सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
आलेख | साहित्यिक आलेख दिनेश कुमार माली1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
श्री हरिचरण प्रकाश हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कथाकार एवं प्रबुद्ध चिंतक हैं। हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘वचन’ 2021 के 17-18 अंक, ‘वर्तमान साहित्य’ के मई-जून के संयुक्तांक 2022, ‘आलोचना’ के त्रैमासिक अंक जनवरी-मार्च 2021 के अतिरिक्त ‘व्यंजना’ में उनकी कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला, मैं उनकी कहानियों के ऐसे प्रभाव-क्षेत्र में आ गया कि उन पर विवेचना करने से अपने आपको रोक नहीं पाया।
अस्सी के दशक में हिन्दी भाषा के कहानीकारों की पीढ़ी में उनका नाम महत्त्वपूर्ण हुआ करता था। आज चार दशक बाद जब मैं उन्हें पढ़ता हूँ, तो एक लंबा दौर आँखों के सामने से गुज़रने लगता है। जितनी भी कहानियाँ मैंने अभी-अभी पढ़ी, सारी कहानियाँ एक सुदृढ़ कैनवस पर अपने रंग बिखेरती हुई नज़र आती हैं। लेखक, पेशे से भले ही, प्रशासनिक अधिकारी रहे हों, मगर उनका हृदय मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण उनके व्यक्तित्व और कृत्तित्व में छुपा हुआ एक महान रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए समाज के समक्ष प्रस्तुत होने हेतु हमेशा तैयार रहता है। उनकी प्रमुख कहानियों में ‘नंदू जिज्जी’, ‘मंगता भोगी’, ‘सपनों का पिछला दरवाजा’, ‘सावित्री भाभी की खरीददारी’, ‘डेढ़ टाँग की सवारी’, ‘चिड़िया की ओट में’, ‘सुख का कुआँ खोदते हुए’ आदि कहानियाँ मेरे इस आलेख के लिए आलोच्य-सामग्री के रूप में प्रयुक्त हुई है। ये सारी कहानियाँ किसी उपन्यास के कथानकों से कम नहीं है।
‘नंदू जिज्जी’ में कहानीकार ने प्रथम पुरुष का प्रयोग किया है। इसके अनुसार कहानीकार अपनी मौसेरी बहन नंदिता से उम्र में 4 साल छोटे हैं, लेकिन कक्षा में केवल दो साल पीछे होते हैं। नंदिता यानी नंदू जिज्जी क्रिकेट की बड़ी शौक़ीन है, इसलिए उन्हें क्रिकेट खेलने वाले बहुत पंसद आते हैं, यही नहीं, वह साहित्य अनुरागी भी है। इस वजह से उसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, शिवानी के उपन्यास ‘चौदह फेरे’, शरत चंद्र की ‘श्रीकांत’ आदि पढ़ना काफ़ी पसंद है। जबकि कहानी के मुख्य-पात्र ‘मुन्नू’ की न तो क्रिकेट में रुचि है और न ही साहित्यिक किताबों को पढ़ने में, मगर बाद में मुन्नू का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। उसका चयन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पटियाला में हो जाता है और धीरे-धीरे उसकी रुचि खेल में बढ़ने लगती है। कुछ समय बाद मौसा को पक्षाघात हो जाता है, जिस वजह से उनकी वकालत प्रभावित होने लगती है, यह सोचकर वे नंदू जिज्जी की शादी करने के बारे में सोचने लगते हैं। इसी तरह, एक बार बंदर जिज्जी की डायरी लेकर मुँडेर पर चढ़ गया, यह देखकर जिज्जी के हाथ-पैर और चेहरा ऐसे ऐंठने लगा, जैसे उसे कोई भूत-प्रेत लग गया हो। इस कहानी में फ़ैशन के प्रति नंदू जिज्जी का झुकाव कहानीकार ने इस क़द्र दिखाया है, मानो वह हिन्दी फ़िल्म की किसी हीरोइन से कम नहीं है। आँखों पर गॉगल्स, कानों पर स्टारलिस दुपट्टा बाँधना, तरह-तरह के कपड़े पहनना आदि-आदि। देखते-देखते नंदू जिज्जी की शादी बनारस के आयुर्वेद की डिग्रीधारी वैद्य विपिन बिहारी से तय होती है। जबकि उसकी डायरी