अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
आलेख | साहित्यिक आलेख दिनेश कुमार माली1 Sep 2024 (अंक: 260, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ: इला प्रसाद का अद्यतन कहानी-संग्रह ‘जीवन कहाँ है’
सुप्रसिद्ध कहानीकार, कवयित्री और उपन्यासकार इला प्रसाद का नाम हिन्दी साहित्यिक जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। भले ही, तन से वे अमेरिका में रहती ज़रूर हैं, मगर अपने मन और आत्मा से तो बसती हैं भारत में। अमेरिका में खोजती हैं अपना जिया हुआ भारत, और पारस्परिक तुलना करती हैं दोनों देशों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक परिवेशों की, ताकि वसुधैव कुटुम्बकं के दर्शन से मानव-जीवन को सही दिशा दी जा सके। अमेरिका जैसे विदेश की कर्मभूमि पर अपने जन्मभूमि भारत के खट्टे-मीठे अनुभव याद आ ही जाते हैं। लगभग दो दशकों से उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व और समग्र कृतित्व से लगभग परिचित हूँ। मैं उन्हें मेरे प्रथम साहित्यिक गुरु के रूप में देखता हूँ, जिनके माध्यम से मुझे उनके पिताजी राँची यूनिवर्सिटी के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर दिनेश्वर प्रसाद जी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। जिन्होंने मुझे हिंदी साहित्य के अनुवाद और आलोचना के क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। उनका एक मंत्र मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, “सहज मिले सो अमृत है।” यह मंत्र आज तक मेरा मार्गदर्शन कर रहा है।
इला प्रसाद जी का कहानी-संग्रह ‘उस स्त्री का नाम’, उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी-सी’, संपादित कहानी-संग्रह ‘कहानियाँ अमेरिका से’, विश्व हिंदी न्यास की तरफ़ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘हिंदी जगत’ में उनकी कहानियाँ-कविताएँ, वेब-पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’, हिंदी चेतना के सह-संपादक के तौर पर प्रकाशित फ़ादर कामिल बुल्के विशेषांक आदि पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। जिसके आधार पर यह सहजता से कहा जा सकता है कि उनकी अधिकांश कहानियाँ यथार्थ धरातल की पृष्ठभूमि से उपजी अंतर्वस्तु अपने भीतर समेटे हुए होती है। उनकी कहानियों का कोई-न-कोई सामाजिक उद्देश्य अवश्य होता है।
उनके अद्यतन कहानी-संग्रह ‘जीवन कहाँ है’ में चौदह कहानियाँ संकलित हैं, जो श्रीसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली से इसी साल यानी 2024 में प्रकाशित हुआ है। सभी के कथानक एक-दूसरे से पूरी तरह अलग है। सारी कहानियाँ सोद्देश्यपरक है। साथ ही साथ, समकालीन वैश्विक समाज की विद्रूपताओं की टोह लेती हुई नज़र आती हैं। इस कहानी-संग्रह के प्राक्कथन में इला प्रसाद लिखती हैं कि जब वह अमेरिका गईं तो उसके भीतर कहानी-कविता लिखने का तीव्रतम आवेग था, मगर धीरे-धीरे समय के साथ वह आवेग और लेखन की गति दोनों कम होती चली गई और अब तभी लिखती हैं, जब उन्हें यह लगता है कि लिखना नितांत आवश्यक है, इन घटनाओं से अनभिज्ञ पाठकों को रू-ब-रू कराने के लिए, जिससे वह अपना लेखकीय दायित्व का सचेतन निर्वहन समझती है।
