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सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’ 


पुस्तक: तिलिस्म (उपन्यास) 
रचनाकार: दिव्या माथुर
प्रकाशक ‏: ‎ वाणी प्रकाशन (1 जनवरी 2023) 
हार्डकवर ‏: ‎ 588 पेज
ISBN-10‏: ‎ 9355189028
ISBN-13‏: ‎ 978-9355189028
मूल्य: ₹1, 050.00 (हार्डकवर); ₹700.00 (पेपरबैक) 
पृष्ठ संख्या: 588

विगत वर्ष बरसाती फुहार के दिनों में हिन्दी साहित्य की बहुचर्चित पुस्तकों में मुझे गीतांजलि श्री का बुकर प्राइज़ से पुरस्कृत उपन्यास ‘रेत समाधि’, डेज़ी रॉकवेल द्वारा किया गया उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘Tomb of Sand’ और विख्यात प्रोफ़ेसर आनंद सिंह की उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत बहुचर्चित महकाव्यात्मक पुस्तक ‘अथर्वा’ पढ़ने का मौक़ा मिला था और इस वर्ष इन्हीं दिनों में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित लंदन में रहने वाली विख्यात प्रवासी हिन्दी लेखिका दिव्या माथुर का सुदीर्घ उपन्यास ‘तिलिस्म’ पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उपन्यास के शीर्षक से शुरू-शुरू में मैंने अनुमान लगाया था कि हो न हो, देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ या जे.के. रोलिंग के ‘हैरी पॉटर’ की शृंखलाओं की तरह दिव्या माथुर जी का यह उपन्यास जादुई घटनाओं पर आधारित होगा, मगर मेरा अनुमान सही नहीं था। 

उनका तिलिस्म एक छोटे बच्चे के दमित बचपन से शुरू होता है और फिर जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव और संघर्षों से गुज़रते हुए अंत में एक प्रवासी बिज़नेस मेन में रूपांतरित होने के साथ ख़त्म होता है, फिर भी मनोविज्ञान के कई अनसुलझे सवाल पाठकों के लिए छोड़ जाता है। असग़र वजाहत के शब्दों में दिव्या माथुर समाज और मनुष्य के सम्बन्धों की गहनता और जटिलता की व्याख्या करने का काम करती हैं। विचार उनकी कहानियों के केन्द्र में रहता है। उपन्यास की कथा-वस्तु लगभग वैसी ही है जैसे चार्ल्स डिकेंस के बहुचर्चित अंग्रेज़ी उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशन’ की, जिसमें क्रिसमस की पूर्व संध्या पर एक अनाथ लड़का, पिप जब गाँव के क़ब्रिस्तान में अपने माता और पिता की क़ब्र पर जाता है तो वहाँ उसकी मुठभेड़ एक भागे हुए अपराधी मैग्विच के साथ हो जाती है। अपराधी पिप को अपने लिए खाना चुराने के लिए धमकाता है और उसके पैर में पड़ी बेड़ियों को निकालने कि लिए फ़ाइल (रेती) लाने को कहता है। वह श्रीमती जो ग्रेगरी, उसकी बड़ी बहन और उसके पति जो ग्रेगरी के साथ रहता है। उसकी बहन बहुत क्रूर है, वह उसकी और जो की रोज़ पिटाई करती है। जिस तरह पिप अपराधी मैग्विच से धन प्राप्त कर बड़ा व्यापारी बन जाता है, मगर अपनी प्रेमिका एस्टेला के प्यार से वंचित रह जाता है, ठीक उसी तरह ‘तिलिस्म’ उपन्यास का मुख्य पात्र उपेन्द्र अनाथ तो नहीं है, मगर उसके पिताजी अपने बच्चों के प्रति बहुत ज़्यादा क्रूर होते हैं और बात-बात पर न केवल उसकी माँ को, बल्कि उसे और उसके भाई-बहनों को भी मारपीट करते रहते हैं। बचपन में उपेंद्र अपने पिता की मार और मास्टर जी द्वारा मुख-मैथुन कराने के रवैये से परेशान होकर घर छोड़ कर भाग जाता है और एक स्लम बस्ती में रहे अली से दोस्ती कर किसी मांस बेचने वाले की दुकान सलीम मियाँ की दुकान पर नौकर रहता है। उसकी मासूमियत देखकर सलीम मियाँ की निस्संतान पत्नी शकुंतला उसे गोद ले लेती है और उसका उत्तम तरीक़े से लालन-पालन कर, पढ़ा-लिखाकर एक अच्छा इंसान बना देती है, जो आगे जाकर ‘नाज बुचर्स एवं फूडस’ का मालिक हो जाता है। यह दूसरी बात है कि उपन्यास में इस्लाम और अन्य धर्मों में गोद लेने की वर्जित प्रथा को उजागर किया है: 