के राजकुमारों जैसे—क्रिकेटर, श्रीकांत जैसे नायक, और दातादीन जैसे नाविक की तरह आयुर्वेद वैद्य का कहीं भी स्थान नहीं था। इस वजह से दुखी होकर बाद में वह अपनी डायरी को अपने नौका विहार के दौरान किसी जलाशय के बीचों-बीच जाकर फाड़कर टुकड़े-टुकड़े करके बहा देती हैं। उनके पति मौलिक निष्ठा वाले व्यक्ति हैं, उनकी जीवन-शैली पर आयुर्वेद का गहरा प्रभाव है। वे मौसम के अनुकूल साग-सब्ज़ी खाने वाले, मांस-मछली खाने से दूर रहने वाले व्यक्ति थे। यद्यपि वह अपने पति की दिनचर्या का पूरा ख़्याल रखती, उनके पूजाघर की साफ़-सफ़ाई करती है, उनके क्लिनिक के रख-रखाव का पूरा ध्यान रखती है, यहाँ तक की उनके कपड़ों की क्रीज़ को भी कभी बिगड़ने नहीं देती थी, फिर भी उन्हें लेकर जिज्जी के वैवाहिक जीवन में कोई विशेष उत्साह नहीं दिखता था।
उसके दाम्पत्य जीवन में दुःख का सबसे बड़ा कारण उसका निस्संतान होना था। सभी विपरीत परिस्थितियों से मुक़ाबला करते हुए धीरे-धीरे उसके जीवन में काफ़ी परिवर्तन आने लगते हैं, वह भी मांस-मछली, गोश्त आदि खाना छोड़ देती है, और आयुर्वेदिक आहार ग्रहण करने लगती है; उसके बावजूद भी उसकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। मुन्नू को यह पता नहीं चल पाता है कि नंदू जिज्जी की मौत कैसे होती है? क्या यह मौत अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को छोड़ने के कारण रितते-रितते रिश्तों के कारण हुई या और कोई वजह रही होगी? यह एक प्रश्न चिह्न बनकर रह जाता है।
हरिचरण प्रकाश की यह कहानी महादेवी वर्मा के रेखाचित्र ‘ठकुरी बाबा’ की याद दिलाती है। साथ-ही-साथ, इसमें अज्ञेय की मनोवैज्ञानिक कहानी—‘गैंग्रिन (रोज)’ की झलक भी देखने को मिलती है। इस कहानी में बचपन से चंचल लड़की का उसके मन-पसंद विवाह नहीं होना होता है। उसके जीवन में प्रेम के पल-प्रस्फुटित नहीं होते है। इसलिए उसका जीवन न केवल नीरस होता है, बल्कि नाटकीयता से भर जाता है। अपनी आकांक्षाओं, उत्कंठाओं, प्राप्ति-अप्राप्ति के अंतर्द्वंद्व में वह ज़िन्दा लाश बन कर रह जाती है, जिसे अत्यंत ही मार्मिकता के साथ लेखक ने अपनी कहानी में उकेरा हैं:
“मैंने बात का रुख़ मोड़ने की गरज से कहा, ‘चलो जिज्जी, फ्राइड फ़िश खाया जाए’।”
“मैंने यह सब छोड़ दिया है, नन्दू,” एक क्षीण मुस्कान के साथ जिज्जी ने कहा।
“क्यों?” कहते हुए मेरी निगाह अनायास जीजा की ओर मुड़ गई। जीजा ने तुरन्त सफ़ाई दी, “देखो यार, मैंने कभी कुछ मना नहीं किया।”
“ये ठीक कह रहे हैं नन्दू। इन्होंने कभी मना नहीं किया। बस मेरी ही तबियत उचट गई।”
“चलो, फिर कुछ और खाते हैं,” कहते हुए मैं जिज्जी की बाँह पकड़ कर उन्हें अन्य स्टालों की ओर ले जाने लगा।
“क्यों, छोड़ दिया, नन्दू?” मुझे लगा कि मैं उनसे बड़ा हो गया हूँ।
“मुन्नू भय्या, तुम्हें याद है जब हम लोग कभी-कभी साथ-साथ मछली-गौरत खाते थे तो साथ-साथ कितनी बातें स्वाद की करते थे। अकेले अकेले का क्या मज़ा। किसके साथ ज़ायक़े की हिस्सेदारी करें। इससे अच्छा छोड़ ही दो,” कुछ तिक्तता के साथ जिज्जी ने कहा।
“और अब, तुम्हें जो खाना हो खाओ, मैं जो खाना होगा, खाऊँगी।”
“जिज्जी, आज जो तुम खाओगी, वही खाऊँगा।”
“अच्छा तो तुम यह सुनो कि मैं क्या नहीं खाऊँगी। मैं तवा आइटम नहीं खाऊँगी क्योंकि जाड़े के मौसम में परवल और घुइंया का कोई सेन्स नहीं है। मैं पनीर नहीं खाऊँगी क्योंकि अमृत जैसे दूध की सब्ज़ी बनाने का क्या सेन्स है?”
