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डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि

समीक्षित पुस्तक: किताब (शैक्षिक-उपन्यास)
लेखक: डॉ. आर.डी. सैनी
प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
मूल्य: ₹110.00/-

राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी के पूर्व निदेशक, राजस्थान लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं सदस्य, देश के प्रमुख शिक्षाविद-साहित्यकार डॉ. आर.डी. सैनी सैनी का शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ एक सोद्देश्यपरक कृति है, जो न केवल हमारे देश की प्रारम्भिक शिक्षा के गुणवत्ता की कमी पर ध्यान आकर्षण करती है, बल्कि शिक्षकों के ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की स्तर की परख भी करती है। अखिल विश्व में अनेक ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे कि एक किताब न केवल किसी भी व्यक्ति का जीवन बदल देती है, वरन् समाज में दिशा-परिवर्तन की आधारशिला भी रखती है। जहाँ जान रस्किन की पुस्तक ‘अनटू द लास्ट’ मोहन दास करमचंद को महात्मा गाँधी बनने तक का मार्ग प्रशस्त करती है तो महात्मा गाँधी की किताब ‘हिन्द स्वराज’ भारत की आज़ादी की नींव रखने में सफल होती है। इसी तरह लिओ टॉलस्टॉय की ‘वार एंड पीस’, कार्ल मार्क्स की ‘दास कैपिटल ’, महात्मा गाँधी की ‘द एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ’, स्वामी दयानंद की ‘सत्यार्थ प्रकाश’, ज्योतिबा फुले की ‘गुलामगिरी’, भीमराव अंबेडकर की ‘एनहिलेशन ऑफ़ कास्ट’ आदि किताबें ही तो हैं, जो पूरे वैश्विक समाज की दिशा को पूरी तरह से बदल देती हैं। जहाँ ये किताबें देश-विदेश के सारे मज़दूरों को एकता के सूत्रों में बाँध देती हैं, वहीं राजे-रजवाड़े उखाड़ कर फेंकने की क्रांति का बिगुल फूँक देती हैं, और समाज में व्याप्त धर्म के ठेकेदारों, पाखंडियों और पोपों के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने के साथ-साथ समाज को जाति-विहीन बनाने के सपनों को साकार करने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करती हैं। इस तरह ये किताबें न केवल हमें और हमारे व्यक्तित्व को रचती हैं, बल्कि समाज में परिवर्तन की मशाल भी जलाती हैं। 

एक प्रखर शिक्षाविद की नज़रों में किताब की क्या अहमियत होती है और मानव-मन को किस तरह प्रभावित करती है—इन विषयों को इस उपन्यास में विशेष तौर पर दर्शाया गया है। इस उपन्यास की शुरूआत होती है महात्मा ज्योतिराव राव फूले की बहुचर्चित रचना ‘किसान का कोड़ा’ की ‘बीज’ शीर्षक वाली निम्न पंक्तियों से:

“विद्या बिना मति गई, मति बिना नीति गई
नीति बिना गति गई, गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र टूटे
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये।” 

राजस्थान का दलित समुदाय आज भी ढाणियों में रहकर अपना जीवनयापन करता है। उन्हें नागरिक सत्ता और उनके नियमों-विनियमों से ज़्यादा वास्ता नहीं रहता है। उनके अपने समाज होते हैं। उनके अपने विश्वास होते हैं। ये समुदाय सदियों से हाशिए पर रहे, जिसका मुख्य कारण अशिक्षा और चेतना विहीनता है। 

इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने वंचित समाज की शिक्षा यथार्थ पृष्ठभूमि का विवेचन किया है। राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक डॉ. बी.एल. सैनी ने अपने प्रकाशकीय में लिखा है कि मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी से प्रकाशित अमृतलाल वेगड़ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ से प्रेरणा पाकर उन्होंने बीजग्रंथ माला का शुभारंभ इस उपन्यास से किया है। इस उपन्यास की भूमिका अकादमी के प्रतिष्ठित विद्वान डॉ. राजाराम भादू ने लिखी है, जिसमें वे कहते हैं:

“संक्षिप्ततः यह कृति इस सवाल का जवाब देती है कि बालक-बालिका की संज्ञानात्मक क्षमताओं को विकसित करने वाली शिक्षा कैसी होनी चाहिए? यह स्व-अधिगम व सृजनात्मक क्षमता के सम्बन्ध पर भी रोशनी डालती है। इससे आगे का महत्त्व यह कि मानव के युगों-युगों के संचित अनुभव व ज्ञान की वाहक पुस्तक को प्रतिपादित करती है। इसके लिए उसने सृजनात्मक शैली का प्रयोग करते यत्र-तत्र पद्यात्मक सूत्र भी प्रस्तुत किये हैं। यथा:

‘मुझे बुलाती है
माँजती है, 
और गढ़ती है किताब’

यह कृति बताती है कि एक बालक-बालिका की संज्ञानात्मक क्षमताओं में आये गतिरोध को दूर करना कैसे सम्भव है।” 

