खंडहरों और बारिश के बीच बचपन
अनूदित साहित्य | अनूदित कविता दिनेश कुमार माली15 Jun 2020 (अंक: 158, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
मूल लेखिका: प्रो. नंदिनी साहू
अनुवादक: दिनेश कुमार माली
मैं बड़ी हुई उदयगिरि में, वह मेरा स्वप्न-नगर,
भारत के ओडिशा प्रांत का एक छोटा-सा शहर
चारों ओर भरे हुए निर्वासित खंडहर-ही-खंडहर।
वहाँ के प्यार ने हमें दिया नया जीवन
किशोरावस्था में सिखाया मूल क़ानून
‘केवल प्रेम ही दे सकता है हमें सम्मान’।
उदयगिरी में होती सुप्रभात
"आकाश वाणी के न्यूज़-रीडर गौरंगा चरण रथ द्वारा... आपका स्वागत....।"
हमारे कानों में गूँजती उसकी बात।
एक मोटे व्यक्ति की मन में उभरती एक तस्वीर
गंजा, चेहरे पर चेचक के निशान, पढ़ते हुए ख़बर
बीच-बीच में खुजला रहा होगा अपनी कमर।
भयानक बारिश, बिजली गुल सात-सात दिन
लगातार बारिश, तेज़ चक्रवात, आँधी-तूफान
कलकल करते पहाड़ी झरने, सायं-सायं करता पवन।
माँ केरोसिन स्टोव पर करती गरम
पकाती चावल-दाल, साथ में पापड़ नरम
कई दिनों तक मिट्टी-चूल्हा रहता नम।
हमारे घर-आँगन की खुली नाली का उफान
जैसे कटक में महानदी का जल-प्लावन,
पानी में छप-छप करने से प्रसन्न होता मन।
पर होती हमारी मददगार टिंटू-माँ परेशान
लगता उस पर अंतहीन लगान
बुहारती हर समय झाड़ू से आँगन।
आज और कल के बीच बहता समय का सैलाब
हार और नुक़सान ही हमारा पुश्तैनी आशीर्वाद
क्या आज होगा कल का जवाब?
धीरे-धीरे जमा होता जाता जल
सिरीकी बांध, दुगुड़ी, ईसाई पहाड़
नूआ गली, पठान गली, बाज़ार चौक, महागुड़ा गली
और ज़िले का एकमात्र एमएमसी अस्पताल।
जहाँ कभी-कभार आते ब्रिटेन के डॉक्टर
बन ग़रीबों की आशा और विश्वास का सागर
मेरे छोटे भाई-बहनों को मिला वहाँ जीवन का उपहार।
कालातीत अब समय और स्थान
जैसे दे रहा हो कोई निरर्थक भाषण
या, हिमालय की अनाम जड़ी-बूटियों का वन।
जब बीत जाते बारिश के दिन
सूरज देने लगता दर्शन
तिलचट्टे और मक्खियों से भर जाता आँगन।
एक शाम मच्छरदानी में बैठी पुस्तक पकड़कर ,
गौरंगा चरण रथ की, "आकाशवाणी..." पर आई ख़बर
उदयगिरि में आई बाढ़ भयंकर।
एक किनारे से दूसरे किनारा ‘मिली बयानी’
खंडहर दरकने लगे बारिश के पानी
ढहने लगी शहर की कमज़ोर क़िलेबंदी।
सब जगह भरा हुआ था जल जैसे सागर
उदयगिरि, दरिंगबाड़ी, कुम्भकूप,
कानबागेरी, बदनाजू, मलिकापोरी, कलिंग और भंजनगर
बिना सोये गुज़ारी वे रातें ,
तिलचट्टों के पैर गिनते
मच्छरदानी में सिर पर डायनासोर जैसे मँडराते।
केवल सोचती रही, निचले इलाक़ों में डूबे घर
बाढ़ में डूबे खेत और गाँव की डगर
जहाँ कुछ नहीं उगेगा, सिवाय खतपतवार।
केवल आह! कह रहा था दुखी मन
मेरी बहिन देख रही थी दु:स्वप्न
जल-निमग्न हो गए कई परिजन।
पड़ोसी-बाबू , गूनी, बापूनी बह गए जल-धार
माताएँ करने लगी विलाप, बहाते हुए अश्रु-धार
माँ ने भी खोया अपना इकलौता आँखों का तारा।
हुआ था उसे मस्तिष्क-आघात, तो मैं कैसे सो पाती उस रात?