“ऐज यू विश!” मैंने अंग्रेज़ी बोली, जिस पर आँखें गोल-गोल नचाते हुए जिज्जी ने मेरी पीठ थपथपाई।
आर्युवेदोक्त आहार की छन्नी से छान कर जो खाना बचा वह हम लोगों ने खाया। पत्नी भी शिष्टाचार और आहार के उपरान्त घड़ी देख रही थी। चलते समय मैंने जिज्जी से पूछा, ‘और क्या हालचाल है?”
जिज्जी ने कहा, “कभी तुमने शीरा निचोड़ कर रसगुल्ला खाया है जैसा कि डायबिटीज़ के कोई-कोई मरीज़ करते हैं।”
“नहीं।”
“कर के देखो!” कह कर जिज्जी दूसरी तरफ़ चली गई।
नन्दू जिज्जी को मरे पाँच साल हो गए। कैसे मरी, कोई ख़ास जानकारी नहीं। मुझे तो लगता है कि यूँ ही जीते-जीते वह रीत गई, रिस गईं। खाने के स्थल पर मैं उन सभी चीज़ों को देखने लगा जो उस दिन उन्होंने कह-कह के नहीं खाई थीं।”
(वचन: 17-18: पृष्ठ-64)
हरिचरण प्रकाश की ‘वर्तमान’ साहित्य पत्रिका में प्रकाशित कहानी ‘मंगता भोगी’ दीर्घ कलेवर वाली कहानी है, जिसमें कहानी का मुख्य-पात्र साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुए भिखारी के जीवन के बारे में जानना चाहता है। तरह-तरह के सवाल उसके मन में कौंधते है, जिसे दुनिया सबसे पुराना व्यवसाय मानता है, एक प्रकार का धर्म भी और अंग्रजों के शासन-काल में तो भीख पर कर भी लगता था। इस कहानी में मनु उस भिखारी का नाम, गाँव, पता, जीवन जीने की शैली, भीख माँगने का कारण, सगे-संबधियों के नाम आदि पूछता है, उसकी फोटो खींचता है। वह भिखारी उससे पूछ-ताछ करने के बदले में पैसे माँगता है। भिखारी का नाम है ’मल्हू‘ और उसकी संगिनी का नाम है रेवतीदास। शायद लेखक ने रेवतीदास नाम के पीछे ओड़िया साहित्य के संदर्भ को इस कहानी में लाने का प्रयास किया है। यह रेवती वही नाम है, जिस पर डेढ़ सौ साल पहले प्रसिद्ध ओड़िया कहानीकार फ़क़ीर मोहन सेनापति ने ओड़िया भाषा में भारतीय साहित्य की पहली कहानी ‘रेवती’ की रचना की थी। ऐसा लगता है कि हरिचरण प्रकाश जी ने उनके सम्मानार्थ यह नाम अपनी कहानी में पिरोया होगा। भिखारी से इंटरव्यू के दौरान पता चलता है कि उसके पिताजी भी बड़े स्तर के भिखारी थे। अभिनय में सिद्धहस्त। कभी धोती को तहमद तो कभी तहमद को धोती बनाकर पहनना उनके बायें हाथ को खेल था। कभी लँगड़े बन जाना तो कभी लूल्हे बन जाना; कभी गिड़गिड़ाना, तो कभी भारी आवाज़ में हुक्म झाड़ना आदि। पान खाने के शौक़ीन उस भिखारी की पत्नी रेवती ने समाज विज्ञान विषय पर शोधकार्य किया है। वहाँ कुछ शोध कार्य के लिए ही आई थी, मगर श्मशान घाट में मल्हू को अपना दिल दे बैठी। इस तरह एक पढ़ी-लिखी कामकाजी महिला बन गई भिखारी की पत्नी।
कोरोना के वैश्विक महामारी के समय उस भिखारी की भिक्षावृत्ति पर कुछ हद तक अवश्य अंकुश लगता है। एक बार मनु उससे पूछता है कि भीख माँगना क़ानूनन अपराध है, तो प्रत्युत्तर में वह कहता है, “क़ानून की ऐसी की तैसी! साथ में, पुलिस प्रशासन की भी! अँग्रेज़ आए क़ानून बना कर चले गए। क्या भीख आज पहली बार माँगी जा रही है इस देश में में? क्या साधु-संन्यासी कोई काम करते है इस देश में? भिखारी लोग तो केवल भीख माँगते है चोरी-जारी, छिनारी-डकैती तो नहीं करते है। किसी की ज़बरदस्ती ज़मीन तो नहीं हथियाते है। किसी के यहाँ पर डाका तो नहीं डालते है।” कहानीकार के शब्दों में, “मल्हू तैश में आ गये और गरदन तान कर बोले, ‘क़ानून की ऐसी की तैसी, पुलिस की भी। अँग्रेज़ो को कुछ पता तो था नहीं। एक के बाद एक क़ानून बनाते चले गए।”