आज भी हमारे भारतीयों के मन में अमेरिका के सर्वोच्च भौतिक विकास को देखकर वहाँ के जीवन-शैली के प्रति एक मोहक छवि बसी हुई है। दीर्घ अवधि से अमेरिका में प्रवास करने के कारण लेखिका अपनी सूक्ष्म-निरीक्षण शक्ति और गहन संवेदनशीलता के कारण अमेरिकी समाज की गतिविधियों में लिप्त मनुष्य मन की अथाह गहराइयों को नापने में सफल सिद्ध होती हैं। कई घटनाओं ने उन्हें भीतर से तोड़ डाला है तो कई घटनाओं ने उन्हें प्रफुल्लित भी किया है। ये घटनाएँ उनके मानस पटल पर अंकित होती चली गईं और धीरे-धीरे कहानियों के रूप में परिणत होती चली गईं। जीवन है तो विसंगतियाँ हैं, विद्रूपताएँ हैं। और यूँ भी देखें तो जीवन है कहाँ? क्या अमेरिका में? या भारत में? या दुनिया में और कहीं पर? या जीवन कहीं है ही नहीं? पहले से ही जीवन-मूल्यों से हम बहुत दूर जा चुके हैं और शायद वहाँ से फिर लौटकर आना अब सम्भव नहीं हैं।
उनके इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘जीवन कहाँ है’ ओड़िया आधुनिक कहानियों के किम्वदंती पुरुष सुरेन्द्र मोहंती (1922-1990) की कहानी ‘गुलमोहर’ की याद दिलाती है। ‘गुलमोहर’ कहानी में मुख्य पात्र किसी अख़बार का एडिटर हैं, जो रात को अपने कार्यालय काम करते-करते क्लांत होकर अपने ऑफ़िस के पास गुलमोहर पेड़ पर चढ़ता है, जीवन के उबाऊपन और नीरसता को दूर करने के लिए। वह वर्तमान क्षण को जीना चाहता है, मगर वह भी उसके नसीब में नहीं होता है। रात में पेड़ पर चढ़ा देखकर एक सुरक्षाकर्मी उसे सीटी बजाकर पेड़ से नीचे उतार देता है। इस कहानी की तरह अस्तित्ववाद की झलक पाने की घटना हर मनुष्य के जीवन में कभी-न-कभी घटित होती है, वैसे ही इला प्रसाद की ‘जीवन कहाँ है’ कहानी का अंत ‘जीवन वहाँ है’ वाक्यांश के साथ होता है। ‘कहाँ’ से ‘वहाँ’ तक के सफ़र की इस कहानी में जीवन की खोज, प्राप्ति-अप्राप्ति, उद्देश्य-निरुद्देश्य, सार्थकता-निरर्थकता जैसे अनेक अंतर्द्वंद्व उभर कर सामने आते हैं। इस कहानी में लेखिका की सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि उन्हें खोजने का प्रयास करती है, अपने सामने वाले अपार्टमेंट में रहने वाली गर्भवती स्त्री की जीवनचर्या की टोह लेते हुए। जो बालकनी में आकर बार-बार सिगरेट पीकर न केवल अपने जीवन को, बल्कि उसकी कोख में पल रहे नवजात शिशु के जीवन धुएँ में उड़ाते हुए नज़र आती है। एक तरफ़ जिसे देखकर मोलिना-अलेक्स दुखी हो जाते हैं, दूसरी तरफ़ बीच वाले माले में रहने वाली ब्लैक निग्रो महिला की धमकियों से भी वे परेशान हो जाते हैं। कभी बाथरूम में पानी गिरने की शिकायत तो कभी उनके अपने रूम में इधर-उधर चलने से उसकी नींद नहीं आने की। मेट्रोपॉलिटन सिटी में ‘अपार्टमेंट कल्चर’ में रहने वाले लोगों की निजी ज़िन्दगी अपने ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ रहने वालों की गतिविधियों से बुरी तरह प्रभावित होती है। कोई अपने घर में पानी का नल खुला छोड़ देता है, तो कोई अपने मकान में ज़ोर-ज़ोर से संगीत सुन रहा होता है। किसी के घर से छोटे बच्चों के रोने की आवाज़ सुनाई देती है तो कोई अपनी बालकनी में धुएँ के छल्ले उड़ाता नज़र आता है। कई परिवार ऐसे भी होते हैं, जिसमें माँ-बहन-बेटी सभी मिलकर सिगरेट-शराब का सेवन करती हैं। अपार्टमेंट के छोटे-छोटे घरों में न केवल सामान भरा पड़ा होता है, बल्कि लोग लिविंग रूम को बेडरूम बना देते हैं। ऐसा लगता है, जैसे रेलवे स्टेशन या सड़क के किनारे ग़रीब लोग ज़मीन पर दरी बिछाकर सटकर सो रहे हो। कहने को भले ही अमेरिका है, जहाँ भौतिकता का प्राचुर्य हैं, विलासिता के हज़ारों सामान उपलब्ध हैं, मगर क्या उस अपार्टमेंट कल्चर में कोई जीवन है? दूसरे शब्दों में, दूर के ढोल सुहाने होते हैं। जहाँ हम भारत में ग़रीबी की पड़ताल करते हैं और हमारी जीवन-शैली को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, वहाँ अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी जीवन कहाँ है? वहाँ भी तो