मुकम्मल इश्क़ की अधूरी दास्तान: एक सम्यक विवेचन
आलेख | साहित्यिक आलेख दिनेश कुमार माली15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
आज शाम यानी 10.11.2025 को जब मैं युवा लेखक दिनेश कुशवाहा की ‘मुकम्मल इश्क़ की अधूरी दास्तान’ उपन्यास पर आलोचनात्मक आलेख लिख रहा था, तो अचानक यू-ट्यूब पर दिल्ली में लाल क़िले के मेट्रो स्टेशन के पास चलती हुंडाई आई-20 कार में बम-विस्फोट की ख़बर मिली, जिसमें 12 लोगों की मृत्यु हो गई और 20 लोग घायल हो गए। और बाद में टीवी पर आतंकवादियों के नामों के ख़ुलासे आने शुरू हुए तो उसमें कश्मीर पुलवामा के डॉ. मुजम्मिल शकील, डॉ. आदिल अहमद, डॉ. उमर मोहम्मद और हैदराबाद के डॉ. अहमद मोहिमुद्दीन के साथ-साथ डॉ. मुजम्मिल शकील की दोस्त डॉ. शाहीन सईद आदि को पुलिस ने गिरफ़्तार किया और यह भी बताया गया कि उनके लिंक जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख आतंकवादी मसूद अज़हर से हैं। इस न्यूज़ की मैं उपन्यास के किरदार डॉ. जीशान अली से करने लगा, जो अपनी बेटी यास्मीन और उसके हिन्दू पति दिवाकर की दिल्ली के अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन के पास पाण्डव नगर के शकुंतला कुंज में किराये के गुंडे भेजकर हत्या करवा देता है। दोनों परिस्थितियों में दिल्ली के मेट्रो स्टेशन के पास पढ़े-लिखे डॉक्टरों द्वारा ऐसी निर्मम घटनाओं को अंजाम देना क्या कोई संयोग है? एक घटना 2015 की और दस साल दूसरी घटना 2025 की। ऐसा ही संयोग काम्यू के उपन्यास ‘प्लेग’ से मौतों की घटनाओं की तुलना कोविड काल की मृत्यु से की जा सकती है। इंक पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित इस आलोच्य उपन्यास का पहला संस्करण 2016 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा संस्करण 2024 में प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास 302 पृष्ठों का है, जो प्रयागराज (इलाहाबाद) के तत्कालीन संकुचित सामाजिक दायरे से दिल्ली की आधुनिकता तक फैली एक प्रेम-यात्रा को टोह लेता है।
हिंदी साहित्य में प्रेम कथाओं का एक विशेष स्थान रहा है, जहाँ लेखक न केवल रोमांस के रंगों को उकेरते हैं, बल्कि समाज की उन जकड़नों को भी उजागर करते हैं, जिसकी वजह से प्रेम अधूरा रह जाता हैं। यह उपन्यास इसी परंपरा की एक कड़ी है। आज भी भारतीय समाज में पुरुषों का औरतों के प्रति नज़रिया अच्छा नहीं है, चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान या और कोई अन्य धर्मावलम्बी, तभी तो आए दिन हमारे देश हत्या, बलात्कार जैसे दुष्कर्म होते रहते हैं। किसी लड़की के नहीं मानने पर चेहरे पर एसिड फेंकना या केरोसिन डालकर जला देना आम बात होती जा रही है। जहाँ ‘मनुस्मृति’ ने तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर स्त्रियों के जीवन को बद-से-बदतर बना दिया, इसी तरह नई जीवनशैली स्त्री को आधा यथार्थ, आधा स्वप्न; आधा देवी, आधी दानवी; आधी माँ, आधी वेश्या; आधी रूढ़िवादी तो आधी उत्तर आधुनिक घोषित करती है। आज भी पुरुष समाज बाँझ और केवल लड़कियाँ पैदा करने वाली स्त्रियों को डायन कहकर पुकारता है, जो हमारे समाज के लिए कलंक हैं। असमानुपात लैंगिकता के कारण समाज में आने वाले ख़तरों के प्रति सचेत किया है कि स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार समाज को विनाश के गर्त में धकेल देगा।
दिनेश कुशवाहा हिंदी साहित्य के उन युवा लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने पारंपरिक प्रेम-कथाओं को आधुनिक संदर्भों से जोड़ा है। उत्तर प्रदेश के मूल निवासी कुशवाहा की लेखनी में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की गलियों की सुगंध साफ़ झलकती है। उनकी एक किताब ‘सिर्फ एक मुलाक़ात’ न केवल पाठकों के दिलों को छूती है, बल्कि वोल्टेयर के उपन्यास ‘केंडिड लव’ की भी याद दिलाती हैं। उनकी शुरूआती तीन पुस्तकें ‘एक्सपर्ट कहता है‘, ‘विवाह स्वर्ग में नहीं होते’ और ‘अब आपकी बारी है’ भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की व्यापक आर्थिक चुनौतियों को केन्द्र में रखते हुए वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी बहुत ही गहराई से उकेरा है कि 2040 का दशक एक भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार के लिए क्या होने वाला है।