इसी के साथ मल्हू ने एक नितान्त स्थानीय किन्तु अयौनिक लक्षणों वाली मुलायम गाली बकी जो सुनी-अनसुनी रह गई क्योंकि गाली के शीघ्रातिशीघ्र अनुक्रम में उन्होंने अगली बात झोंक दी, “अरे, आज से भीख माँगी जा रही है, इस देश में! ये सब साधु-संन्यासी क्या कोई काम-धन्धा करते हैं। भीख ही पर तो पलते हैं और वह भी एक से एक मुस्टंडे। फिर, एक बात बताइए बहनजी, क्या हम भिखारी लोग चोरी करते हैं, गिरहकटी करते हैं, या डाका डालते हैं। किसी की जर, जोरू और ज़मीन हथियाते नहीं, तो हमसे अच्छी जमात और कौन मिलेगी?” (वर्तमान साहित्य:: पृष्ठ-36)
आगे जब उसे साक्षात्कार में मनु पूछता है कि उसके भीख माँगने से देश की प्रतिष्ठा पर आँच तो नहीं आती? तब वह कहता है, कि उन्हें उसकी जड़ खोदने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसकी प्रेमिका रेवती मंदिर में चढ़ाए गए फूलों के हार इकट्ठा करती थी और इन्हीं फूलों से अगरबत्ती बनाने का काम होता था। कोरोना के समय श्मशान दो भागों में बाँता गया। एक तरफ़ चाइनीज़ घाट तो दूसरी तरफ़ इंडिया घाट। कोरोना से मरने वालों को चाइनीज़ घाट और सामान्य मौत मरने वालों को इंडिया घाट पर जलाया जाता था। फूलों के हार पहने हुए उसी जगह पर रेवती, जिसे वह मकरी कहता है, उसकी मुलाक़ात मल्हू से होती है। वहाँ वह फूल इकट्ठे कर अगरबत्ती बनाने वालों को बेचती थी और मल्हू मुर्दों को सवारी से उतारकर उन्हें जलाने के काम में हाथ बँटाता था, जिससे उसे अच्छा-ख़ासा पैसा मिल जाता था। उन दिनों मल्हू और रेवती अपनी गुज़र-बसर, भंडारा और लंगर से किया करते थे। इस कहानी में लेखक ने कोरोना के कारण ख़त्म हो रहे मानवीय मूल्यों का मार्मिक वर्णन किया है। जिसे पढ़कर पाठकों की आँखें अपने आप नम हो जाती है। उस दौरान कई लाशें कूड़े-कचरे की तरह फेंक दी जाती थी। दूर-दूर तक नदी में उनके मांस के लोथड़े इधर-उधर तैरते हुए नज़र आते थे और उनमें चोंच मार-मार कर खा रहे होते थे, गिद्ध और कौवे!
अंत में, कहानीकार अपनी कहानी ‘मंगते भोगी’ के माध्यम से यह संदेश देना चाहते है कि श्मशान वैराग्य की तरह हास्य-व्यंग्य भी होता है। मंदिर का व्यापारी मंदिर में रहेगा और श्मशान का व्यापारी श्मशान में। इससे अतिरिक्त, भिखारियों की सिंडिकेट बनना, अपहृत बच्चों से भीख मँगवाना, भिखारी रहित समाज की परिकलप्ना करना और मर्दों से भिखारनियों की रक्षा आदि कहानीकार द्वारा उठाए गए अनेक शोधपरक प्रश्नों ने पाठकों के मन पर अमिट छाप छोड़ी है। हिन्दी फ़िल्मों में ‘मंगता जोगी’ गायन की तर्ज़ पर लेखक ने अपनी कहानी का शीर्षक ‘मंगता भोगी’ रखकर पाठकों में एक अलग उत्सुकता पैदा की है।