“इस्लाम में गोद लेने की मनाही है। आज दोनों इस मौजूं पर गुफ़्तुगू कर रहे हैं। 
“ईसाई और पारसी जैसे धर्मों में भी गोद लेने का चलन नहीं है,” सलीम भाई आपा को अख़बार की एक कटिंग पढ़ कर सुना रहे हैं, “उलेमा ने इसे ग़ैर-इस्लामी क़रार देते हुए कहा है कि किसी दूसरे के बच्चे को गोद लेने से वे किसी की वास्तविक औलाद बन जाय, ये मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और क़ुदरती तौर पर सही नहीं है।” (तिलिस्म: 134) 

सलीम और शकुंतला का दत्तक पुत्र उपेन्द्र आगे जाकर अपने परिवार के सहयोग खुल्लर परिवार की मदद से लंदन में बड़ा व्यापारी बन जाता है, मगर अपनी पहली पत्नी की आत्म-हत्या और दूसरी पत्नी के षड्यन्त्र का शिकार होने के बाद। निम्न मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार में आज भी ऐसी घरेलू हिंसा देखी जा सकती है। ऐसी अवस्था में एक दस-बारह साल के बच्चे के मन-मस्तिष्क और जीवन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है—उसका आकलन करना ही इस उपन्यास की कथावस्तु का प्रमुख विषय माना जा सकता है। उसके मन में किस तरह सैक्स के प्रति विकृति, वितृष्णा और कुंठा जागती है और आगे जाकर वह बुरे सपनों का शिकार हो जाता है। उपन्यास को ध्यान से पढ़ने के बाद एक बार आपको हेनेरी फ़ील्डिंग के उपन्यास ‘टॉम जोन्स’ (द हिस्ट्री ऑफ़ टॉम जोन्स, ए फ़ाउंड्लिंग) की याद आना स्वाभाविक है क्योंकि इस उपन्यास का पात्र भी लावारिस नवजात शिशु टॉम जोन्स है, जिसका लालन-पालन एक दयालु व्यक्ति आलवर्दी करता है। टॉम जोन्स को दुनिया की हक़ीक़त के बारे में मालूम नहीं होता है और इस वजह से क़दम-क़दम पर षड्यन्त्र के चक्रव्यूह में फँसता जाता है। उपन्यासकार हेनेरी फील्डिंग का उद्देश्य भी परिवर्तनशील मानव स्वभाव को दर्शाना है, वैसा ही उद्देश्य मुझे उपन्यासकार दिव्या माथुर का अपने उपन्यास ‘तिलिस्म’ में नज़र आता है, बस अंतर इतना ही है कि उन्होंने पृष्ठभूमि भारतीय परिवेश दिल्ली के शाहदरा से ली है और उसे परिपक्वता लंदन में प्रदान की है, जबकि हेनेरी फील्डिंग के उपन्यास ‘टॉम जोन्स’ की पृष्ठभूमि सोमेरसेट और लंदन के इर्द-गिर्द ही घूमती है। यद्यपि यह दर्शाना इतना सहज नहीं है, फिर भी दिव्या माथुर ने अपने पात्रों में नई जान फूँक दी है, इसलिए तो डॉ, कमल किशोर गोयनका कहते है कि दिव्या माथुर में मौलिकता के साथ जीवन को नयी दृष्टि से चित्रित करने का कौशल है। उनमें फ़ैंटेसी का सौन्दर्य भी है और साथ ही जीवन-यथार्थ की मार्मिकता भी। 

लेखिका ने अपनी कल्पना-शक्ति से बहुत जगहों पर ऐसे बिंबों की रचना की है जो सहजता से आपको कुछ जगहों पर जटिल मानवीय संबंधों के दांवपेंच स्वीकार करने को विवश करेंगे और उन पीड़ित पात्रों के प्रति मन में करुणा के भाव उत्पन्न करेंगे, लेकिन कुछ जगहों पर आप लेखिका से सहमत नहीं हो सकते हैं जैसे कि उपेन्द्र की एक बार अपने हिंसक पिता के बाएँ हाथ को अपने नुकीले दाँतों से काट खाने के कारण मार के भय से पड़ोस के घर में शरण देने वाली महिला लिसा के प्रति, उसके मन में आजीवन सैक्स की उद्दीप्त भावना कितनी असहज लगती है, मगर शत-प्रतिशत यह अयथार्थ नहीं हो सकती है। प्रख्यात प्रवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा के इस कथन से मैं सहमत हूँ कि लेखिका जो टेक्नीक अपनाती हैं उसमें कहानी सुनाने से हट कर वे कहानी दिखाती हैं। 