दिनेश कुशवाहा अपनी कुशाग्र बुद्धि और अति-संवेदनशील हृदय के कारण अपने आस-पास के अनेक सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक मुद्दों से रूबरू हुए। वे मानते हैं कि प्रेम केवल रोमांस नहीं, बल्कि सामाजिक बंधनों के ख़िलाफ़ संघर्ष भी है। सच्चे मन से अगर किसी को प्रेम हो जाता है तो वह आजीवन उसमें बना रहेगा। इस लहुलूहान वक़्त को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है प्रेम की और प्रेम-रचनाओं की। कुशवाहा के सृजन में समय से समर है और मानवीय गुणों का उत्कर्ष। आदमी होने का हर्ष है तो प्रेम को जीने का परितोष भी। आगामी पीढ़ियों से भविष्य की निर्मिति होनी है, उन युवा बच्चों से आसमंद प्रीति है इस रचनाकार की। प्रेम का विस्तार ज़रूरी है, पर प्रेम का विस्तार अमूर्त न हो, ज़मीनी हो। दिनेश कुशवाहा अपने उपन्यास में धर्म से ऊपर उठकर प्रेम को जब ज़मीनी विस्तार देते हैं, तो ज़ाहिर है प्रेम असीम होता है। प्रेम की कोई सीमा रेखा नहीं रह जाती। तब उसे किसी संकुचित खाँचे में नहीं रखा जा सकता। दिनेश कुशवाहा इस उपन्यास में पात्रों के वार्तालाप के माध्यम से प्रेम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर परिभाषित करते हैं। उपन्यास के एक पात्र आशीष के शब्दों में, “रसायन विज्ञान के दृष्टिकोण से प्यार सम्बन्ध शरीर में होने वाले केमिकल बदलाव की वजह से होते हैं। पुरुष हार्मोन टास्टेरॉन और स्त्री हार्मोन एस्ट्रोजन की वजह से दो विपरीत लिंग के बीच आपस एक आकर्षण का सम्बन्ध स्थापित होता है। वही आकर्षण उनके शरीर और मन पर नियंत्रण रखता है, और उन्हें काम-वासना या प्रेम की तरफ़ ढकेलता है। इसके अलावा हम किसी के प्रेम में डूबते हैं तो ऑक्सीटोसिन और डोपामिन मस्तिष्क की गहराइयों से निकलकर हमारे पूरे शरीर में फैल जाते हैं। यही हमारे अमर प्रेम की वास्तविकता है।” (पृष्ठ-112)
यह ध्रुव सत्य है कि हमारे लेखन में आजकल वह ताक़त नहीं रही, जो हमारे अलग-अलग धर्मों वाले देश में ‘अनेकता में एकता’ का सूत्र प्रतिपादित करने की क्षमता पैदा कर सके। देश की आज़ादी से पहले वाले हमारे नेता हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मावलम्बियों को जोड़कर रखते थे। गाँधी जी अल्लाह और ईश्वर दोनों में समानता की बात करते थे कि यह एक ही शक्ति के दो अलग-अलग नाम हैं। गीता का कर्मफल सिद्धांत भी इसी बात की पुष्टि करता है। मान लेते हैं कि आज हम जन्म से हिंदू हैं, हो सकता है पूर्व जन्म में मुस्लिम या ईसाई रहे होंगे; यह किसको पता है! और यह भी हो सकता है कि अगले जन्म में मुस्लिम या ईसाई या अन्य धर्मावलंबी बनें, तो फिर हमारे लिए धर्म के नाम पर युद्ध करने का अर्थ है, अपने कुंटुंबियों को ख़त्म करना। अगर हम हमारे देश के भक्ति आंदोलन की ओर झाँकें तो देखेंगे कि ‘रहिमन धागा प्रेम का’ कहने वाले रहीम और ‘कर का मनका डारि दे, मन की मनका फेर‘, कहकर हिंदुओं को और ‘ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ कहकर मुसलमानों को लताड़ने वाले कबीर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देते थे। मुंशी प्रेमचंद हामिद के चिमटे को आधार बनाकर ‘ईदगाह’ जैसी संवेदनशील कहानी लिखकर हिंदू-मुस्लिम एकता में अपना योगदान देते हैं। लेकिन आधुनिक युग में इतिहास के गड़े विवादास्पद मुर्दे खोदकर न केवल आधुनिक लेखक, बल्कि सत्ताएँ भी वर्तमान पीढ़ी में प्रतिशोध की भावना पैदा कर रही है।
परिणाम न केवल मंदिर-मंजिस्द का विवाद, बल्कि हिन्दू-मुस्लिम में शादी-ब्याह के कारण उस विवाहित दंपती की हत्या के आए दिन टीवी, सोशल मीडिया, न्यूज़ में सुर्ख़ियों पर रहता है। जिससे न केवल सामाजिक सौहार्द्रता कम होने लगा है, बल्कि असहिष्णुता ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ रही है। ये सारी परिस्थितियाँ आधुनिक लेखकों की क़लम में उतरने लगी हैं। इस उपन्यास की शुरूआत ऐसी ही एक घटना से होती है: “आज दिल्ली के अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन के पास वाले इलाक़े में एक दिल अक्षरधाम के पाण्डव नगर स्थित दहला देने वाली सनसनीखेज़ घटना घटी है, शकुंतला कुंज नाम के एक मकान में 14 फरवरी की रात कुछ हथियार बंद लोगों ने एक नवजवान नवदम्पति की बड़ी ही बेरहमी से हत्या कर दी है। मृतकों के नाम दिवाकर मौर्य और यास्मीन मलिक बताया जा रहा है। सूत्रों के हवाले से जो हमें ख़बर मिली है, उसके अनुसार हत्या का कारण अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। हालाँकि दिल्ली पुलिस और जाँच एजेसियाँ खोजबीन में लगी हैं। हो सकता है कि बहुत जल्द हमें हत्या का कारण और इस घटना को अंजाम देने वाले उन हत्यारों का कोई न कोई सुराग़ मिल जायेगा लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वाक़ई में ‘दिल्ली’ सुरक्षित है? ये एक बड़ा सवाल है क्योंकि जिस तरह से देश की राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ महीनों में अपराधिक घटनाएँ बढ़ी हैं, उसने दिल्ली को पूरी तरह सुरक्षित कहे जाने पर सवालिया निशान लगा दिये हैं। कैमरा मैन सुधीर के साथ मैं रंजना त्यागी #News Eleven”