जिस तरह उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र ने समाज के निम्न वर्ग को आधार बनाकर उनके कथानक और पात्रों को अपनी रचनाओं में शामिल किया है, ठीक उसी तरह हरिचरण प्रकाश जी ने भिखारी से साक्षात्कार कर दलित वर्ग की समस्याओं को उजागर करने के साथ-साथ भिखारी बनने के कारणों और समाज की विसंगतियों और विद्रूपताओं पर दृष्टिपात किया है। लेखक की यह कहानी ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्म विभूषण से सम्मानित ओड़िया साहित्यकार सच्चिदानंद राउतराय की कहानी ‘श्मशान का फूल’ की बख़ूबी याद दिलाती है।
आलोचना त्रैमासिक पत्रिका के 64वें अंक (जनवरी-मार्च) 2021 में प्रकाशित उनकी कहानी ‘सपनों का पिछला दरवाजा’ पुरातत्व स्थलों पर शोध करने वाले दल की गतिविधियों का वर्णन हैं। जिसमें चित्रा, कृतिका जैसी लड़कियाँ किसी खंडहर का सर्वेक्षण करती है। सैकड़ों साल पुरानी पांडुलिपियाँ, भोजपत्र, तालपत्र, तांबे की किताबों से गुज़रती हुई यह कहानी लेखक के अतीत के प्रति सूक्ष्म-अन्वेषण दृष्टि से प्रकाश डालती है। खंडहरों में छोटे-छोटे मानव भ्रूण जैसी मूर्तियाँ, विशाल जैन मूर्तियों की नग्नता, चमगादड़ों की फड़फड़ाहट की आवाज़ें के साथ-साथ टोपोशीट और सर्वे डायरी का जीवंत चित्रण जोसेफ कॉनार्ड की पुस्तक ‘हार्ट ऑफ़ डार्कनेस’ की याद दिलाती है, जिसमें लेखक पाठकों को अफ़्रीका के काँगोघाटी की सैर कराते हैं। जहाँ औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और नैतिक पतन के विषयों की खोज करते हुए मनुष्य के हृदय के अंधकार का परिचय मिलता है। ‘सपनों के पिछले दरवाजे’ कहानी में लेखक ने मानवीय जीवन के अंतर्विरोधों को प्रस्तुत किया है, जहाँ कृतिका की माँ उसके चाल-चलन और व्यवहार से नाख़ुश रहती है, क्योंकि उसके डेस्क के ड्रॉर में गर्भ निरोधक गोलियाँ, कंडोम, अंर्तःवस्त्र, जींस टॉप आदि वस्तुएँ क़रीने से सजाकर रखी रहती है। इसी तरह सर्वक्षण के दौरान मिली हुई मूर्तियों में नख से लेकर शिख तक निर्मम क्रूरता के साथ अंग-अंग विखंडित नज़र आते हैं। जैसे काटे हुए स्तनों, खंडित लिंगों और आकृत से निराकृत बनाए गए जघन्य स्थलों की वधशाला हो, वह भी उस जंगल में जहाँ कभी पगडंडी भी नहीं हुआ करती थी। इस कहानी में लेखक ने विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्धों, अविवाहित संभोग के नीतिशास्त्र, मानव शरीर की जटिलताओं के साथ-साथ अतीत के प्रति अपने मोह का चमत्कारिक रूप से वर्णन किया है।
‘सावित्री भाभी की खरीददारी’ में कहानीकार ने सावित्री शब्द का प्रयोग अपने पति के प्राण बचाने वाली मिथकीय सती-सावित्री से तुलना करने के संदर्भ में किया है या फिर उसकी अवधारणा को अपने कथानक के विस्तार के रूप में प्रयोग किया है। भ्रष्ट पति की बीमारी के कारणों पर सावित्री मनन करती है, “तुम खाती हो तो मैं पा लेता हूँ,” अजब बेचारगी से ये कहते। “अच्छा! मैं कोई पंडित-पंडा हूँ कि मेरे ज़रिए पितरों की तरह तुम पा लेते हो। ‘हाय यह मैं क्या कह गई। हे देवी माँ रक्षा करो।’ हमारे घर में पंडितों का बड़ा आवागमन था। तमाम तरह के जप-पूजा, अनुष्ठान चला करते थे। जहाँ पहले अच्छी पोस्टिंग के लिए यह सब काम छोटे पैमाने पर होते थे वहाँ अब बृहत्काय पूजा-अर्चना इनके स्वास्थ्य की रक्षा के लिए हो रही थी। आख़िर कोई करे तो क्या करे। आप बताइए, जो आदमी मांस-मदिरा छुए नहीं, पराई औरतों के चक्कर में रहे नहीं, सिगरेट-पान-तम्बाकू से कोसों दूर रहे, ऐसे आदमी को ऐसा सांघातिक रोग क्यों हो। पैसा कमाने को छोड़ कर इन्हें कोई नशा नहीं रहा और कौन यह नशा नहीं करना चाहता? तो ग्रहों की टेढ़ी चाल के सिवा इस मुसीबत का और क्या कारण हो सकता है? तो देवी-देवता और साधू-सन्त के अलावा रास्ता क्या बचता है?” (पृष्ठ-12)