उनके उपन्यास की अधिकांश घटनाएँ भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के काल-खंड के आस-पास की हैं, कह सकते हैं कि 1965 से 1980 के बीच की रही होंगी। सोचने वाली बात यह है कि पाँच दशक पहले की गाथा को उपन्यासकार ने आज अपनी अद्यतन कृति का विषय क्यों चुना? ऐसा लगता है उपन्यास के पात्र कहीं-न-कहीं उनके मन के किसी कोने में अभी तक अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे थे, इस वजह से वर्तमान पीढ़ी को तत्कालीन भारतीय और ब्रिटेन के प्रवासी भारतीय समाज की विद्रूपताओं, विसंगतियों, कुरीतियों, धार्मिक, आर्थिक, पारिवारिक और राजनीतिक परिवेश से परिचित कराना ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा होगा। यह उपन्यास पढ़ने के बाद आपको पता चलेगा कि किसी मनुष्य का जीवन कितना जटिलतम और रहस्यमयी हो सकता है! भानुमति के किसी तिलिस्मी पिटारे की तरह जब यह उपन्यास खुलता जाता है तो बस एक के बाद खुलती ही जाती है मनुष्य-जीवन की अनंत अशेष रहस्यमयी परतें। कहीं छद्म प्रेम और स्वार्थ हावी है तो कहीं निश्चल प्रेम छलकता है। कहीं अहंकार हावी है तो कहीं कुंठा के कारागार। कहीं मनोविकार की दुर्गंधित नदियाँ बह रही है तो अप्राकृतिक काम-क्रीड़ाओं का अतिशय जल-प्लावन। कल्पना से परे जगह-जगह आपको तिलिस्मी घटनाएँ देखने को मिलेंगी, मगर यथार्थता के वलय से आबद्ध। इसलिए ख्यातिलब्ध उपन्यासकार चित्रा मुद्गल उनके कृतित्व को वैविध्य भरा रचना संसार अपने बहु-कोणीय और बहुआयामी पाठ मानती है, जिससे पाठकीय जिज्ञासाओं को नितान्त नये आस्वाद से ही नहीं पूरता बल्कि सर्जना की सघन संवेदना और उसकी दृष्टि सम्पन्न अभिव्यक्ति के माध्यम से कथा वितान को स्वयं उसके अर्जित अनुभवों से सहज ही तब्दील कर देने की क्षमता रखता है। 

मेरा मानना है कि अगर सिगमंड फ़्रॉयड उपेन्द्र के बुरे सपनों का विश्लेषण करते तो वे शायद सपनों के बारे में एक नई अवधारणा भी खोज लेते। ऐसे भी फ़्रॉयड का मानना है कि दुनिया की हर गतिविधि का केंद्र-बिंदु होता है ‘सैक्स’ यानी इसके इर्द-गिर्द ही दुनिया की सारी गतिविधियाँ घूमती हैं। चाहे वे सारी गतिविधियाँ, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और व्यापारिक ही क्यों न हो। उनके अनुसार सैक्स ही हर अपूर्ण इच्छा-पूर्ति के साथ-साथ विलक्षण सृजनात्मकता का आधार होता है। ‘तिलिस्म’ उपन्यास के कुछ सपनों को पाठकों के लिए प्रस्तुत है: 

“मैं (उपेन्द्र) उन बुरे सपनों से भी परेशान रहता हूँ, जिनमें मैं और अली एक ही बिस्तर में चिपट कर चूमाचाटी कर रहे होते हैं। ऐसे सपनों से निकलने के बाद मुझे लगता है कि जैसे मैं बड़े आनन्द से गुज़रा हूँ। मुझे एहसास होता है कि यह बहुत ग़लत बात है। मैंने तय कर लिया है कि मैं अब अली से दूर रहूँगा, सब ठीक ही कहते हैं के मेरे लिए अली का साथ ठीक नहीं, जिसे सैक्स की बातों के सिवा कुछ नहीं सूझता।” (पृष्ठ-144) 

“जरा आँख लगी ही होगी कि मैंने एक डरावना सपना देखा। पब के बीचों-बीच रखी पूल-टेबल पर मैं सीधा लेटा हूँ; नीति और कैथी ने मेरे दोनों हाथ कसकर पकड़ रखे हैं। नंग-धड़ंग मैंडी मेरी टाँगो पर बैठी धीरे-धीरे मेरी पैंट के बटन खोल रही है। मैं बेतरह कसमसा रहा हूँ, मेरी पैंट उतारकर हवा में घुमाते हुए मैंडी ने उसे पास ही रखे एक कूड़ेदान में फेंक दिया है, जिसमें गाढ़े लाल शोरबे से लथपथ गोश्त की चूसी हुई हड्डियाँ भरी हैं। मेरे ‘नहीं-नहीं’ चिल्लाने के बावजूद मैंडी ने एक झटके से मेरा जांघिया उतारकर राजन के मुँह पर दे मारा। ग़ुस्से में मैंडी से मुझे छोड़ देने की इल्तजा कर रहा है। आसपास खड़े नीति के दोस्त तालियाँ बजा-बजा कर शोर मचा रहे हैं। पसीने में डूबा हुआ मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा; आँसू और पसीना एक होकर बह रहे हैं।” (पृष्ठ-422) 