ऐसी घटनाओं की भविष्यवाणी मंज़ूर एहतेशाम का प्रसिद्ध उपन्यास ‘सूखा बरगद’ में मिलती है, जिसमें लेखक ने रशीदा और सुहैल के माध्यम से देश के बदलते वातावरण का युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव को गंभीरता से दर्शाया है और चेताया भी है कि आने वाला समय गृह-युद्ध जैसी घटनाओं से भरा होगा। इस उपन्यास के अनुसार अल्पसंख्यक समाज की अपनी समस्याएँ हैं—पहचान का संकट, सामाजिक गतिरोध, धार्मिक कट्टरता और आर्थिक असुरक्षा। ऐसी बात नहीं है कि देश की आज़ादी से पहले भी हिन्दू-मुस्लिम में फूट नहीं थी। उस समय भी थी, जिसका अँग्रेज़ों ने फ़ायदा उठाया और भारत के दो टुकड़े हुए। आज जहाँ दोनों हिन्दू और मुस्लिम समाज आंतरिक संघर्षों से गुज़र रहा है, वहाँ रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक विकास के गतिरोध और कुत्सित राजनीति इस संकट की खाई को और ज़्यादा चौड़ा कर रही है।
बी.आर. चौपड़ा की ‘महाभारत’ के संवाद लेखक राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में मुस्लिम और हिंदू समुदाय की सांस्कृतिक एकता और विभाजन की त्रासदी दर्शाते हैं। ऐसी ही उनकी कहानी ‘टोपी शुक्ला’ भी है। ईस्मत चुगताई का उपन्यास ‘टेढ़ी लकीरें’ और कुर्रतल ऐन हैदर का उपन्यास ‘आग का दरिया’ भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सांस्कृतिक एकता का चित्रण करती हैं। लेकिन आज ऐसे लेखक पैदा नहीं हो रहे हैं क्योंकि कालांतर में परिस्थितियाँ बदल गईं और लेखकों की लेखनी भी बदल गई। हिंदू और मुस्लिम में एकता क़ायम करने की जगह खाई चौड़ी करने वाले वातावरण उनके कथानकों में उतरने लगे है। समकालीन लेखकों में प्रदीप श्रीवास्तव अपने कहानी संग्रह ‘जेहादन तथा अन्य कहानियाँ’ में हिंदुओं को मुसलमानों से भयभीत होते हुए दिखाया है कि आने वाली पीढ़ी धर्मांतरण के कारण कहीं मुस्लिम न हो जाए। जबकि वही लेखक अपने उपन्यास ‘बेनज़ीर’ में हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़की से प्रेम दिखाते हैं तो ओड़िया लेखिका सरोजिनी साहू अपने उपन्यास ‘बंद कमरा’ में पाकिस्तान के नवयुवक का भारतीय महिला कूकी के साथ चैट द्वारा प्रेम-प्रसंग को आधार बनाया है। उसी तरह अनवर सुहैल इस उपन्यास में सलीमा के दुःख भरी ज़िन्दगी का उल्लेख अवश्य करते हैं, मगर उसकी माँ को मौलना कादरी के साथ भागते और सलीमा को हवस का शिकार बनाने वाले गंगाराम मास्टर और बैंक मैनेजर विश्वकर्मा दोनों को हिंदू जाति वाले बताते हैं। निस्संदेह, उनका उपन्यास यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, मगर संकीर्ण विचारधारा वाले हिन्दू-मुस्लिम पाठक इसे धार्मिक इशू भी बना सकते हैं। है।
युवा लेखक दिनेश कुशवाहा की ‘मुकम्मल इश्क़ की अधूरी दास्तान’ उपन्यास न केवल एक प्रेम कहानी है, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज़ भी है, जो ग्राम्य-भारत की रूढ़िवादी सोच और शहरी जीवन की स्वतंत्रता के बीच के टकराव को दर्शाता है। मुस्लिमों द्वारा बैठकर पेशाब करने के पीछे के तर्क, बच्चियों की फ़्रॉक जैसी लिबास पर रोक-टोक, मुसलमानों द्वारा ‘वंदे मातरम’ पढ़ने की जगह ‘कलमा’ पढ़ना और उनके देश-प्रेम को आरएसएस द्वारा मिथ्या मानना, क़ुरान की आयतों को कंठस्थ करना और तबलीग (दीन-इस्लाम) के प्रचार-प्रसार करना आदि मुद्दों पर आलोकपात करते हुए उनकी अमानवीय कट्टरता को पाठकों के सामने लाया है। ऐसे ही कुछ तथ्य अनवर सुहैल के उपन्यास ‘पहचान’ में भी आते हैं। दूसरे शब्दों में, ‘पहचान’ यानी आइडेंटिटी। मैं क्या हूँ? लोग मुझे कैसे पहचानेंगे? नाम से या काम से? धर्म से या कर्म से? तिलक से या टोपी से? चोटी, जटा से या मूँछ-दाढ़ी से? सूरज से या चंद्रमा से? रोटी को किनारे से तोड़कर खाने से या रोटी को बीच में तोड़कर खाने से? हलाल मांस खाने से या झटका मांस खाने से? खड़े होकर पेशाब करने से या बैठकर पेशाब करने से? जनेऊ धारण करने से या कुर्ता पजामा