मेरी बहन फुसफुसाई, "क्या तुमने सुनी कुछ आहट?"
मैंने कहा, " दीदी, सो जाइए- उदयगिरी है सुरक्षित और शांत।"
हम रात भर कल्पना करते रहे बारिश की ओट
कैसे सितारे, चंद्रमा गगन में होंगे प्रकट
पहनकर मनमोहक इंद्रधनुषी मुकुट।
लिए आसमानी सुंदर छवि का विशेषाधिकार
महत्वाकांक्षी नील गगन से होती वर्षा प्रचुर
महत्वाकांक्षी? नहीं, उदयगिरी महत्वाकांक्षाओं से थी दूर।
मगर अवश्य महत्वाकांक्षी था सुबह का सूर्य
बारिश के महीनों के बाद सर्दियों का आदित्य
कैसे करता प्रदर्शन उदयगिरी का वैभव-ऐहित्य?
ओड़िशा के प्राचीन समुद्री इतिहास पर नज़र
नम, काली शामें जैसे बोझ से झुका हो सिर
हमारे पापों की आँधी जैसे हुंआ-हुंआ करते सियार।
ऐसे में मेरी आँखों में नींद कहाँ?
सुनाई पड़ती दुख-दर्द भरी आवाज़ें, अहा!
मन भटकता रहता सारी रात जहाँ-तहाँ
मैंने यहाँ सीखी मौन और धैर्य की वर्णमाला
बग़ैर किए किसी से दुश्मनी, या क्रोध-दिखावा
सर्दियों में उदयगिरि है ओड़िशा की दार्जिलिंग-पर्वतशृंखला।
उदयगिरि में होती है केवल, बारिश और सर्दी दो ऋतु
हमेशा उदार बना रहता महत्वाकांक्षी सवितु
रहता सदैव कलिंग घाट के घने जंगलों में सुषुप्त।
ग्रीष्म ऋतु का दूसरा नाम था बसंत
चहचहाते ‘बेज’ पक्षी गुलमोहर के शिखांत
लाल फूलों से लदे, पर्ण रहित।
मेरे विद्यालय के रास्ते जाती मैं कूदती-कूकती बन कोयल
उसकी कोकिल आवाज़ को भूल
बहुत मज़ा आता था मुझे खेलने में वह खेल।
आज भी महानगर में ज़िंदा है मेरा वह खेल
आज भी अंकित है मेरे मानस-पटल
उदयगिरि के पक्षियों का किल्लोल।
तभी तो मेरा नाम रखा गया नंदिनी,
आज भी महसूस करती हूं अपने भीतर वह वाणी
यक़ीन नहीं आ रहा, कैसे बनी मेरे अस्तित्व की रानी।
इस तरह खंडहरों के बीच मैं पली-बढ़ी, धैर्यपूर्वक,
उछलने-कूदने की कला में हुई परिपक्व
छाया के संग सुबह से लगाकर शाम ढलने तक।
हर रात मेरी छाया रेंग आती मेरे द्वार
साथ में, उदयगिरि से सौगात मिली क्षति और प्यार
अस्पृश्य, मगर महसूस होते मेरे भीतर।
दीवारों से साँस की अनुभूति
सोचकर गोल्ला गली के हमारे घर की दीवार,
उस पर कालातीत प्लास्टर
जैसे हाथियों की भ्रामिक परछाई,
ज़ेब्रा या पागल औरत का फटा हुआ सिर
या कुत्ते के भौंकने या जम्हाई लेने के स्वर। साँस लेती परछाई।
अँधेरे में छूकर महसूस करती हूँ खंडहर
मेहराब, दीमक खाए एल्बम, टूटे पिलर
उमस, चिपचिपाहट, कंघी और क्रीम-पाउडर
बिछुड़े माता-पिता और भाई-बहन।
मैं आसमान पर खींचती हूँ तस्वीर
जो दर्शाती है मेरी पीड़ा-पीर
स्वर्ग पंखों समेत उतरता धरा पर,
नहीं मिलता उसे कोई सुराग़, मैं हो जाती हूँ उदास, हताश और निराश।
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