एक प्रकार से पूरी तरह से खोखलापन ही तो है। मोलीना, अलेक्स, एंजेला, एलिसा सभी की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं, जो अखिल विश्व के मानवीय समस्याओं का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ गाँधी का यह कथन अपने आप ही याद आ जाता है कि पृथ्वी हर किसी की आवश्यकताओं को तो पूरी कर सकती है, मगर लालच को नहीं। उन्होंने कहा था कि लंदन जैसे छोटे से टापू के लोगों के मन में जब लोभ की प्रवृत्ति जागी तो उन्होंने अपनी लालच-पूर्ति की अंधी दौड़ में पूरे विश्व को ग़ुलाम बना दिया। अगर भारत जैसे अधिक आबादी वाले देश के लोगों में यह प्रवृत्ति जाग जाती तो पूरे विश्व की संपदा को टिड्डी दल की तरह खाकर ख़त्म कर देते और आने वाली पीढ़ी के लिए बचा रह जाता ठूँठनुमा अंधकारमय भविष्य। ‘जीवन कहाँ है’ कहानी इसी सत्यता को उजागर करती है। जिसमें भौतिकता और व्यसन की आड़ में सिगरेट पीती गर्भवती महिला अपनी आने वाले संतान के प्रति पूरी तरह निष्ठुर क्यों है? उसे अपने बच्चे से कोई लाग-लगाव क्यों नहीं है? उसके जीवन में प्रेम की छटाँक-मात्रा भी क्यों नहीं बची हुई है? इन्हीं प्रश्नों का वैश्विक उत्तर तलाशती है इला प्रसाद जी की यह कहानी।
‘कैक्टस के फूल’ समलैंगिक संबंधों पर आधारित कहानी है, जिसमें एक बाप अपने बेटे को कई साल तक हवस का शिकार बनाता हैं। एक तरफ़ यह कहानी नंदनी साहू की अंग्रेज़ी कहानी ‘शैडो ऑफ़ द शैडो’ (छाया-प्रतिच्छाया) की याद दिलाती है, जो कॉलेज में पढ़ने वाली दो लड़कियों के बीच समलैंगिक संबंधों पर आधारित है और साथ-ही-साथ उसमें ऐसे संबंधों के पैदा होने वाले के कारणों का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है। दूसरी तरफ़ यह कहानी मुझे फ़्लैश-बैक में प्रख्यात ओड़िया लेखक अखिल मोहन पटनायक की कहानी ‘गूलर के फूल’ की तरफ़ भी लेकर जाती है। जिस तरह गूलर के पेड़ में कभी फूल नहीं लगते हैं, उसी तरह कैक्टसों की अधिकांश प्रजातियों में भी फूल नहीं आते हैं। केवल काँटे ही काँटे होते हैं। इन दोनों कहानियों में अंतर केवल इतना ही है कि ‘गूलर के फूल’ में अपनी मृतक बेटी को ज़िन्दा रहने की आशा जैसी ग़लत धारणा मन में पालकर अपने दामाद के चेहरे से मिलते-जुलते आदमी को अपना दामाद समझकर उससे बेटी की कुशल-क्षेम पूछना और उसके लिए उपहार देना, जबकि ‘कैक्टस के फूल’ में अमेरिका के पिता अपने फूल जैसे मासूम बच्चे जैकब के साथ यौन-संबंध बनाकर उसके जीवन को नरकमय बना लेता है। इस वजह से उसके बेटे का न केवल पढ़ाई में मन लगता है, बल्कि उसके जीवन की सामान्य दिनचर्या भी कुंठित हो जाती है। लेखिका ने जैकब के अतीत को अपने शब्दों में पिरोया है,
“इतने सारे अतीत के टुकड़े फिर से जैकब की आँखों के सामने तिरने लगे। मीन साल की उम्र से पिता की समय-असमय मार। उसका भाग कर माँ की गोद में बक जाना। माँ और पिता की हाथापाई . . . उसका भाग कर कमरे में छुप जाना, भूखा सो जाना, भय और आतंक से काँपते हुए बीच रात में उठा दिए जाने पर पिता की कही करना, कभी प्रतिकार की कोशिश . . . कुछ बड़े होने पर . . . और पराजय। घर से भागने की कोशिश-बार-बार . . . और लौटना . . .। तब भी वह कह रहा है—नहीं आऊँगा मैं। क्या ऐसा किया जा सकता है सचमुच! वह पिज़्ज़ा हट या मैकडोनाल्ड की नौकरी के बूते क्या जी सकता है? समैन्था क्या उसे छोड़कर दूसरे के साथ नहीं चली जाएगी! कितना विवश है वह! हर वक़्त कुछ न कुछ, कितना कुछ चुभता रहता है मन में। इस टीचर को क्या!” (पृष्ठ-22)