इस कहानी में सावित्री भाभी एक आधुनिक महिला है, जो पैसे कमाने के भ्रष्ट तरीक़ों में लिप्त अपने पति के प्राण बचाने के लिए अपनी किडनी ट्रांसप्लांट के लिए अपनी किडनी न देकर, किसी डोनर से उसकी किडनी लेने के बदले में उससे अपने शरीर का सौदा कर लेती है। वह आत्मवलोकन करती हुई आधुनिक शिक्षा पर तंज़ कसती है, ‘बड़ा शौक़ है मुझे बेटे को विदेश में पढ़ाने का। अब तो और आसान हो गया है कि झोला भर नोट गिनो और एम.बी.ए. करने न्यूजीलैण्ड या ऑस्ट्रेलिया भेज दो। बोरा भर गिनों तो बेटी का ब्याह किसी उच्च केन्द्रीय सेवारोही के साथ कर दो। पति भी अच्छी नौकरी में हैं, पैसा है, मेल-मुलाक़ात है लेकिन वह हनक कहाँ जो अशोक की लाट में होती है।” (पृष्ठ-7) किडनी दान करने वाला व्यक्ति बंगाल का मुसलमान होता है। सावित्री भाभी के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने के बाद वह व्यक्ति ट्रेन के नीचे आकर किडनी दान देने के लिए आत्महत्या कर लेता है। इस कहानी में लेखक ने बंग्लादेशी घुसपैठियों, मानव अंगों के बाज़ार, भावनात्मक अंगदान, मनुष्य की निम्नतम हवस, चंदों के तरह-तरह के प्रकार जैसे राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आपराधिक आदि के साथ-साथ नौकरियों में मलाईदार पदों पर पोस्टिंग के लिए फ़ंडिंग जैसी विद्रूपताओं पर कठोर प्रहार किया है। कथाकार कहानी के अंत में ट्विस्ट करता है, सावित्री के पति के मुँह से यह कहलवाता है कि इस संसार में कभी भी कोई माँ-बांप अपने बेटों से ग़लत-सलत कमाई करने की सलाह देते नहीं है। ऐसी सलाह भाई या दोस्त भी देते हैं, मगर पत्नी कभी भी नहीं। इस संदर्भ में मुझे बुर्ला विश्वविद्यालय, सम्बलपुर के प्रबंधन-संकाय के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष व मैनेजमेंट गुरु श्री ए.के.महापात्र की एक कहानी याद आ जाती है। कहानी इस प्रकार है:
“. . . एक बार अखिल विश्व-स्तरीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी.ई.ओ. के ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ की जाँच करने के लिए बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े लोगों ने भाग लिया। इस प्रयोग में पता चला कि भारतीय सी.ई.ओ. का ‘फ्रस्टेशन लेवल’सबसे ज़्यादा था। उसका कारण जानने के लिए एक टीम ने फिर से ‘व्यवहार तथा सोच’ सम्बन्धित और कुछ प्रयोग किए। जिसमें यह पाया गया कि उनकी धर्मपत्नी बात–बात में उनके ऊपर कटाक्ष करती थी, यह कहते हुए, ‘आपने क्या कमाया है? मेरे भाई को देखो। आपके एक गाड़ी है तो उसके पास चार गाड़ी है। आपके पास एक बँगला है तो उसके पास पाँच बँगले हैं। आप साल में एक बार विदेश की यात्रा करते हो तो वह हर महीने विदेश की यात्रा करता है। अब समझ में आया आपमें और उसमें फ़र्क़?’