फ़्रॉयड ने मनुष्य के मनोविज्ञान की तीन अवस्थाओं का अध्ययन किया, जागृत स्वप्न और सुषुप्त अवस्था का; जबकि भारतीय दर्शन फ़्रॉयड से एक क़दम और आगे बढ़कर तुरीयावस्था पर भी प्रकाश डालता है। इस तरह भारतीय दर्शन के अनुरुप सैक्स केवल इच्छा-पूर्ति या सृजनात्मकता का मूलाधार ही नहीं है, बल्कि मोक्ष तक पहुँचने वाली सीढ़ी भी है तभी तो जीवन के चार पुरुषार्थों में इसे गिना गया है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसी दर्शन को आधार बनाकर ओशो रजनीश ‘संभोग से समाधि की ओर’, ‘काम से राम की ओर’ और ‘सैक्स टू सुपरकॉन्शियसनेस’ जैसी कृति की रचना करते हैं। यद्यपि इस उपन्यास में इन चीज़ों का ज़िक्र अवश्य नहीं है, मगर बचपन में अप्राकृतिक और कुत्सित ‘परवर्टेड सैक्स’ का शिकार हुए एक साधारण व्यक्ति का जीवन किस तरह असंतुलित हो जाता है, यह समझने का विषय है। उसका व्यक्तित्व पूरी तरह से न केवल विशृंखलित हो जाता है, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में भ्रंश भी। उपन्यास में एक जगह ‘शिवलिंग पूजा’ के प्रति बालक उपेन्द्र के मुँह से उसे ‘मुत्ती पूजा’ की संज्ञा दिलवाकर लेखिका ने स्वयं अपनी भुगती हुई धार्मिक-विद्रूपताओं और विसंगतियों की तरफ़ ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है क्योंकि आठ-दस साल उपेन्द्र के मन में ये ख़्याल आना अस्वाभाविक है और ये उसके मन में लेखिका के अध्यारोपित विचार अवश्य हो सकते हैं। संदर्भित वाक्यांश देखें: 

“उआ, माँ और सारी औरतें ‘मुत्ती’ की पूजा करती हैं? मेरी हैरानी का कोई ठिकाना नहीं है। अगर मुत्ति की पूजा करना ठीक है तो उसे देखने और छूने में सब लोग इतना क्यों कतराते हैं?” (तिलिस्म: 79) 

इसी तरह, बचपन में मास्टरजी की प्रचंड काम-वासना का शिकार उपेन्द्र उनको धक्का देकर कुएँ में गिराकर मरने के लिए छोड़कर भाग जाता है। लेखिका के शब्दों में: 

“बेटा, यहाँ अकेले में तुझे डर नहीं लगता?” मुँडेर पर बैठते हुए उन्होंने अपना एक हाथ मेरे कन्धे पर रखा और अपने दूसरे हाथ से मुझे अपने सामने करते हुए पूछा। मैंन ‘न’ में सिर हिला दिया और उनसे छूटने की कोशिश करने लगा पर उनकी पकड़ भौत मज़बूत है। उन्होंने मेरा हाथ अपनी पैंट के बटनों पर रख लिया। मेरे बदन का गरम गरम ख़ून जैसे मेरे माथे में इकट्ठा होने लगा; दिमाग़ अँगीठी सा दहकने लगा। यहाँ कौन आएगा मुझे बचाने? फिर उन्होंने अपनी पैंट के बटन खोल लिए और मेरे सिर को नीचे धकेलते हुए अपनी मुत्ती मेरे चेहरे पर घुमाते हुए मेरे होंठों तक ले आये। जिस मुत्ती से पेशाब निकलता है, वह मेरे मुँह में, ‘आक . . .’ मुझे कै होने को हुई पर मैं मुँह खोलता तो . . . मैंने अपने दाँत भींच लिए। अब तक तो वह सिर्फ़ अपने हाथ से मेरी मुत्ती को सहलाते आये हैं पर यह . . . मुझे लगा कि जैसे मेरा दिमाग़ फट जायेगा। ग़ुस्से में मैंने मास्टर जी को पीछे की ओर धकेल दिया; उनके दोनों हाथ मेरे चेहरे पर थे; सँभल नहीं पाये और कुएँ में जा गिरे। बिना आगे पीछे देखे मैं वहाँ से सरपट दौड़ लिया।” (पृष्ठ-87) 

यही नहीं, लेखिका ने उपेन्द्र के समलैंगिक अंग्रेज़ी के ट्यूशन मास्टर इरफ़ान खान की गिरी हुई हरकत को भी उजागर किया है, इन शब्दों में:

“यू वान्ट टू सी माय पीनस?” एकाएक उन्होंने पूछा। मुझे उनका सवाल समझ नहीं आया, जाने क्या दिखाना चाहते हैं वह; मुझे उलझन में उन्होंने अपना सवाल दोहराया तो मेरे दिमाग़ में ‘पैनिस’ कौंध गया, अंग्रेज़ी में लिंग को पैनिस कहते हैं पर उन्होंने ‘पीनस’ कहा है, वो शायद कुछ और हो, इसलिए मैं ख़ामोश रहा। “हियर, लुक, दिस इज़ माय पीनस, शो मी योर्स?” इरफ़ान ने अपनी पेंट की ज़िप खोलकर अपना लिंग बाहर निकाल लिया। 

“ओह! पैनिस,” मेरे मुँह से निकल गया। 

“सिल्ली बॉय, दिस इज़ कॉल्ड पीनस, नॉट पैनिस,” मेरा हाथ उस पर रख उनकी कर हलके से दबाते हुए वह मेरी आँखों में झाँकने लगे। मैंने अपना बैग उठाया और उठ खड़ा हुआ।” (पृष्ठ-196)

इन हादसों के कारण शादीशुदा उपेंद्र को अपने दोस्त की पत्नी फातिमा और बचपन में शह देने वाली माता तुल्य अपने दोस्त बॉबी की माँ लिसा के प्रति आजीवन प्रेम की भावना बनी रहती है और अपनी पत्नी के साथ सैक्स करते हुए भी उनके बारे में दैहिक रति चिंतन चलता रहता है। उसके उदासीन रवैये की वजह से उसकी पत्नी विम्मी आत्महत्या कर लेती है। यद्यपि उसकी पत्नी के बाँझ होने और पड़ोस के किसी लड़के से सम्बन्ध वाली बात उसके ससुराल वाले छुपाकर रखते हैं। यह आकस्मिक घटना उसे अवसादग्रस्त कर देती है। उससे उबरने के लिए उसके घर वाले उसकी दूसरी शादी लंदन के सुपरस्टार के मालिक रामलाल खुल्लर की तलाक़शुदा पुत्री नरेंद्र कौर यानी नीति से करवाते हैं ताकि वह विदेश की धरती पर अपने नए घर-संसार में उलझकर सब-कुछ भूलकर सामान्य हो जाएगा। मगर होता उलटा ही है, वहाँ एक और तिलिस्म सामने आ जाता है। यही नहीं, वैवाहिक जीवन में भी वह अपनी पत्नी नीति से भी अप्राकृतिक सैक्स के लिए बाध्य होता है। 

“मैं वापस कमरे में आकर रिक्लाइनिंग-चेयर पर ही लेटा जो इतनी आरामदेह है कि न जाने कब मुझे नींद आ गई। एकाएक लगा कि कोई मेरी टाँगें फैला रहा है, शायद मैं सपना देख रहा हूँ। मैंने घबरा कर आँखें खोलीं तो देखा कि फ़र्श पर घुटनों के बल बैठी नीति मेरे लिंग को चूम रही है, उसके लम्बे और नुकीले नाख़ूनों पर सुर्ख़ नेलपॉलिश लगी है, मुझे डर लग रहा है कि अपनी फ्रैन्ज़ी और बेध्यानी में वह कहीं मुझे घायल न कर दे। मैं भौंचक्का सा उसे रोकने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि मुझ पर एक नशा सा तारी हो चला है। हलके ख़ुमार के बावजूद वह मुझसे कहीं अधिक ताक़तवर है। मैं अपना होश तेज़ी से खोने लगा हूँ, वह मुझे जैसे समूचा निगल लेना चाहती है। ख़ुद को पूरी तरह उसके हवाले करने के सिवा मेरे पास कोई चारा नहीं है; लगा कि मेरा बदन फैल रहा है, मेरी आँखें बन्द हो चलीं हैं; मैं कुर्सी पर निढाल पड़ा हूँ; उफ़ान आने ही को था कि अचानक फिस्स से बह निकला। लगा कि जैसे अभी-अभी मेरा बलात्कार हुआ हो। मेरे वीर्य में नहाई नीति प्रसन्न है; मैंने कहीं पढ़ा था कि औरतें वीर्य से यौवन प्राप्त कर सकती हैं। मेरी आँखों के सामने मास्टर जी और पादरी साहब के चेहरे नाचने लगे; गंद, गंद, और हर तरफ़ गंद।” (पृष्ठ-371) 