जैकब की माँ वनेसा लॉयड आख़िरकार स्कूल प्रिंसिपल मिस कांसिगेल के सामने यह रहस्य खोल ही देती है, यह कहते हुए कि “हाँ, मैं जानती हूँ कि मुझे इसके साथ सख़्त होना है। यह बचपन से शोषण का शिकार रहा। यौन शोषण का भी। मैं जो कुछ कर सकती थी—मैंने किया। इसके पिता की हरकतों को जानते ही उससे अलग हो गई। इस पर उसकी परछाईं भी नहीं पड़ने देती, लेकिन तब भी जितनी हानि होनी थी, हो चुकी है। दस सालों तक इसे काउंसिलिंग मिली। कोई ख़ास असर नहीं हुआ। बिना दवाइयों के यह आज भी सो नहीं पाता।” (पृष्ठ-22/23)
जिस तरह किसी निराश व्यक्ति को गूलर के पेड़ पर फूल खिलने का इंतज़ार होता है, उसी तरह स्कूल प्रिंसिपल को कैक्टस पर फूल आने का इंतज़ार है, ताकि जैकब का जीवन सुधर जाए।
‘बेघर’ बड़ी दर्दनाक कहानी है, जो बुज़ुर्ग पीढ़ी के लिए बहुत ख़तरनाक चुनौती भरे समय की भविष्यवाणी करती है। यह कहानी भले ही अमेरिका की स्थानिकता और अंतर्वस्तु अपने भीतर समेटे हुई है, मगर पूरे विश्व में बुज़ुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार का प्रतिनिधत्व करती है। दुनिया के कोने-कोने से लोग अमेरिका में पैसे कमाने के लिए जाते हैं, और धीरे-धीरे वहाँ के माहौल से प्रभावित होकर वहीं के बाशिंदा होकर रह जाते हैं। जब उनके माता-पिता उनसे मिलने के लिए अमेरिका जाते हैं तो वे उन्हें वृद्ध आश्रम में रख देते हैं। लेकिन समस्या तब ज़्यादा बढ़ जाती है, जब उनके उम्रदराज़ माँ-बाप स्मृति-भ्रंश (डेमेंशिया) जैसी बीमारी से ग्रस्त हों और अगर अमेरिका जैसे बड़े देश में वे कहीं खो जाए और उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं हो, ऐसी अवस्था में उन्हें खोज कर सही जगह पहुँचाना बहुत बड़ा मुश्किल काम होता है। इस कहानी में मुख्य पात्र मैक्सिको से आई डेमेंशिया से पीड़ित बुज़ुर्ग महिला है, जो अमेरिका में अपने बेटे से मिलने आती है। वह उसे ओल्ड एज होम में भर्ती करा देता है। मॉर्निंग वॉक के समय वह अपना रास्ता भूल जाती है। यह तो उसकी क़िस्मत अच्छी है कि यूलिया उसे एक ही जगह पर दस बजे तक भटकते हुए देखकर अपने घर बुलाकर पानी पिलाती है और उसका अता-पता पूछने की कोशिश करती है। पता नहीं चलने पर वह उसे पुलिस के हवाले कर देती है। यह कहानी आमिर खान की हिन्दी फ़िल्म ‘गजनी’ की याद दिलाती हैं, जिसमें स्मृति-भ्रंश वाला हीरो अपने शरीर पर अपना अता-पता और तरह-तरह की आकृतियाँ गुदवाता है, ताकि विपत्ति के समय उसकी रक्षा की जा सके।
‘अनश्वर’ कहानी ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देती है। यह कहानी एक उच्च पदासीन माइक्रोबायोलॉजिस्ट महिला राशि के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। 51 वर्षीय राशि तलाक़शुदा है, जिसका बेटा अर्क दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन करता है। मगर डिप्रेशन का शिकार होने के कारण अर्क आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या के 24 घंटे पहले राशि डॉक्टर से अनुरोध कर उसके स्पर्म को प्रिजर्व करवा लेती है और लंदन जाकर आईवीएफ के माध्यम से एक बच्चे को जन्म देती है। नाम रखती है पार्थ। लोग उसे बेटे अर्क का बेटा मानते हैं यानी राशि का पोता, जबकि राशि अपने आत्महंता बेटे अर्थ के रूप में देखती है। यह हिंदी साहित्य की पहली कहानी होगी, जहाँ एक माँ अपने बेटे के स्पर्म द्वारा बच्चा पैदा करती है। जिसे वह ख़ुद भी समझ नहीं पाती कि उसे बेटा कहे या पोता! एक नई अवधारणा पर आधारित यह कहानी भारतीय संस्कृति में एक नए विमर्श को जन्म देती है, उदाहरण के तौर पर सिद्धू मूसेवाले की हत्या के बाद उसकी प्रौढ़ा माँ ने कृत्रिम गर्भधारण कर एक नवजात शिशु को जन्म देना। बेटे का माँ के