पहनने से? भगवा रंग से या हरे रंग से? हिंदी से या उर्दू से? गीता से या क़ुरान से? मंदिर से या मस्जिद से? ‘जय श्री राम’ के नारे से या ‘अल्लाह हो अकबर’ के नारे से? ट्रक ड्राइवर, ख़लासी, ऑपरेटर पेंटर होने से या बड़ी-बड़ी दुकानों के मालिक होने से? अल्पसंख्यक से या बहुसंख्यक से? मौलवी, मौलाना होने से या पुजारी होने से? इस तरह हमारे समाज में बहुत सारा वर्गीकरण हो गया, अपनी-अपनी पहचान तलाशते हिंदुओं और मुसलमानों का। अलग-अलग आइडेंटिटी बन गई हैं, अगर कोई विपरीत आइडेंटिटी देता है तो न केवल दूसरा समाज स्वीकार करता है, बल्कि अपने समाज से बहिष्कृत भी कर दिया जाता है। ऐसी अवस्था में देश में एकता कैसे स्थापित की जा सकती है? दुखद बात यह भी है, गाँधी और विनोबा के दर्शन ‘सर्वधर्म समभाव’ की जगह कटुता के बीज बोए जाते हैं, विभिन्न संस्थाओं द्वारा; यहाँ तक कि कुछ सरकारों द्वारा भी, अपने-अपने निजीगत स्वार्थों और वोटबैंक की राजनीति के ख़ातिर।
धार्मिक ग्रन्थों के सही अर्थ समझे बिना उसकी मनगढ़ंत व्याख्या करना भी उतना ही हानिकारक है, जितना कि समाज को विषाक्त कर टुकड़े-टुकड़े कर देना। उदाहरण के तौर पर क़ुरान की एक आयत इस प्रकार है कि जब हराम (वर्जित) महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों (बहुदेववादियों) को क़त्ल करो, जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने की लिए बैठो। फिर अगर वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उन्हें छोड़ दो। नहीं तो उन्हें जहाँ भी पाओ, उनका क़त्ल करो। इसलिए जो इस पर अमल नहीं करता, जिहाद में शामिल नहीं होता, तलवार नहीं उठाता, काफ़िरों के सिर क़लम नहीं करता, तो वह पूरा मुसलमान हो ही नहीं सकता। अल्लाह तआला ‘कुरआन-ए-पाक’ में फ़रमाते हैं कि एक मुस्लिम लड़की किसी ग़ैर-मुस्लिम लड़के से शादी नहीं कर सकती। चाहे वो कितना भी उसे अच्छा लगे।” यही नहीं, लेखक ने हिन्दू परिवार की दक़ियानूसी का भी पर्दाफ़ाश किया है। दिवाकर की माँ शकुंतला उससे कहती है, “सुन ले कान खोलकर, अगर उस तुरूक की लड़की से शादी किया तो निकल जाना इस घर से। कहीं और ले जाकर रहना उसके साथ, मेरा धरम भ्रष्ट मत करना या फिर साफ़-साफ़ बोल देना, मैं ही घर छोड़कर चली जाऊँगी। मेरा क्या है! जब तक हाथ-पैर चलेगा, पास-पड़ोस में जाकर बरतन माँजूँगी और जिस दिन काम नहीं हो पायेगा, भीख माँगकर गुज़ारा कर लूँगी और क्या? इसी दिन के लिए तो तुझे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है, हरामख़ोर कहीं का!” एक गहरी साँस लेते हुए “सारी ज़िन्दगी मेहतर चमार तक के हाथ का छुवा कोई सामान नहीं लिया, अब बुढ़ापे में एक तुरूक की लड़क़ी के हाथ का पानी पीना पड़ेगा। जा, कर ले उससे शादी, सूअर कहीं का। बन जा तू भी मुसलमान . . . मंदिर छोड़कर मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़, फातिहा पढ़, ‘अल्लाहो अकबर’ बोल, गाय-भैंस का मांस खा . . . मंद बुद्धि कहीं का।” (पृष्ठ-128)
और वहीं पर इस्लाम के सत्य को उजागर करने में भी उपन्यासकर कुशवाहा पीछे नहीं रहे हैं। दिवाकर की प्रगतिशील विचारों वाली मुस्लिम प्रेमिका यास्मीन से कहलवाते हैं: “इस्लाम के विद्वानों का कहना है कि ये मज़हब औरतों के हक़ और उनकी हिफ़ाज़त के लिए बना है, तो ये रहा उसका सबूत! इस्लाम आया ही इसलिए था कि वह इंसान कि जाहिलियत को ख़त्म कर सके, लेकिन इस काले से लिबास में लिपटी मुस्लिम औरतों की ज़िंदगी ये बताती है कि जाहिलियत का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ है। बल्कि इसे ख़त्म करने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।” फिर एक गहरी साँस लेते हुए “शायद तुम लोगों को ये बात पता नहीं कि बुरका कहीं से भी इस्लामिक लिबास नहीं है, इसके बावजूद हमें पहनना पड़ता है। कुरआन के किसी भी आयत में बुर्क़े का कोई ज़िक्र नहीं है और ना ही हमारे पैग़म्बर साहब इसका आदेश देकर गए। फिर भी ये रिवाज़ क़ायम है।” (पृष्ठ-121-122)