नीति तलाक़शुदा है, वहाँ तक तो ठीक है, मगर शादी के बाद भी उसका दूसरे लोगों के साथ अफ़ेयर बने रहते हैं, जिसे उपेन्द्र सहन नहीं कर पाता है। और सत्य सामने आने पर खुल्लर दंपती अपनी बेटी की मदद से उसके बैग में सोने के कुछ ज़ेवर रखकर उस पर चोरी का आरोप लगाते हुए घर में पुलिस बुलाकर उसे जेल भिजवा देता है। यह तो उपेन्द्र की क़िस्मत अच्छी थी कि उसके मित्र कुलवीर और सहेली सायला इस मिथ्यारोप का भंडाफोड़ कर देते हैं और खुल्लर परिवार को जेल में डालने के लिए वकील भी तलाश लेते हैं। लंदन में उपेन्द्र का दम घुटता है और वह वहाँ रहना नहीं चाहता है, मगर अपने पाँव पर खड़े होने की ललक ‘ब्लडी इंडियन’, ‘अनदर ब्लड़ी इममिग्रेंट’ जैसी भद्दी गालियाँ सुनने के बाद भी वहाँ पर कुछ कर दिखाने की उसकी लालसा बनी रहती है। नवजोश, उमंग और हिम्मत के कारण वह मिडमो (MIDMO) (मेक इन इंडिया डांस एंड म्यूज़िक ऑर्गेनाइज़ेशन) का संस्थापक निदेशक बन जाता है और दोस्तों की मदद से कई उप-समितियों का निर्माण करते हुए व्यापार में दिन-दूनी रात चौगुनी प्रगति करने लगता है। मगर उसकी ज़िन्दगी में उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी रहता है। 

अचानक दिल्ली के शाहदरा में गोद लेने वाले अब्बू सलीम मियाँ की हत्या हो जाती है, इमर्जेंसी के गुंडों की भीड़ द्वारा अली की पत्नी फातिमा को बचाने के दौरान। वह अपनी अम्मी को मिलने भारत आता है और फ़्लाइट में बुरे-बुरे सपने देखता है। 

“भंगी कॉलोनी के लोगों का हुजूम अम्मी के शव को उठाये क़ब्रिस्तान की तरफ़ जा रहा है, अब्बू और मैं ‘नहीं, वह हिन्दू हैं’ चिल्लाते हुए उनके पीछे दौड़ रहे हैं। 
‘तुम काफ़िर हो, मुसलमान को जलाना चाहते हो?’ भीड़ में से एक चेहरे ने ग़ुस्से में कहा। उन्होंने अम्मी को एक खुली क़ब्र में डाल दिया है, लोग मुट्ठियाँ भर-भर कर उन पर मिट्टी फेंक रहे हैं। अब्बू और मैं उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं। पहने एक घनी दाढ़ी वाला शख़्स तलवार लेकर हमारी तरफ़ तेज़ी से बढ़ रहा है, अब्बू मुझे पीछे धकेलते हुए उसके सामने आ खड़े ‘खच्च’ की आवाज़ हुई, हर तरफ़ ख़ून ही ख़ून बहने लगा। क़ब्र में लेटी हुई अम्मी यकायक उठ बैठी है, धीरे-धीरे लोग ग़ायब हो रहे हैं।” (पृष्ठ-583) 

सच में यह उपन्यास ‘तिलिस्म’ ही नहीं है, बल्कि ‘तिलिस्म’ के भीतर अनगिनत ‘तिलिस्म’। इधर अली की पत्नी फातिमा को उसका दोस्त शम्सु रेप कर देता है तो अली उसे तलाक़ दे देता है, उधर उपेन्द्र की बहिन गोलाभोला की निगम परिवार के ऑटिस्टिक लड़के से शादी होती है, मगर उसका ससुर उसके साथ रेप कर देता है। अली ख़ुद भी तो पुजारी के बेटे हीरामन और मीना की नाजायज़ औलाद होता है। उपेन्द्र का बड़ा भाई नरेंद्र बड़ा ऑफ़िसर बन जाता है, मगर घरवालों को अपने साथ नहीं रखता है। 

इस तरह उपेंद्र उपेन-उप्पी-इंद्र-इंदर-अपेंड्रा की यात्रा करते हुए उपन्यास के अंत में उपेंद्र नाथ वर्मा के नाम से परिचित होता है, दिल्ली में रह रहे साइकोलॉजिस्ट एंजेलिना से अपना परिचय देते हुए और अपने बुरे सपनों के बारे में बताते हैं, जिसमें उसे लगता है कि उसकी प्रेमिका सैरा और जॉन उसे ड्रग्स का बैग पकड़ाकर थाइलेंड एयरपोर्ट पर स्मगलिंग के मामले में उसे गिरफ़्तार करवाकर मृत्यु-दंड का भागी बना देते हैं। 

भाषा-शिल्प: 

