अधिकांश जंगल काटकर उनके घर छीन लिए एवं उन्हें मरने और विलुप्त होने के लिए मजबूर कर दिया। यही नहीं, जंगली जानवरों के मानव बस्तियों पर आक्रमण के डर से उन्हें बेमौत मार डाला गया। कुत्तों को गली-नुक्कड़ों में आवारा छोड़ दिया गया। संवेदनशील मनुष्यों ने इन जानवरों से दोस्ती की और उन्हें पालतू बनाकर अपने साथ रखा। डेनमार्क जैसे देश में तो प्रत्येक नागरिक इस मामले में इतने जागरूक है कि वह एक-एक कुत्ते को पालतू बनाकर अपने घर पर रखते हैं। इस वजह से वहाँ की सड़कों पर कुत्तों के अचानक धावा बोलने वाले हादसे नहीं होते और न ही पागल कुत्तों द्वारा मनुष्यों को काटने वाली घटना घटित होती है। अगर हमारे देश के लोग भी इस दिशा में सचेतन हो जाए तो कुत्ते भी हमारी सभ्यता के अभिन्न अंग हो जाएँगे। उनके भी ‘प्रिय ओलिव’ जैसे नाम रखे जाएँगे। भले ही, वे बोल न पाए, मगर हमारी भाषा-भावना समझेंगे, तदनुरूप अपनी प्रतिक्रिया दर्शाएँगे। 

यहीं से शुरू होती है—‘प्रिय ऑलिव’ की कहानी। ग़लत ट्रीटमेंट के कारण ओलिव बीमार हो जाता है तो वह मालिक का प्यार पाने के उनके पास आता है, मगर बदले में मिलता है तिरस्कार। जिसका पछतावा वे तुरंत अनुभव भी कर लेते हैं। लेखक के शब्दों में:

“उन्हीं दिनों की बात है। मैं सुबह-सुबह बरामदे में बैठा चाय पी रह था कि नन्हा-सा ओलिव आया और मेरे पाँवों में बैठ गया। उसके साथ-साथ आयीं भिनभिनाती मक्खियाँ और उसके खुले घाव . . .

“मुझे बहुत बुरा लगा। चाय का कप लेकर मैं उठ खड़ा हुआ और बग़ल की कुर्सी पर अख़बार देख रहे ऋत्विक को सुनाकर कहा, ‘घर के कुत्ताघर बनाने से अच्छा है कि इसको जंगल में छोड़ आओ।’ मैं उठा और बेडरूम में आ गया। बेडरूम में आकर मुझे पछतावा हुआ कि इस तरह के बात कहने से मुझे बचना चाहिए था।” (पृष्ठ-32, प्रिय ओलिव) 

ग़लत उपचार के कारण ओलिव का लिवर विषाक्त हो जाता है और उसका नर्वस सिस्टम काम करना बंद कर देता हैं। उसे टाक्सीसिटी पैरालिसिस हो जाता है। दो महीने वह जीवन और मौत के संघर्ष से गुज़रता है। उसकी मौत को नज़दीक आती देखकर लेखक अपने भावनात्मक आवेग को नहीं रोक पाता हैं और मन-ही-मन सोचने लगता है:

“मैं भी कब चाहता था कि हमारा साथ टूटे! गाहे-बगाहे मैं उससे कहता रहता था, ‘माई डियर! साथ-साथ न सह, हम आगे-पीछे दुनिया से जायेंगे।’

“मुझे बताया गया था कि डॉग की उम्र दस-बारह वर्ष की होती है। इधर मैं पचपन का हो चुका हूँ। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा दस वर्ष और जो लूँगा। इस गणित से हमारी रवानगी आगे-पीछे होनी चाहिए।” (पृष्ठ-36, प्रिय ओलिव) 