लेखकीय निष्पक्षता और धर्म निरपेक्षता के कारण एक समीक्षक इस उपन्यास को “हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ने वाली सच्ची प्रेम कहानी” मानते हैं, जबकि अन्य इसे धर्मविहीन जातिविहीन समाज की संकल्पना वाले रिश्तों को मज़बूत बनाने वाली प्रेरणा-स्रोत मानते हैं। उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर टिप्पणी करने वाली कवयित्री नेहा पाण्डेय उसे अपने जीवन की कहानी मानती है तो दूसरी कवयित्री अलंकृता राय चलचित्र की तरह जीवंत उपन्यास। डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव उसे जीवन में इश्क़ करने वाले हर इंसान की कहानी मानते हैं। इस वजह से यह कहा जा सकता है कि प्रदीप श्रीवास्तव, दिनेश कुशवाहा, सरोजिनी साहू और अनवर हुसैन जैसे ख़तरों से खेलने वाले दिग्गज लेखकों ने आधुनिक युग के राजनैतिक परिदृश्य में अवश्य ही अपनी जान जोखिम में डालते हुए अपने लेखकीय धर्म को पूरी तरह से निभाया है। दिनेश कुशवाहा नई पीढ़ी को आगाह करते है कि धार्मिक कट्टरता वाले समुदाय से, चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, उनसे प्रेम-विवाह करने से पहले कई बार सोच लेना चाहिए, अन्यथा परिणाम ख़तरनाक हो सकते हैं। यद्यपि हिंदू लड़कों की मुस्लिम लड़कियों से इंटरफ़ेथ मैरिज भारत में सम्भव है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियाँ बनी रहती हैं। उदाहरण के तौर पर गजेंद्र चौहान—बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय संयोजक और अभिनेता-राजनेता की पत्नी हबीबा रहमान मुस्लिम समुदाय से हैं। उनके घर में हनुमान चालीसा और क़ुरान दोनों का सम्मान होता है। दिनेश गुंडू राव कर्नाटक के पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेता (ब्राह्मण परिवार से), जिनकी पत्नी तबस्सुम राव मुस्लिम हैं। सुनील दत्त प्रसिद्ध अभिनेता और कांग्रेस सांसद (हिंदू), जिनकी पत्नी नरगिस (मुस्लिम) थीं। इसी तरह मुख़्तार अब्बास नकवी—बीजेपी के पूर्व केंद्रीय मंत्री (मुस्लिम), जिनकी पत्नी सीमा नकवी हिंदू परिवार से हैं। सैयद शाहनवाज हुसैन—बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व केंद्रीय मंत्री (मुस्लिम), जिनकी पत्नी रेणु हुसैन हिंदू हैं। शाहरुख खान: प्रसिद्ध अभिनेता (मुस्लिम), जिनकी पत्नी गौरी खान (पहले चिब्बर) हिंदू हैं। सैफ अली खान: अभिनेता (मुस्लिम), जिनकी दूसरी पत्नी क़रीना कपूर हिंदू हैं। आमिर खान: अभिनेता (मुस्लिम), जिनकी दूसरी पत्नी किरण राव हिंदू हैं। ये सारे उदाहरण बड़े घर के लोगों के हैं, सामान्य घर वालों की परिस्थितियाँ अभी भी अनुकूल नहीं बनी है। कहीं धर्म आड़े आता है तो कहीं पुराना ज़ुल्मी इतिहास। कहीं विकराल सामाजिक परिस्थितियाँ सामने आती है तो कहीं राजनैतिक षड्यंत्र। और ऐसे भी इतने छोटे-से जीवन जीने की बजाय मरने में कौन ख़तरे उठाना चाहेगा? मार्क्सवादी विचारधारा वाले धर्मवीर भारती ने अपने उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ (1952) में तीन महिला किरदारों – जमुना, लिली, और सती – की कहानियों के माध्यम से यह दर्शाया था कि प्रेम आर्थिक स्थिति, वर्ग और सामाजिक अपेक्षाओं पर निर्भर करता है। दिनेश कुशवाहा के उपन्यास का कथानक रवींद्र सिंह की ‘I Too Had a Love Story’ से मिलता-जुलता है, लेकिन यहाँ सामाजिक संघर्ष अधिक है। चेतन भगत की ‘2 States’ जैसी शहरी प्रेम कहानी है, लेकिन गहराई अधिक। उसी तरह, रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) का उपन्यास ‘गोरा’ (1909 में प्रकाशित) उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक है जो राष्ट्रवाद, पहचान और मानवीय संबंधों की जटिलताओं पर केंद्रित है। जिसमें गोरा का चरित्र शुरू में हिंदुत्व की संकीर्णता का प्रतीक है, जो अंत में सार्वभौमिक मानवता की ओर बढ़ता है। टैगोर कहते हैं कि सच्चा राष्ट्रवाद धार्मिक या जातिगत सीमाओं से परे है। टैगोर की दृष्टि सार्वभौमिक है–“मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।” समन्वयवादी और मानवतावादी दृष्टि दिनेश कुशवाहा भी अपने उपन्यास के पात्रों के संवादों के द्वारा प्रकट करते हैं। जिसकी एक झलक आप निम्न वार्तालाप में देख सकते हैं:
“दिवाकर: “यही कि मेरी माँ को मुस्लिम लोगों का घर में आना पसंद नहीं, फिर वो चाहे लड़का हो या लड़की। उनके मन में मुसलमानों को लेकर अजीब तरह की शंकाएँ है और वे उन्हें भी दलितों की तरह ही अछूत समझती है।”
यास्मीन: “इसमें बुरा लगने वाली क्या बात है? देखा जाये तो हम मुसलमानों में भी ये रिवाज़ है कि हम लोग अपने मज़हब की बड़ाई में अक्सर ग़ैर-मुस्लिम या हिंदुओं हो काफ़िर, मुशरिक, नापाक बुतपरस्त और न जाने क्या-क्या नाम से पुकारते हैं . . . कमियाँ तो हमारे अंदर भी हैं। अगर मौक़ा मिले तो हम भी अपने मज़हब की आड़ में किसी की आस्था या उसके जज़्बातों को ठेस पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अब अगर तुम्हारी माँ हम लोगों के बारे में ऐसी सोच रखती हैं तो इसमें कोई हैरानी ही बात नहीं है॥हमारे यहाँ भी ऐसी सोच रखने वाले लोगों की कमी नहीं है।” (पृष्ठ-131)