उपन्यास का कलेवर सुदीर्घ है, अतः उसे रसात्मक बनाने के लिए दिव्या माथुर ने न केवल फ़िल्मी गानों की मशहूर पंक्तियों जैसे ‘आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे’, ‘हे नीलगगन के तले’, ‘आप यहाँ आए किसलिए’, ‘पग घुँघरू बाँध मीरा नाची’ आदि का बहुत जगह प्रयोग किया है, बल्कि अपनी पढ़ी हुई अंग्रेज़ी एवं हिंदी साहित्यिक कृतियों का भी उल्लेख धड़ल्ले से किया है जैसे: जार्ज ऑरवेल का ‘एनिमल फार्म’, जर्मेन ग्रीयर का ‘द फ़ीमेल यूनक’, टेड ह्यूज का ‘क्रो’, आइरिश लेखक आस्कर वाइल्ड की पुस्तकें ‘द इंपोर्टेन्स ऑफ़ बीइंग अर्नेस्ट’, ‘द पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे’, शेक्सपीयर की कृतियाँ ‘रोमियो जूलियट’, ‘मैकबेथ’, ‘मच ए डू अबाउट नथिंग’, ‘हेमलेट’, ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’, ‘ए मिडसमर नाइट ड्रीम’ आदि। 

उनका उपन्यास तीन-चार साल की दीर्घावधि में अत्यंत ही लगन के साथ लिखा हुआ है, तभी तो बहुत सारी भाषाओं की बारीक़ी का भी ध्यान रखते हुए पात्र के अनुरूप कहीं देहाती भाषा तो कहीं फ़रार्टेदार अंग्रेज़ी तो कहीं देहलवी हिंदी और उर्दू का सम्मिश्रित प्रयोग किया गया है। इस उपन्यास में भाषाई विविधता की झलक साफ़ दिखाई देती है। लेखिका का अनेक भाषाओं का अधिकार है, मगर साधारण पाठक के लिए कहीं-कहीं अवरोध पैदा होता है। 

‘तिलिस्म’ की भाषा को मानक हिन्दी मानना तो बहुत बड़ी ग़लती होगी। कहीं जगह विभक्तियाँ भी मानक भाषा से पृथक लगती हैं जैसे छाती पे बैठके, होली पे भाँग, तुजसे बूज कौन रा है आदि। अगर हिन्दी भाषा के पाणिनी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ज़िन्दा होते तो ‘तिलिस्म’ पर कह उठते कि–‘भाषा बहता नीर है’, ठीक है, मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उसमें व्याकरण के नियमों का उल्लंघन किया जाए। अगर उल्लंघन करना ही है तो नियम बनाना ही क्यों? मानकीकरण की बात ही क्यों करना? बोलचाल की वर्ण-संकर भाषा प्रचलन में है, वही लेखन की भाषा बने। यह किताब वाक़ई एक गाथा है जो शैली, कथ्य, शिल्प सब कुछ में मुख्यधारा के लेखन की दीवार को ढाहती-लाँघती नज़र आती है। शब्दों और वाक्यों का निर्माण और प्रयोग जो आमतौर पर हिंदी साहित्यिक लेखन से ग़ायब होता जा रहा है, वह इस किताब की पहली पहचान है। रचना में दैनिक बोलचाल के भदेश शब्दों का चयन और निर्माण व्याकरणीय शुचिता के बोझ से मुक्त है, एक प्रकार से यह लोकभाषा का विश्व-अवतार है। 

लेकिन मेरे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हम कब्बी कब्बी, मुत्ती, भोंसड़ी, भैंचो, भौत, कब्बी–कबार, ‘पच डब लब लच, जिज्जी आदि तथा बहुत सारे मज़ेदार टंग-ट्विस्टर्स जैसे ‘कमलचकूँ भई कमूलचकूँ, जीभ लचापच कमलचकूँ’,  ‘चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को ’, ‘कच्चा पापड़, पक्का पापड़’, ‘ऊँठ की पीठ कुछ ऊँठ की ऊँचाई से ऊँची नहीं है, है ही ऊँची पीठ ऊँठ की’, ‘नंदू के नाना ने, नंदू की नानी को, नन्द नगरी में, नागिन दिखाई’, ‘मर हम भी गये, मरहम के लिए, मरहम ना मिला; हम दम से गये हमदम के लिए, हमदम ना मिला’ आदि का प्रयोग किया है। आज जहाँ सड़क की भाषा को साहित्य संसद में पहुँचाता है तो क्या हज़ारों सालों से बनते-बनते साहित्य की वर्तमान पराकाष्ठा के लिए चुनौती नहीं है? यह सवाल भी सोचने लायक़ है कि जब यह किताब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाएगी तो क्या इस भाषा को मानक मानकर आने वाली पीढ़ी इसे साहित्यिक भाषा का रूप नहीं देगी? या क्या यह भाषा आने वाली पीढ़ी की साहित्यिक भाषा की भविष्य का प्रतिदर्श है? 