साथ शारीरिक सम्बन्ध भारतीय संस्कृति में उसकी जीवित अवस्था में तो पूरी तरह वर्जित है, मगर मरणोपरांत विज्ञान की सहायता से उसके वीर्य को संरक्षित कर संतान पैदा करने को वैध माना जाएगा या अवैध? उसे पुत्र की परिभाषा दी जाएगी या पोत्र की? क्या विज्ञान की यह ऊँचाई ईश्वरीय सत्ता को चुनौती नहीं देती है? अगर क्लोनिंग की इजाज़त मिल जाए तो बिना यौन-सम्बन्ध बनाए भी संतति को विकसित किया जा सकता है, तो इन संततियों को आधुनिक मनुष्य समाज किन निगाहों से दिखेगा? इला प्रसाद की कहानी ‘अनश्वर’ पाठकों को तरह-तरह के सवालों के कठघरे में खड़ा करती है।
नए-नए कथानकों पर सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि रखने वाली लेखिका विज्ञान प्राध्यापिका होने के कारण उनका ध्यान ‘पिकाचू’ जैसे जापानी चूहों की ओर भी जाता है, जिनकी जैसी ड्रेस पहनकर बर्थडे पार्टी और अन्य अवसरों पर अतिथियों का मनोरंजन करने वाली एक दशक से बच्चों की पार्टी के शो-वूमेन की रोल करने वाली तात्याना के परदे के पीछे की कहानी का वह रहस्योद्घाटन करती है। किस तरह कास्टयूम से हवा निकल जाने पर उसकी जान पर बन आती है। यह कहानी की ख़ूबसूरती है कि समय रहते उस कास्ट्यूम में हवा भर दी जाती है और उसकी बच जाती है।
इलाजी के इस संग्रह की अगली कहानी ‘दहशत’ बेशक अत्यंत ही मार्मिक कहानी है। अमेरिका में पान शॉप जैसी दुकानों पर आत्मरक्षा के नाम पर बच्चों को भी बंदूकें बेची जाती है जबकि सिगरेट शराब ख़रीदने के लिए वयस्क होना ज़रूरी होता है। आए दिन हम टीवी चैनलों पर देखते हैं कि किस तरह कोई भी बंदूकधारी सिरफिरे बच्चे ने या वयस्क ने स्कूलों में प्रवेश कर बच्चों पर दनादन-दनादन गोलियाँ चलाकर उन्हें भून डाला और पल भर में स्कूल को क़ब्रिस्तान में तब्दील कर दिया। बंदूक चलाने वाले की मानसिक अवस्था क्या रही होगी– यह तो सही-सही नहीं कहा जा सकता हैं, मगर मरने वाले बच्चों के परिजनों व उपस्थित अभिभावकों और शिक्षकों के मन में अपनी आँखों के सामने मौत का मंज़र देखकर क्या गुज़रती होगी! यह कहानी पढ़कर सहज अनुमान लगाया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से वे दहशतगर्दी के शिकार हो जाते हैं। जिस वजह से अमेरिका की किसी स्कूल में अग्निशमन यंत्र के खोलने से उठने वाले धुएँ या किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनकर वे लोग इस क़द्र भयभीत हो जाते हैं कि उन्हें लगता है कि कहीं किसी स्कूल फिर से कोई दहशतगर्दी की अनहोनी घटना हो गई हैं। कहावत है, “दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँककर पीता है’। स्कूल बच्चों के मारे जाने वाली घटना से विचलित होकर बराक ओबामा टीवी पर रोते हुए कहते हैं कि दुनिया में शान्ति के लिए आज गाँधी के अहिंसा की नितांत आवश्यकता है। इसी तरह पश्चिम में भी लोग संवेदनशील होते हैं, हिरोशिमा में बम फेंकने वाला अपराध-बोध से ग्रस्त होकर आत्म-हत्या तक कर लेता है।
‘दर्द’ अमेरिकन संस्कृति और समाज पर करारा प्रहार करती है कि वहाँ पर किसी औरत के लिए चार-पाँच पुरुषों से सम्बन्ध बनाना और बच्चे पैदा करना आम बात है। उनके बच्चों को यहाँ तक कि अपने पिता के नाम तक मालूम नहीं होते हैं। 