ऐसे कटाक्ष सुन-सुनकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के अट्ठाईस वर्षीय युवा सी.ई.ओ. इतना कुछ कमाने के बाद भी असंतुष्ट व भीतर ही भीतर एक ख़ालीपन अनुभव करने लगा। पैसा, पद व प्रतिष्ठा की अमिट चाह उनके ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ को बढ़ाते जा रही थी।”
इस तरह लेखक ने सावित्री भाभी के पति के माध्यम से भ्रष्टाचार की जड़ों पर बातों-बातों में कठोर प्रहार किया है।
हरिचरण प्रकाश की कहानी ‘चिड़िया की ओट’ ओड़िया भाषा की प्रसिद्ध लेखिका सरोजनी साहू की कहानी ‘छिन्न-मूल’ की याद दिलाती है। इस कहानी में एक्वेरियम में जैसे-जैसे मछलियाँ मरती हैं, वैसे-वैसे छात्रावास में पढ़ रहे उसके बेटे के साथ अपघटनाएँ घटती जाती हैं।
‘चिड़िया की ओट’ कहानी में चिड़िया के पंखे के डैनों से टकराकर घायल होने की घटना के साथ अपनी पत्नी के विदेशी चॉकलेट खाने के दौरान अचानक लकवा ग्रस्त होने की घटना से तुलना की है। इधर पक्षी के पंखे से टकराना और उधर पत्नी का मुँह का टेढ़ा होना। उसी तरह कहानीकार के दोस्त की कॉलोनी के लड़के द्वारा इधर गुलेल में मिट्टी की गोलियाँ डालकर गौरैया का निशान बनाना और उधर उस लड़के के कमर के नीचे पक्षाघात मार देने की घटना भी वैसा ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। कहानीकार इस कहानी के माध्यम से न केवल जैव-मैत्री का संदेश देते है, वरन् गीता के उपदेश ‘जैसा करोगे, वैसा भरोगे’ की नियती पर भी प्रकाश डालते है। लेखक ने अपने व्यक्तिगत अर्जित अनुभवों के साथ-साथ महात्मा गाँधी, पंडित गोपीनाथ कविराज, इंदिरा गाँधी आदि की सूक्तियों का भी उल्लेख किया गया है, उदाहरण के तौर पर ‘इंदिरा तेरे शासन में तीन पाव का राशन’, ‘एक भूखे व्यक्ति के लिए रोटी ही ईश्वर हैं’, ‘हिमालय के किसी अदृश्य स्थल पर सूक्ष्म शरीर के योगियों का वास है’, आदि-आदि। यही नहीं, आधुनिक पीढ़ी के द्वारा अपने बुजुर्गों की अवहेलना करना, भाग्य के कुछ खेल में इंसान के पूरी तरह से असहाय हो जाने जैसी मार्मिक घटनाओं का उल्लेख इस कहानी में मिलता है, जो आज भी हमें सोचने को मजबूर कर देती हैं।
‘सुख का कुआँ खोदते हुए दिन-प्रतिदिन’ हरिचरण प्रकाश जी की एक सामाजिक कहानी है, जिसमें सेवानिवृत्त होने वाले एक उच्च अधिकारी की भावी दुनिया के ख़्वाबों को बुना गया है। यह कहानी दर्शाती है कि सुख का कुआँ खोदने के लिए रिटायर होना ज़रूरी नहीं, इससे पहले ही अपने जीवन के सुखों की तलाश कर लेना ज़्यादा श्रेयस्कर है। इस कहानी में रिटायर होने वाला अधिकारी रिटायरमेंट के बाद गोवा जैसे-पर्यटन स्थल पर सपरिवार जाने की मन-ही-मन योजना बनाता है, मगर भाग्य के क्रूर हाथों से उसकी पत्नी का उससे पूर्व ही देहान्त हो जाता है। इस तरह गोवा यात्रा उसके लिए सपना बनकर हमारे शास्त्रों में कहा गया है, ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय होएगा, बहुरी करेगा कब’। आज के ज़माने में आधुनिक पीढ़ी को अनेक समझौते करने पड़ते हैं। अपने पुत्र वेद—जिसके लिए वह उच्च प्रशासनिक अधिकारी होने का ख़्वाब देखता है, यानी वह उसे लाल बत्ती वाला अधिकारी बनाना चाहता है, मगर अपने पिता के इच्छा के विरुद्ध वह इंजीनियरिंग करके केरल की एक लड़की ऋचा से शादी कर लेता है। पुरानी पीढ़ी के पिता के मन में कहीं-न-कहीं अपने धर्म के प्रति झुकाव मौजूद होता है, इस वजह से वह अपने बेटे को कह देता है, “भले ही, तुम प्रेम विवाह कर लो, लेकिन लड़की कम से कम मुस्लिम न होकर हिन्दू होनी चाहिए।” उनका यह कथन यह दर्शाता है कि आधुनिक समाज में भले ही, जातियाँ टूटकर प्रेम-विवाह होने लगे है, मगर धर्म की दीवार आज भी इन रिश्तों में पहले की तरह बनी हुई है। यही नहीं, उसका पुत्र वेद अपनी पत्नी ऋचा और अपने पुत्र अर्णव के साथ विदेश में सेट होना चाहता है। अपने बच्चों के ख़ुशी के लिए वह उत्तर प्रदेश वाला अपना पुश्तैनी घर बेचने को तैयार है, मगर मन में वह आशा लिए हुए है कि उसका बेटा उसके पास रहे। इस तरह आधुनिक युग में पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी के बीच पैदा हो रहे कलह-अशांति और संवादहीनता को भी लेखक ने बख़ूबी दर्शाया है।