कहीं-कहीं तो पात्रों की भाषा पूरी तरह इतर हिन्दी हो गई है जैसे: 

“ऐ मैं तोसे कऊँ, बत्सला, चौके में कछु खा न लीजो, तुजे निराहार सिव जी पे जल चढ़ाना है। इस बेर मैंने भोला बाबा से मन्नत माँगी है के तेरा ब्या इस साल के भीतर हो जाये।”

“तू चुप्प रै, नरेन, ऐ मैं तोसे कऊँ, लड़कियाँ थोड़ेइ चढ़ाएँगी भाँग। आज के दिन सिव संकर और गौरी मैय्या का ब्या हुआ था।” (तिलिस्म: 65) 

“बल्ले बल्ले, तेरे सड़कें जावां, इंदर, हुन ते तू साउथहाल विच रैने जोगा हो गया ए” (तिलिस्म: 335) 

“लाइफ़ इज़ टू शोर्ट फ़ौर आल दिस, मैन, इफ़ इट डज़ नौट वर्क, जस्ट बौक अवे, लैट्स फ़ौर्गैट अबाउट हर, सांड्रा मस्ट बी वेटिंग फ़ौर अस,” जॉन ने हमें टोका। “लैट्स गो, उपेन्ड्रा, अदरवाइज़, जॉन विल आलसो लूज़ हिज़ न्यू पार्टनर सांड्रा टुडे,” जॉन आजकल एक हिप्पी लड़की सांड्रा के साथ नज़र आता है। (तिलिस्म: 439) 

यह सत्य है किसी भी भाषा में जैसे बोला जाता है वैसे लिखा कभी-कभी ही गया है, और जब लिखा गया तो वह कालजयी ही हुआ; चाहे प्रेमचंद की रचना हो या रेणु का ‘मैला आँचल’। लंदन में भी अपनी भाषा के महत्त्व को उजागर करते हुए लेखिका लिखती हैं:

“ग्रीनविच पर जब हम बोट से उतरे तो एक बार फिर मुझे ‘सिल्ली, उप्पी’ सुनना पड़ा, ‘ग्रीनविच नहीं, ग्रैनिच’। फ़ैरी पर अंग्रेज़ी, फ़्रैंच और जर्मनी, तीन भाषाओं में कमेंट्री सुनाई दे रही है, पर मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा; काश कि कमेंट्री हिन्दी में भी होती।” (तिलिस्म: 319) 

इसी तरह “नीति ने फिर मुझे टोका, ‘सिल्ली, कोंनवेंट नहीं, कंवेंट’ मुझे समझ में नहीं आता कि अँग्रेज़ अपने ही लिखे हुए को ग़लत क्यों बोलते हैं।” (तिलिस्म: 317)

अंग्रेज़ी की बीमारी से ग्रसित भारतीय समाज और सत्ता में अपनी-अपनी भाषा और बोलियों को लेकर जो हीन ग्रंथि है उसपर लेखिका की यह पंक्ति उन्हें औपनिवेशिक ग़ुलामी से मुक्त करने की कोशिश है, न कि अंग्रेज़ी की आलोचना करना या फिर इसकी ज़रूरत को नकारना। जिस भाषा में पले-बढ़े, जिसमें सपने देखे, जिसमें प्रेम किया, जिसमें रोया, जिसमें हँसा तो उस भाषा को बोलने में यह संकोच, मानसिक ग़ुलामी नहीं तो और क्या है! मुक्त मस्तिष्क के लिए मूल भाषा का कोई विकल्प नहीं होता। 

अंत में इतना कह सकता हूँ कि इस उपन्यास में दिव्या जी ने भले ही, पुरुषों के अंतर्मन और उनकी सैक्सुअल गतिविधियों को तलाशने का मनोवैज्ञानिक प्रयास अवश्य किया है और जहाँ-तहाँ उनकी परवर्टेड सैक्स भावनाओं को उजागर भी किया है, मगर उनके मन में पुरुष पात्रों के प्रति दया और सहिष्णुता के भाव है, न कि अन्य नारीवादी लेखिकाओं की तरह प्रतिशोध की बलवती भावना। बुकर प्राइज़ से सम्मानित भारतीय लेखिका अनिता देसाई के उपन्यासों की तरह दिव्या माथुर के इस उपन्यास में पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का संगम सहजता से देखा जा सकता है। आशा ही नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है कि इस उपन्यास का हिन्दी जगत में भरपूर स्वागत होगा। 

दिनेश कुमार माली 
तालचेर, ओड़िशा 

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टिप्पणियाँ

के पी सक्सेना 2024/01/29 02:21 PM

नमस्कार, कल शाम आपसे उपन्यास के कुछ अंश सुने थे,गोरेगांव में।और अनिल जोशी जी की प्रशंसा भी ।और आज उस पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ने को मिली। नारी होकर इतना मुखर लेखन कम से कम हिंदुस्तान में रहकर तो नहीं किया जा सकता। बहुत बधाई।

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