18 साल के होते ही उन्हें घर से बाहर निकाल दिया जाता है, ताकि वे अपना जीवन-यापन अपने बलबूते पर कर सके। जबकि भारतीय संस्कृति में बच्चों के पैदा होने से लेकर शादी होने तक सारा ख़र्च माता-पिता का दायित्व माना जाता है। यही वजह है कि यहाँ के पारिवारिक सम्बन्धों में मज़बूती होती है और तलाक़ दर भी कम से कम देखने को मिलते हैं। अमेरिका में इसका पूर्णतया अभाव है, जिससे तलाक़-केसों में अप्रत्याशित वृद्धि नज़र आती है। इस कहानी में एंजिला को उसकी माँ 18 वर्ष होते ही घर से बाहर निकाल देती है। उसे तो यहाँ तक पता नहीं होता कि उसके पिता कौन है। उसके चार-पाँच भाई बहन हैं, मगर सबके पिता अलग-अलग। माता-पिता का जैसा आचरण होता हैं, बच्चे उनका अनुकरण करते हैं। एंजिला थॉमस के साथ रहने लगती है, जो चोरी के अपराध में एक बार जेल गया था। एंजिला को जुआ खेलने की आदत हो जाती है। वह ऐशो-आराम की ज़िन्दगी बिताना चाहती है। उसकी पूर्ति करना थॉमस के बस की बात नहीं है। उसकी माँगों को देखकर वह चिड़चिड़ा हो जाता है। यहाँ तक कि एंजिला अपने मकान मालिक से अपना झूठा जन्म-दिवस कुछ पैसे ऐंठ लेती है और दोस्तों के साथ शराब पीने लगती है। दूसरा बॉयफ़्रेंड मिलने तक थॉमस को बरदाश्त करती है। वह उससे अलग होना चाहती है, मगर वह चाहती है कि थॉमस से उसके एक बच्चा पैदा हो जाए, ताकि अमेरिका में ‘सिंगल मदर’ के लिए जो कुछ अलग से सुविधाएँ दी जाती है, उसे मिल सकें। एक बार मकान मालिक क्रिसमस पर उसे चॉकलेट भेंट करता है और कुछ दिन बाद मकान का किराया माँगने आता है तो वह उसकी चॉकलेट खाने के कारण अपने बीमार होने का बहाना बनाकर उस पर क़ानूनन केस करने का भय दिखाकर फिर से कुछ रुपए ऐंठ लेती है, जिससे वह अपना सारा ‘दर्द’ भूल जाती है।
‘कोविड के साइड इफ़ेक्ट’ कहानी में जानथन द्वारा एन-95 मास्क को अपने सुपरवाइज़र मैनेजर से पूछे बिना ही किसी अस्पताल में देने के कारण नौकरी से निकाल दिया जाता है, क्योंकि उसकी वह कंपनी उनकी ब्लैक मार्केटिंग द्वारा मुनाफ़ा कमाना चाहती थी। जानथन के सोशल मीडिया पर अपने नौकरी छूटने की ख़बर पोस्ट करने पर पत्रकारों और सरकार का ध्यान उसकी तरफ़ जाता है, और उनकी ज़बरदस्त सहानुभूति के कारण फिर वह कंपनी उसे नौकरी पर ले लेती है, मगर एन-95, पीपीई, वेंटीलेटर जैसे मेडिकल इक्विपमेंट लोकलोचन में आने के कारण सरकार की ओर से हॉस्पिटल को अनुदान मिलता है, जबकि जमाखोरी करने वाली उसकी कंपनी घाटे की ओर अग्रसर होने लगती है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका का मुख्य मक़सद यह उजागर करना है कि कोविड जैसी वैश्विक महामारी के दुर्दाँत समय में भी कंपनियाँ अपना अवैध मुनाफ़ा कमाने के दृष्टिकोण से बाज़ नहीं आती हैं और इस हेतु तरह-तरह के हथकंडे भी अपनाती हैं।
‘अतिथि थे वे’ कहानी में अमेरिका के आदिवासियों (जिन्हें वहाँ की भाषा में नेटिव अमेरिकन कहा जाता है) के जीवन-स्थितियों का मार्मिक वर्णन हैं। ‘नवाहो नेशन’ में आज भी नेटिव अमेरिकन का राज्य चलता है, जिसे अमेरिका सरकार द्वारा मान्यता दी गई है। सरकार उनकी ज़मीन हड़पकर उद्योग-धंधे लगाती है, जिससे वे अपने आपको वहाँ अतिथि अनुभव करने लगते हैं। रोजमेरी रिज़र्वेशन और उनकी घटती तादाद देखकर नवाहो भाषा, नवाहो नेशन, बाँस और मिट्टी के उनके शंक्वाकार घर बहुत जल्दी ही अतीत में खो जाने वाली वस्तु लगने लगती है। कहानी के पात्र बोनिता और सिहू के वार्तालाप को लेखिका ने अत्यंत ही सजीवता से प्रस्तुत किया है:
“सिहू यह कहानी बार-बार सुनती है। हर बार कोई नया सिरा पकड़ में आता है। माँ कहीं से भी शुरू कर सकती है और बीच में चुप हो जाती है। फिर नहीं बोलती। तब तक . . . तब तक वह सुनती है। आज भी सुनेगी।
“तब क्या! तब सारी ज़मीन अपनी थी। यह देश अपना था। हम इस तरह एक कोने में नहीं रहते थे। तब सब खेती करते थे। माँ धरती देती थी। बहुत लोग थे हम। बड़े-बड़े टिपी थे हमारे। कोई कमी नहीं थी।”
“कहाँ चले गए सब?” सिहू ने कुरेदा।
“जाएँगे कहाँ। मर गए।”
“मर गए?”