इसके अतिरिक्त, आधुनिक एकल परिवारों में पति-पत्नी के बीच घरेलू, कामों को लेकर और बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा के अतिरिक्त वित्तीय मसलों पर भी सामंजस्य नहीं बैठता है। पढ़ी-लिखी महिलाएँ घरेलू कामों की तुलना में बाहर नौकरी करना ज़्यादा पसंद करती हैं। विषम या विपरीत परिस्थितियों में अगर उसे घरेलू कामों को करने के लिए कहा जाए तो पति से उसकी एवज़ में नौकरी में मिलने वाली पगार पाने की इच्छा रखती है, इस वजह से पति निःशब्द हो जाता है। अपरोक्ष रूप से ये महिलाएँ अपने आप को किसी महारानी से कम नहीं समझती है-हर छोटे-मोटे कामों के लिए दो-तीन नौकरानियाँ रखना चाहती है।
अन्य कहानी ‘डेढ़ टाँग की सवारी’ में कहानीकार ने गणेश जी के दूध पीने वाली घटनाओं के अंधविश्वास, लाल-फ़ीताशाही और नेताओं के मिली-भगत के कारण विद्या-मन्दिरों के कमरों में भूसा रखने जैसे दुरुपयोग पर कुठाराघात किया है।
हरिचरण प्रकाश जी की कहानियों की भाषा स्वच्छ, सहज और सरल है। उसमें कहीं कोई उलझाव नहीं है। इनकी कहानियों में कहीं भी न तो अर्थहीनता नज़र आती है और नहीं कहीं सम्प्रेषण की जटिलता के वर्तुल। साधारण बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल, हिन्दी-उर्दू के शब्दों के स्वाभाविक मिश्रण का प्रयोग, बात कहने का चुटीला अंदाज़, और हर दृष्टि से कहानीकार के भाव-विचार अपनी कहानियों के माध्यम से सीधे पाठक के अन्तर्मन में प्रविष्ट होकर स्पंदन करते हैं। प्रभाव के आधार पर उनकी कहानियाँ दीर्घ हैं, मगर कुछ नुकीली, तो कुछ मारक, तो कुछ उत्प्रेरक हैं। उनका कहानियों का संसार सामाजिक चेतना तक ही सीमित नहीं है वरन् जीवन-दर्शन, अध्यात्म, आस्था, विश्वास, पाखंड-खंडन तथा यथार्थता को भी उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति प्रदान की है। कहानियाँ शिल्प की सहजता को स्वीकार करती हुई आगे चलती जाती हैं, इसलिए वे बोझिल नहीं है, लटकाती व भ्रमाती भी नहीं है, बल्कि सीधी अपनी वाक-पटुता को दर्शाते हुए समाज को नए रास्ते की तरफ़ ले जाते हुए दिखती है।
कुल मिलाकर उनकी उपर्युक्त आलोच्य कहानियों के आधार पर कहा जा सकता है:
जहाँ, हरिचरण प्रकाशजी की कहानियाँ विशेषकर नारी-चेतना पर केन्द्रित है, वहीं उनकी कहानियों में मार्क्सवादी सामाजिक चेतना का भी गहरा बोध छलकता है। जिसमें मूल स्वर आस्था, जिजीविषा, संकल्प, निष्ठा और सामाजिक प्रतिबद्धता के है। प्रगतिशील विचारधारा होने के कारण सामाजिक विषमता और मानवता के प्रति अन्याय व अत्याचार कहानीकार के संवेदनशील हृदय को झकझोरता है। उनमें समाज से भ्रष्टाचार उन्मूलन के साथ-साथ राजनैतिक व्यवस्था में सुधार लाने की एक तड़प भी आसानी से देखी जा सकती है। कहना न होगा, कि हरिचरण प्रकाशजी की कहानियों की मूल प्रवृत्ति नव-प्रगतिवादी है। यह अवश्य है, उनका दृष्टिकोण एकांगी नहीं है। उन्होंने जीवन और जगत को यथार्थ रूप से देखा, परखा है, मगर किसी ख़ास चश्मे से नहीं। इसी कारण इनके कहानी-संसार में जीवन की अवधारणाओं के अधिकांश संपुट देखने को मिल सकते हैं। इन कहानियों की सृष्टि के पीछे अवश्य अंतःप्रेरणा है, और अभिव्यक्ति के अदम्य इच्छा। चूँकि कहानीकार अपनी अभिव्यक्ति के अभिप्रेत के सम्प्रेषण में सफल है, जो उनकी रचनात्मकता की सार्थकता को सिद्ध करती नज़र आती है। उनका उद्देश्य कहानी की कला को चमकीली गलियों में भटकाना नहीं है, वरन् युग सत्य की अभिव्यंजना करना है। उनका मानना है कि यदि कहानीकार बनना है, कहानी लिखना है, तो परंपरा से आगे निकल कर चलो। कुछ नया सीखो। कुछ नई बात बोलो। मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि हरिचरण प्रकाश की साहित्यिक उपलब्धियाँ हिंदी साहित्य में अपनी विशिष्ट व उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवाती है।
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