यह उपन्यास चिकित्सीय प्रणाली, प्रबंधन और शिक्षा पर कई सवाल खड़े करता है कि एक मर्डर की सज़ा होती है किन्तु ग़लत इलाज से मरीज़ को मरने वाला डॉक्टर मज़े से घूमता हैं। यहाँ तक कि उसकी सी.आर. भी शायद ख़राब होती होगी। उस पर लेखक का आक्रोश निम्न पंक्तियों में देखने को साफ़ मिलता हैं:

“क्या बात है कि एक चिकित्सक को ग़लत डॉयग्नोसिस करने की छूट है किन्तु इसकी सज़ा उस चिकित्सक के बजाय बेचारे मरीज़ और उसके परिजन को भुगतानी पड़ती है? क्यों उस चिकित्सक की ग़लती को ढकने की कोशिश की जाती है?” (पृष्ठ-61, प्रिय ओलिव) 

इसी तरह:

“जब से शिक्षा प्राइवेट हाथों में जाने लगी है, डोनेशन देकर एडमिशन और डिग्रियाँ हासिल कर वालों के मज़े हो गये हैं। ज़ाहिर है जो दस लाख में डिग्री ख़रीद सकता है, वह दस लाख की शानदार दुकान भी खोल लेगा। आगे वह जो गुल खिलायेगा, उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।” (पृष्ठ-62, प्रिय ओलिव) 

लेखक ओलिव को वेटेरनरी हॉस्पिटल ले जाते हैं। वेटरनरी डॉक्टर प्रोफ़ेसर मल्होत्रा, डॉक्टर राजेश और डॉक्टर अरविंद से सलाह लेते हैं और ओलिव को उनके परामर्शानुसार दवाइयाँ देते हैं जैसे रेंटेक क्रोमोफिन सिरप, विरोल सिरप, डोमटॉप डीपी, बेरेनिल का इंजेक्शन आदि। यहाँ तक कि उसे डिहाईड्रेशन होने के कारण इलेक्ट्रोल ड्रिप भी चढ़ाई जाती है। लेखक इतने संवेदनशील इंसान हैं कि जब वेटेरनरी हॉस्पिटल में एक अन्य आदमी अपनी पालतू काली कुत्तिया को दिखाने लाता है और उसे स्ट्रेचर पर ऐसे फेंक देता है, जैसे कोई अनाज की बोरी हो, यह देखकर लेखक को बहुत बुरा लगता है। उनकी खीज में उनकी पशुओं के प्रति संवेदना साफ़ झलकती हैं:

“सिरिंज बाहर निकालकर वह बोतल में गये वाटर को हिलाते हुए बोला, ‘इसमें पूछना क्या है? कुत्ते को उठाओ और उठाकर स्टैंड पर पटक दो।’

‘पटक दो . . .?’

“मुझे लगा कि कम्पाउंडर महोदय की नज़र में मैं एक पलदार हूँ और ओलिव एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पटकी जाने वाली अनाज की बोरी।” (पृष्ठ-24, प्रिय ओलिव) 

किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी भी देश को सही अर्थों में जानना है तो यह देखना चाहिए कि वहाँ के नागरिकों का जानवरों के साथ कैसा व्यवहार है! अंत में, ओलिव के ठीक हो जाने पर पाठकों को संदेश देते हैं:

“मैंने यह भी महसूस किया है कि वह मेरे परिवार की फ़ीलिंग्स का केन्द्र बन चुका है। वह हमको ज़्यादा से ज़्यादा एक्टिव भी रखता है। एक परिवारों को चाहिए कि वे पैट्स पालें। वे महसूस करेंगे कि इससे परिवार में अपनापा बढ़ता है।” (पृष्ठ-93, प्रिय ओलिव) 

इस तरह ‘प्रिय ओलिव’ न केवल भाषा-शैली और विषय-वस्तु के दृष्टिकोण से एक नवीन प्रयोगात्मक उपन्यास है, बल्कि हमारे धर्मग्रंथ ‘गीता’ के अनुरूप मानवीय चेतना को सभी प्राणियों में देखने की पहल के साथ-साथ देश के मेडिकल एजुकेशन का निजी हाथों में जाने पर रोष व्यक्त किया है। 

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