“हाँ!” सब।
“कैसे?”
“वे अपने साथ बीमारी लेकर आए। उनके आने से पहले हमें पता भी नहीं था कि चेचक क्या होता है। हम साठ करोड़ थे तब। यह सारी ज़मीन अपनी, सब ख़ुशहाल। आज छह करोड़ होकर रह गए।”
धीमे प्रकाश में बोनिता की आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे।” (पृष्ठ-112)
‘माउस ट्रैप कार’ कहानी सरोजिनी साहू की कहानी ‘बेड़ी’ की याद दिलाती है, जिसमें कहानी के मुख्यपात्र महिला को लगता है कि मॉर्निंग वाक के दौरान एक दूधवाले साइकिल सवार लड़के के उसके छाती पर हाथ मारने की बात अपने पति को बताकर उसने अपने पाँवों में ख़ुद बेड़ी लगा दी हैं। ‘माउस ट्रैप कार’ कहानी में अमेरिका के स्कूली राजनीति को दर्शाया गया है। जिसमें एक शिक्षिका शुचिस्मिता बच्चों से माउस ट्रैप कार का प्रोजेक्ट बनवाती है, ताकि उनका ओवरऑल ग्रेड अच्छा हो जाए। इस कार के माध्यम से उन्हें न्यूटन के द्वितीय नियम गतिज ऊर्जा एवं घर्षण के साथ-साथ क्रिया-प्रतिक्रिया के तृतीय नियम की जानकारी देनी होती है। इस कार में चूहेदानी की तरह पतले प्लास्टिक रस्सी के स्प्रिंग से खुला हुआ दरवाज़ा होता है, और जैसे ही चूहा अंदर जाता है तो स्प्रिंग टूट जाती है, दरवाज़ा खुल जाता है और गाड़ी झटके से आगे बढ़ जाती है। इस प्रोजेक्ट में माउस ट्रैप, रबर बैंड, बारबाक्यू स्टिक, पहियों के लिए पुरानी सीडी का उपयोग किया जाता है। शुचिस्मिता के पास के समान नहीं मिलने के नाराज़ एक छात्र से एसोसिएट प्रिंसिपल से शिकायत करता है, जिसका उससे छत्तीस का आँकड़ा होता है और वह उसकी वार्षिक गुप्त रिपोर्ट भी भरता है। यही नहीं, एक और छात्र इग्नाशियस दूसरे छात्र जौशुआ की कार चोरी कर अपना प्रेजेंटेशन देता है। पता चलने के बाद भी वह कुछ नहीं बोल पाती है, क्योंकि अमेरिका में बच्चों पर क्रोध करना भी एक जुर्म माना जाता है। इस वजह से उसे लगता है कि यह ‘माउस ट्रैप’ का प्रोजेक्ट बच्चों के लिए नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साज़िश के तहत उसके लिए बनाया जा रहा है कि ताकि वह उसमें फँस सके।
‘सातवां दिन रविवार’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें भारत विभाजन के बाद एक बुज़ुर्ग सिंधी महिला और उसका परिवार अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में आकर रहने लगते हैं। वहाँ के गुरुद्वारे में प्रसाद के रूप में रोटियाँ दी जाती हैं, जिसे वह प्रतिदिन एक रोटी के हिसाब से छह रोटियाँ अपने बैग में भरकर लाती है और सातवें दिन तो लंगर लगता ही है, रविवार के दिन। इस कहानी के पात्र श्रुति और सीमांत के माध्यम से दुनिया भर में भरे पड़े कंजूस मानसिकता वाले लोगों पर करारा प्रहार किया है।