ममता कालिया के अनुसार आज भी हमारे देश में न केवल नारी का सबला रूप ही कुचला जा रहा है, बल्कि मूक-बधिर, विक्षिप्त, बेघर, दलित, असहाय औरतें भी आए दिन उत्पीड़न, हिंसा और हत्या का शिकार हो रही है। विश्व की सभी महिलाओं को आर्थिक नीतियों का विशेष रूप से शिकार होना पड़ रहा है। कभी उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों में राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईवी रामास्वामी नायर, महात्मा ज्योतिबा फूले ने भयंकर उत्पीड़न झेला था। उन महापुरुषों की बदौलत हिन्दू परिवारों में पर्दा-प्रथा कम हुई, बालिका शिक्षा बढ़ी, अस्पृश्यता घटी और लैंगिक विषमता में भी कुछ हद तक कमी आई, मगर अपनी धार्मिक कट्टरता, दक़ियानूसी के कारण मुस्लिम परिवारों की स्थिति वैसी ही बनी रही।
जहाँ प्रदीप श्रीवास्तव अपनी ‘जेहादन’ कहानी में लव-जिहाद की समस्या को सामने लाते हैं, जिसमें एक हिंदू लड़की की मुस्लिम बहुल क्षेत्र में काम करते-करते दो मुसलमान लड़कियों निखत और खुदेजा से दोस्ती हो जाती है, जिसे वे इस्लाम धर्म के बारे में ज्ञान देकर उसका ब्रेनवाश करने की कोशिश करती है। वैसे ही दिनेश कुशवाहा, इस उपन्यास में प्रेम को एक ‘अधूरी दास्तान’ के रूप में चित्रित करते हैं, जो मुकम्मल होने की कोशिश में सामाजिक बाधाओं से लगातार जूझती है। कुशवाहा की लेखनी सरल हिंदी में है, जो उर्दू शायरी के प्रभाव को लिए हुए है, जैसे ‘इश्क की दास्तान’ शीर्षक से ही पता चलता है। कुशवाहा की शैली सरल हिंदी है, जो बोलचाल की भाषा से सजी है। वाक्य छोटे-छोटे हैं, जो भावनाओं को तेज़ी से व्यक्त करते हैं। उर्दू शब्दों का मिश्रण–‘इश्क’, ‘दास्तान’, ‘मुकम्मल’–रोमांटिक माहौल बनाता है और ‘मिर्जा गालिब’ की शायरी की याद दिलाता है। संवाद सारगर्भित एवं जीवंत हैं, उदाहरण के तौर पर दिवाकर की माँ शकुंतला और यास्मीन के संवाद, मूर्तिपूजा को लेकर।
“वैसे एक बात मैं तुमसे जानना चाहती हूँ कि मेरे सामने तुम ये पूजा-पाठ का जो दिखावा करती हो, क्या इससे तुम्हें तकलीफ़ नहीं होती? जबकि तुम्हारा धर्म इसकी इजाज़त नहीं देता।” शकुन्तला देवी को ये सवाल तब से परेशान कर रहा है जब यास्मीन पहली बार उनके साथ मंदिर गई थी। इसलिए उन्होंने उससे पूछ लिया।
“हाँ, ये सच है कि हमारा मज़हब किसी भी तरह से मूर्तिपूजा की इजाज़त नहीं देता। लेकिन एक सच तो ये भी है कि हमारे पूर्वज हिंदू थे।” यह सुनकर शकुन्तला देवी को एक झटका लगा। और यास्मीन अपने हिंदू पूर्वजों का सदियों पुराना इतिहास बताने लगी।, “आज से तीन सौ साल पहले इस्लाम से हमारा कोई वास्ता न था, बल्कि हम उनके सबसे बड़े दुश्मनों में से एक थे। लेकिन एक दिन सब कुछ बदल गया। अपने परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने मजबूरी में इस्लाम का दामन थाम लिया। हम लोग चौहान वंश के है। जब मुहम्मद गोरी ने जयचंद के साथ मिलकर दिल्ली के आख़िरी हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया तो चौहान वंश बिखर गया। इसके बावजूद हमारे पूर्वजों ने साढ़े तीन सौ साल तुर्कों से और डेढ़ सौ साल मुग़लों से जंग लड़ी। फिर एक दिन वे बुरी तरह घिर गये। अब्बू ने बताया था कि उस वक़्त क़िले के अंदर बारह हज़ार चौहान योद्धाओं के मुक़ाबले औरंगज़ेब के सत्तर हज़ार मुग़ल सैनिक घेरा डालकर खड़े थे। और ये मुक़ाबला बराबर का बिलकुल भी नहीं था। कोई भी नौसिखिया क़िले की दीवार पर खड़े होकर ये बता सकता था दि ये जंग एक दिन में ख़त्म हो जायेगी। इसके बावजूद रूद्रदेव चौहान के नेतृत्व में वे तीन दिनों तक मुग़ल फ़ौज को क़िले के अंदर घुसने से रोके रखा। इन तीन दिनों में बारह हज़ार चौहानों ने चौबीस हज़ार मुग़लों को मार गिराया। लेकिन नौ हज़ार चौहान योद्धा भी मारे गये। अब अगले दिन के लिए तीन हज़ार चौहान योद्धाओं के मुक़ाबले क़िले के बाहर छियालिस हज़ार मुग़लों की फ़ौज थी और उन्हें रोकना किसी भी क़ीमत पर नामुमकिन था। अगर मुग़ल क़िले के अंदर आ जाते तो सारा नगर तबाह कर देने मर्द और बूढ़े क़त्ल कर दिये जाते। औरतों के साथ बलात्कार होता और बच्चों से ग़ुलामों के बाज़ार में बेच दिया जाता। वे बड़े क्रूर और ज़ालिम लोग थे। मित्र राजाओं की मदद आने में भी काफ़ी समय था और बचने का सिर्फ़ एक ही रास्ता-अपनी पुरानी आस्था को छोड़कर इस्लाम को स्वीकार कर लेना। अगर वे सब इस्लाम स्वीकार कर लेते तो उनके जान-माल को कोई नुक़्सान न होता। पर उन्होंने मरते दम तक लड़ने का फ़ैसला किया। लेकिन रात को सैनिक शिविर के पास पूरा नगर इकट्ठा हुआ और उन सबों ने आख़िरी बचे तीन हज़ार योद्धाओं से ये प्रार्थना करते हुए कहा कि ‘हमें पता है कि आप सब लोग कल शाम तक वापस नहीं लौटेंगें। इसलिए आपसे निवेदन है कि हम सबको मारकर ही कल सुबह युद्ध में जायें। क्योंकि आपके मरने के बाद मुग़लों के हाथों बेइज़्ज़त होने से बेहतर है कि हम अपनों के हाथों इज़्ज़त की मौत मर जाये।’ यह सुनकर योद्धाओं के हाथों से तलवारें और भाले छूट गये। उनमे ढाल उठाने की भी हिम्मत न बची। अगली सुबह उन्होंने मुग़लों के सामने हथियार डाल दिये और ‘कलमा’ पढ़कर मुसलमान बन गये। जब मुग़लों का दबदबा ख़त्म हुआ तो हमारे पूर्वजों ने कई बार वापस हिंदू धर्म में लौट जाना चाहा, लेकिन उस वक़्त के दक़ियानूसी पुरोहितों ने उन्हें मलेच्छ कहकर इंकार कर दिया। धीरे-धीरे वे उसी रंग में ढल गये जिस तरह आज हम लोग मौजूदा हालात में है।” (पृष्ठ-156)
इस तरह यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास न केवल दिनेश कुशवाह के व्यक्तिगत अनुभवों का आईना लगती है, बल्कि उनके इतिहास पर अपनी पकड़ को भी प्रदर्शित करता हैं। दिल्ली की चकाचौंध में खोए दो युवा प्रेमियों—दिवाकर (हिन्दू) और यास्मीन (मुस्लिम)—की कहानी पर केन्द्रित उनके उपन्यास की शुरूआत इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान गर्ल्स हॉस्टल में रहते हुए अपने घरवालों को बिना जानकारी दिये रोटरी क्लब में ताईक्वांडो सीखने गई यासमीन की दिल्ली के अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन के पास पाण्डव नगर में रहने वाले दिवाकर से मुलाक़ात से शुरू होती है। मगर इलाहाबाद के संकुचित, रूढ़िवादी समाज के धर्म, जाति, परिवार और सामाजिक अपेक्षाएँ उनके प्रेम के रास्ते में काँटे बिछाती हैं। दिवाकर, एक महत्वाकांक्षी हिन्दू युवक, और यास्मीन, एक मुस्लिम लड़की, दोनों ही इस दबाव से तंग आकर दिल्ली की ओर रुख़ करते हैं। राजधानी की बहुरंगी ज़िन्दगी में उनकी मुलाक़ात होती है, और यहीं से एक नई दास्तान शुरू होती है।
कुशवाहा ने कथानक को तीन भागों में बाँटा है: पहला भाग इलाहाबाद की जकड़नों पर केंद्रित है, जहाँ प्रेम की पहली चिंगारी सुलगती है, लेकिन सामाजिक आग में दब जाती है। दूसरा भाग दिल्ली के अक्षरधाम मेट्रो, पांडव नगर और दोस्ती के दायरे में फैलता है, जहाँ अधूरी चाहतें मुकम्मल इश्क़ की नींव रखती हैं। तीसरा भाग संघर्षों, दोनों के समर्पण की जानलेवा परीक्षा लेता है। कथानक तेज़ रफ़्तार वाला है, लेकिन भावनात्मक गहराई से भरा। कोई ड्रामा ओवरडोज़ नहीं—बल्कि डायरी लेखन की तारीखवार ब्योरा प्रदान करते हुए उपन्यासकार ने वास्तविक जीवन की प्रेम को परिभाषित छोटी-छोटी घटनाओं का वर्णन किया हैं, जो जोसेफ कोनार्ड के बहुचर्चित अंग्रेज़ी उपन्यास ‘हार्ट ऑफ़ डार्कनेस’ की याद दिलाता है।
आज दुनिया भर में लव-जिहाद का भयानक वैश्विक स्वरूप फैल रहा है, लद्दाख, केरल, ब्रिटेन, स्पेन, आस्ट्रेलिया, कैनेडा, सभी जगह छद्म नाम रख कर मुस्लिम समाज के शादीशुदा पुरुष दूसरे धर्म की भोली-भाली लड़कियों को अपने प्रेम-जाल में फँसाकर उनके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाकर बलात्कार करते हैं, यहाँ तक कि उनके प्राइवेट पार्ट का खतना कर बंदूक की नोक पर शारीरिक शोषण करते रहते हैं। कभी-कभी मुस्लिम औरतें हिन्दू आदमियों को अपने झाँसे में फँसाकर रेप के आरोप का डर दिखाकर न केवल उनका धर्मांतरण करने के लिए बाध्य करती है, बल्कि सर्जरी की आड़ में उनके शरीर के अंगों को भी बेच देती है। दिनेश कुशवाहा के उपन्यास में फ़्लैशबैक का प्रयोग प्रभावी है, जो पाठक को अतीत और वर्तमान के बीच झुलाता है। दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों, कैफ़े और गर्ल्स हॉस्टल्स के दृश्य जीवंत हैं, जो शहरी युवाओं की ज़िन्दगी को सच्चाई से चित्रित करते हैं।