यह उपन्यास पढ़ते समय ऐसा लगता है कि यह उपन्यासकार के आत्म-संस्मरणों की यथार्थ घटनाओं पर आधारित है, जिसके कथानक के बीज आज भी उनके हृदय की अतल गहराई में विद्यमान हैं, क्योंकि उपन्यास के अंतिम अध्याय ‘पचास साल बाद’ में उनकी अपनी जीवनी के कुछ अंश देखने को मिलते हैं:

“मेरी ज़िन्दगी में ‘टार्जन की वापसी’ ने प्रेरणा का काम किया था। 

“पिछले साल से मैं एक प्रदेश के लोक लोक सेवा आयोग का चेयरमेन हूँ। इससे पहले लगभग डेढ़ दशक तक विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुका, चार साल तक एक महाविद्यालय का प्राचार्य भी रहा था। लगभग डेढ़ दशक तक एक राज्य के यूनिवर्सिटी टेक्स्ट बुक बोर्ड के निदेशक पद पर सेवाएँ दे चुका हूँ। 

“किताबों की उस दुनिया में मैंने ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, कला एवं मानविकी की लगभग दो सौ किताबों की रचना करवायी। 

“ये किताबें भारत के हिन्दी प्रदेशों के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में अनुशंसित हैं। मुझे ख़ुशी है कि हिन्दी माध्यम से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को ये किताबें सुलभ हुईं। इसका श्रेय मैं उस किताब को देता हूँ जो मुझे घर वापस लाई थी। मेरी घर से भागने की बुरी आदत पर उसने न सिर्फ़ विराम लगाया था बल्कि मुझे सृजनात्मक ऊर्जा से भर दिया था। 

“शायद यह सब इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि मुझ में एक किताब ज़िन्दा थी। यूँ भी कह सकते हैं कि जो किताब मुझे घर वापस लायी थी वो मुझमें घर कर चुकी थी।” 

इस उपन्यास में राम जी भाई स्कूल पढ़ने जाता है, मगर अपनी फटी हुई पोशाक और शारीरिक स्वच्छता की कमी यानी बड़े हुए नाखून, उलझे बाल आदि देखकर मास्टरजी की प्रताड़ना से परेशान होकर वह पढ़ाई की जगह मास्टरजी की सेवा करने लगता है। उसे जब अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िला दिलाया जाता है तो वह वहाँ दूसरे बच्चों के हँसी का पात्र बन जाता है, अपनी ड्रेस, हेयर स्टाइल, शूज़, टिफ़िन आदि को लेकर। इस वजह से वह हीनभावना से ग्रसित हो जाता है। चूँकि हिंदी विषय में पदमा मैडम से उसे प्रोत्साहन अवश्य मिलता है, इस वजह से उसका हिंदी भाषा की ओर रुझान हो जाता है, मगर बाक़ी विषयों में ख़ासकर संस्कृत से उसकी दुश्मनी हो जाती है। इसी कारण वह कक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है। ख़राब परिणाम आने के कारण पिता की मार के डर से वह घर छोड़कर भाग जाता है। एक रात बरगद के पेड़ के ऊपर सोकर गुज़ारता है और अगली सुबह रेलवे स्टेशन से ट्रेन पड़कर भाग जाता है। कहाँ जाएगा, उसे भी मालूम नहीं। ट्रेन इंजन के बदलने वाली जगह पर वह नीचे उतरता है तो सीट पर उसे हिंदी की कोई रंगीन कॉमिक्स जैसी किताब ‘टार्जन की वापसी’ मिल जाती है। वह किताब पढ़ने लगता है और उसे लगता है कि वह किताब आराम से पढ़ सकता है, उसका आत्मविश्वास जागृत हो जाता है। यही सोचकर वह घर लौटने का इरादा बनाता है, फिर नए सिरे से घर जाकर जी लगाकर पढ़ाई शुरू करता है। वह किताब उसके जीवन का ख़ास मोड़ है, जो उसके जीवन को रचती है। आगे जाकर वह बहुत बड़ा आदमी बन जाता है। 

अंत में यह कहा जा सकता है कि जिस तरह आदिवासी जीवन पर विशद शोध करने वाले ओड़िया के प्रसिद्ध कवि सीताकांत महापात्र ने गोंड, डोंगरिया, कौंध तथा जुआंग जैसे आदिवासी समुदाय के बच्चों को किस तरह से प्रभावशाली शिक्षा दी जाए, उन तरीक़ों पर अपने अर्जित अनुभवों से ‘ट्राइबल स्टडीज़ ऑफ़ इंडियन सिरीज़’ के तहत ‘Bringing them to school: Primary education for tribal children’ लिखी है, जिसने नीति-निर्माताओं तथा विशाल पाठक जगत का ध्यान भी आकर्षित किया है, ठीक उसी तरह उच्चकोटि के साहित्यकार होने के कारण उपन्यासकार डॉ. आर.डी. सैनी राजस्थान के आदिवासी, दलित और पिछड़े समाज की भाषा, शिक्षा, साहित्य तथा संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रत्यत्नशील रहे हैं, जिसका एक अन्यतम उदाहरण यह शैक्षिक उपन्यास है। 

— दिनेश कुमार माली,
तालचेर, ओड़िशा  

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