‘दोस्तियां टूटती हैं’ कहानी में एच-1 वीसा और ग्रीन कार्ड के आधार पर होने वाली दोस्ती पर व्यंग्य किया गया है, यह कहते हुए कि दोस्ती बराबर वालों के बीच में होती है। ग्रीन-कार्ड होल्डर होना अमेरिका में सोशल स्टेटस का सिंबल माना जाता है, इसलिए ग्रीन-कार्ड वाले केवल ग्रीन कार्ड वालों से ही दोस्ती करते हैं, न कि अपने स्टेटस से नीचे वालों से। ‘शाख से टूटी हुई’ कहानी में अडॉप्टेड चाइल्ड सिल्विया की व्यथा को दर्शाया गया है, जिसमें 45 वर्षीय दंपती, जिन्हें संतान गोद लेने का क़ानूनन हक़ नहीं होता है। वे किसी टीनएजर दंपती को पैसे देकर अपने बच्चे का अबॉर्शन करने से रोकते हैं और जन्म के बाद उस बच्चे को गोद ले लेते हैं।
‘सब-डिवीजन का स्विमिंग पूल’ में होम ओनर एसोसिएशन में भारतीयों के भागीदारी को स्थानीय लोगों द्वारा पसंद नहीं किया जाता है, उन पर रेसिस्ट कमेन्ट भी किए जाते हैं और उनकी सेविंग्स करने की आदत को तौहीन की दृष्टि से देखा जाता हैं। होम ओनर एसोसिएशन की मार्गरेट भारतीय आशीष बर्मन के प्रेसिडेंट बनने पर सबडिवीजन के स्टेटस सिंबल स्विमिंग पूल को भरकर कुछ कमरे बनाने के प्रस्ताव पर उसकी निंदा करती है। यही नहीं, मारिया पर घर के सामने कचरा इकट्ठा होने पर कंपनी फाइन लगती है तो मारिया की नौकरी चल जाने के कारण आशीष बर्मन यानी ऐश एसोसिएशन की मीटिंग में कंपनी द्वारा उस पर अतिरिक्त जुर्माना नहीं लगाने का प्रस्ताव रखता है। इस पर मार्गरेट बिदक जाती है और ऐश को उल्टा-सीधा कहने लगती है। भारतीयों की अवस्था को बेहिचक प्रस्तुत किया है:
“वोटिंग हुई। सारे वोट एक तरफ़। ऐश और होजे एक किनारे . . .
“मुझे एक अन्य बात पर भी आपत्ति है। मरिया से मैंने बात की थी। उसकी नौकरी चली गई है। वह इसलिए शुल्क नहीं भर पा रही। कचरे का फाइन लगाया है कम्पनी ने, लेकिन उसके ड्यूज पर भी फाइन लगा दिए हैं अलग से। यह ग़लत है।”
वे सब हँसने लगे। वे सब यानी वे चार—मार्गरट, एमीलिया, क्लाडिया और जौशुआ।
“उसने तुम्हें बताया? ईमेल किया?” एमीलिया की तरफ़ से प्रश्न आया।
“नहीं, मैं उधर से गुज़र रहा था। उसने मुझसे बात की। मैंनेजेमेंट कम्पनी का नोटिस दिखाया।”
“तुम्हें उससे इतनी सहानुभूति क्यों है? दोस्त है तुम्हारी? गर्ल फ़्रेंड है? सोते हो उसके साथ?” मार्गरेट हँसी।
एक बार फिर वे चारों हँसने लगे। होजे चुप था। ऐश तमतमा गया।
“बकवास बन्द करो। मैंने लॉजिकल बात की है। सबडिविजन के सभी निवासियों के अधिकार बराबर हैं। तुम इस तरह अतिरिक्त जुर्माना नहीं लगा सकते। यह नियम विरुद्ध है और तुम्हें मुझसे इस तरह बात करने का भी कोई अधिकार नहीं है। तुम्हें इसके लिए मुझसे माफ़ी माँगनी होगी।”
“मैंने ऐसा कुछ कहा ही नहीं। माफ़ी किस बात की।”
“मैं तुम्हें लीगल नोटिस भेजूँगा।”
“मैंने ऐसा कुछ बोला ही नहीं है जो मैं माफ़ी माँगू।”
“ठीक है, मैं देखता हूँ।”
मीटिंग ख़त्म हो गई।” (पृष्ठ-90)
इस तरह छोटे-छोटे संगठनों में भी अमेरिका में भारतीयों पर न केवल रेसिस्ट कमेंट होते हैं, बल्कि उनकी सेविंग्स की आदत को लेकर कई जगह अपमानित भी होना पड़ता है। इस तरह भारत के जन-मानस पर सदियों से अंकित अमेरिका की मंत्र-मुग्ध करने वाली छवि को धूलिसात करने में लेखिका पूरी तरह से सफल सिद्ध हुई है।
दिनेश कुमार माली
तालचेर, ओड़िशा
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