कुशवाहा के पात्र उपन्यास की आत्मा हैं। मुख्य नायक दिवाकर एक साधारण मध्यमवर्गीय लड़का है—महत्वाकांक्षी लेकिन असुरक्षित। इलाहाबाद के सामाजिक दबाव ने उसे विद्रोही बनाया है, लेकिन दिल्ली में वह प्रेम की खोज में खो जाता है। उसका चरित्र विकास उल्लेखनीय है: शुरूआत में आक्रामक, अंत तक परिपक्व। यास्मीन, दूसरी ओर, स्वतंत्रता की प्रतीक है—लेकिन परिवार की अपेक्षाओं से जूझती है। कुशवाहा ने पात्रों को आधे-अधूरे नहीं, बल्कि बहुआयामी बनाया है। उदाहरणस्वरूप, दिवाकर की माँ एक जटिल चरित्र है—शुरू में मुस्लिमों से नफ़रत करने वाली, लेकिन अंत में समझदार दिखाया है। ये पात्र वास्तविक लगते हैं क्योंकि वे सामान्य हैं: न ही कोई सुपरहीरो, न ही परफ़ेक्ट लवर। उनकी गलतियाँ–ईर्ष्या, संदेह, बहाने–प्रेम को मानवीय बनाती हैं। इस उपन्यास में प्रेम कभी पूर्ण नहीं होता, लेकिन उसकी कोशिश जीवन को अर्थ देती है। लेखक प्रेम को एक निर्माण के रूप में देखते हैं: दिल्ली में मिली आज़ादी पर अधूरी चाहतों की नींव। इस उपन्यास की दूसरी महत्त्वपूर्ण बात सामाजिक बँधन है। इलाहाबाद का ‘तंग नजरिया‘—जाति, लिंग भेद, पारिवारिक दबाव–प्रेम के दुश्मन के रूप में उभरता है। उपन्यास ग्रामीण-शहरी विभेद को उजागर करता है: दिल्ली स्वतंत्रता का प्रतीक है, लेकिन वहाँ भी पुरानी जकड़नें पीछा करती हैं। उपन्यास यह सवाल उठाता है: क्या प्रेम सामाजिक मानदंडों से ऊपर है? कुशवाहा का उत्तर सकारात्मक है—हाँ, लेकिन संघर्ष के बाद, जो मौत को दावत दे सकती है। उपन्यास में कोई जटिल प्लॉट ट्विस्ट नहीं, बल्कि भावनात्मक परतें हैं। कुल मिलाकर, शैली पठनीय है, जो नौसिखिए और अनुभवी पाठकों दोनों को आकर्षित करती है।
सलमान रश्दी का चौथा उपन्यास ‘द सेटेनिक वर्सेज’ इस्लाम के प्रति कथित अपमान के कारण विवादास्पद बन गया, जिसकी वजह से उन पर गोलीबारी भी हुई और एक हादसे में उनकी एक आँख चली गई। ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने रश्दी पर मृत्युदंड का फ़तवा जारी किया। साहित्य में धार्मिक ग्रंथों को चुनौती देने का काम किया। उसी तरह तसलीमा नसरीन की रचना ‘लज्जा’ है। ‘मुकम्मल इश्क़ की अधूरी दास्तान’ प्रेम की उस सच्चाई को उजागर करती है जो अधूरी होने पर भी मुकम्मल लगती है। दिनेश कुशवाहा ने साबित किया कि सरल शब्दों में गहरी कहानी कही जा सकती है। हर प्रेमी को यह पढ़नी चाहिए—यह न केवल मनोरंजन देती है, बल्कि जीवन के सबक़ भी। आधुनिक रचनाकारों का यह दायित्व है कि डर, नफ़रत तथा निराशा जैसे नकारात्मक शक्तियों को आशा, प्रेम और शान्ति जैसी सकारात्मक शक्तियों से जीता जाए। प्रसिद्ध ओड़िया कवि सीताकांत जी के अनुसार प्रेम ‘सुपर नेचुरल’ होता है, जो प्रकृति के मूल नियम के अनुसार जितना तुम दोगे, उतना तुम्हारे पास कम रहेगा का उल्लंघन करता है। प्रेम में-जितना तुम दोगे, उतना ही तुम्हारे पास रहेगा-उक्ति चरितार्थ होती है।
अगर हम समय रहते ध्यान नहीं देंगे तो हम भविष्य में अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकेंगे। इस कठोर यथार्थता को देखते हुए ज्ञानपीठ से पुरस्कृत सीताकांत जी जैसे अनेक साहित्यकारों का मानना है कि आधुनिक रचनाकारों को मानव-प्रेम पर अधिक से अधिक अपनी रचनाएँ लिखनी चाहिए। आधुनिक मानव-जीवन की अनेक यथार्थ घटनाओं को, जो चाहे, किसी धर्म पर आधारित हो या, किसी जीवन-शैली पर, कहानीकार की पैनी क़लम ने धर्म, जात, लिंग, भेद से ऊपर उठकर अपने भावप्रवण, संवेदनशील हृदय से समकालीन समय, परिवेश और परिदृश्य को इस संकलन की पुष्पमाला में पिरोया है। जिसे पढ़ते समय ऐसा लगता है, मानो आप या तो टीवी की किसी सनसनीखेज-ख़बर के धारावाहिक को कहानी में बदलते देख रहे हों, या फिर किसी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छपी ख़बर का फॉलो-अप करते हुए उसके अंतिम अंजाम तक पहुँचते-पहुँचते कहानी में बदलते हुए देख रहे हो। अंत में, इतना ही कह सकता हूँ कि दिनेश कुशवाहा ने अपने इस उपन्यास में हिन्दू-मुस्लिम परिवारों की विविधताओं को दर्शाते हुए भी सामाजिक सम्बन्धों को स्थापित करने के दृष्टिकोण से एकता पैदा करने का भरसक प्रयास किया है। दूसरे शब्दों में, भारतीय समाज तभी सुरक्षित रहेगा, जब दोनों समाज अपनी-अपनी कुरीतियों का निवारण कर अशिक्षित समाज को शिक्षित बनाएँ ताकि वे स्वावलंबी हो सकें और अपने जीवन के फ़ैसले ख़ुद ले सकें। निस्संदेह, हिन्दी साहित्य जगत में इस पुस्तक का भरपूर स्वागत हुआ है और आगे भी होता रहेगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसे ही प्रबुद्ध यथार्थवादी कहानीकार श्री दिनेश कुशवाहा की सशक्त क़लम अनवरत चलती रहे। और हमारा साहित्य सुसमृद्ध होने के साथ-साथ अपने मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति करने में भी सफल सिद्ध हो।
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