अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ


‘पक्षीवास’ से लेकर ‘रोशनी आधी-अधूरी-सी’ तक
 

एक दशक पहले जब मैंने वेब-पत्रिका “लेखनी” में प्रवासी भारतीय प्रख्यात लेखिका, कवियित्री एवं संपादिका इला प्रसाद का लेख ‘स्मृति-शेष’ में अपने दिवंगत पिताजी की मधुर यादों का संस्मरण पढ़ा तो आँखें भर आईं थीं और मेरा मन स्वतः मेरे उस अतीत काल की ओर चला गया, जब सन्‌ 1998 में मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ और मैंने उस वेदना को शब्दों का रूप दिया था “न हन्यते” पुस्तक के रूप में। वही दर्द, कमी, निसंगता व ख़ालीपन का अहसास मैंने इला जी के इस आलेख में पाया। तब मुझे हमेशा ऐसा लगता था, मेरे पिताजी मरे नहीं हैं, अभी भी जीवित हैं, कभी भी आकर मुझे मिलेंगे और कहेंगे, “बेटा, अपनी तबीयत का ध्यान रखना। तुम्हीं हमसे बहुत दूर हो।” 

यह जानते हुए भी कि यह झूठ और बहुत बड़ा भ्रम है। ठीक उसी प्रकार की संवेदनाओं को इला जी ने अपने बाल्य-जीवन, किशोरावस्था की अन्यतम यादों को जिस सहज, सरल और प्रभावशाली शैली में उकेरा है, उतना ही विदेश की धरती से उनसे दूर होने के दुख को। बचपन के मानस-पटल की स्मृतियों को उजागर किया है जैसे उनके पिताजी द्वारा हाथ पकड़कर लिखवाना तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से सीखने के लिए प्रेरित करना। पिता और पुत्री का यह प्यार अपने आप में उल्लेखनीय हैं। यह परिवार भारतीय संस्कृति, साहित्य तथा परम्पराओं से ओत-प्रोत था, जिसने साहित्य जगत को बहुत कुछ दिया। भारतीय साहित्य को एक नई ऊँचाई तक पहुँचाने में अकथनीय योगदान ही नहीं दिया, वरन्‌ नवोदित लेखकों में साहित्य-प्रतिभा की ऊर्जा का शक्तिपात कर एक नई पीढ़ी का निर्माण भी किया। पूर्णिमा केडिया, इला प्रसाद जैसे कई उदाहरण आज विश्व पटल पर छाए हुए हैं। मैं उसे अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि इला जी और उनके पिताजी स्वर्गीय दिनेश्वर प्रसाद जी के आशीर्वाद की वजह से ही मैंने ओड़िया भाषा से हिन्दी में, जो कुछ थोड़ा-बहुत अनुवाद का कार्य किया, वह पाठकों में प्रशंसनीय एवं लोकप्रिय साबित हुआ। पहली बार जब मैंने लेखक दंपती सरोजिनी साहू और जगदीश मोहंती के माध्यम से अपना पहला हिन्दी ब्लॉग, “सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियां” बनाया था, जो आगे चलकर राजपाल पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से “रेप तथा अन्य कहानियाँ” नाम से प्रकाशित हुआ। इस ब्लॉग की प्रथम कहानी “दुख अपरिमित” में इला जी ने अपनी पहली प्रतिक्रिया प्रदान की थी, जो मेरी साहित्य साधना की एक चिंगारी थी। बस, यही वह प्रतिक्रिया थी जिसने मुझे इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उस समय सामान्यतया ब्लॉग जुगनू की तरह होते थे, कुछ समय के लिए कंप्यूटर पटल पर दिखते थे और फिर ग़ायब हो जाते थे। मगर इस ब्लॉग ने मेरे लिए अलग-अलग प्रकाशकों, प्रिंट मीडिया के संपादकों तथा अलग-अलग रुचि के पाठकों के हृदय में पैठ करने का मार्ग प्रशस्त किया। इला जी ने मेरी कमज़ोर नब्ज़ पकड़ ली थी। मेरे लेखन-कार्य में हिन्दी-व्याकरण, शैली, वाक्य-विन्यास तथा संरचना संबधित जो कुछ त्रुटियाँ बच जाती थीं, उसकी तरफ़ न केवल मेरा ध्यानाकृष्ट करती थीं, वरन्‌ साहित्यिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण दस्तावेज़ों के लिंक भी भेजती थीं, ताकि मैं उनका अध्ययन कर साहित्य की बारीक़ियों को समझूँ और साथ ही साथ, अपनी भाषा-शैली को परिपक्व, पैनी और प्रभावशाली बना सकूँ। उनके इस मार्गदर्शन की वजह से मैंने उन्हें मन ही मन मेरा पहला साहित्यिक गुरु मान लिया था। किसी भी प्रकार संदेह का समाधान करने के लिए मैं उन्हें ई-मेल कर देता था, सबसे ख़ुशी की बात थी कि वे मेरा हर कार्य के लिए अपने व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकालकर उचित मार्गदर्शन करती थीं। उनके इस वरद्हस्त ने मेरे भीतर एक अपूर्व साहस और उत्साहवर्धन किया, जिसकी वजह से आज तक मेरा अनुवाद कार्य का सिलसिला अनवरत जारी हैं। सात समंदर दूर से यह अलौकिक प्रेरणा मेरे लिए किसी दैनिक उपहार से कम नहीं थी। कहानियों के ब्लॉग के साथ-साथ मैंने सरोजिनी साहू के प्रसिद्ध उपन्यास “पक्षीवास” के अनुवाद का कार्य भी प्रारम्भ किया, मगर मुझे अपने आप इतना विश्वास नहीं था कि यह कार्य प्रकाशन-योग्य होगा अथवा साहित्य की कसौटी पर खरा उतरेगा। मेरी आँखों के सामने अँधेरा नज़र आने लगा—कि चार-पाँच महीने के इस अथक प्रयास पर कहीं पानी न फिर जाए। मन में यह भी डर था कि इतने बड़े उपन्यास को क्यों कोई मेरे ख़ातिर पढ़कर व्याकरण-दोष बताने के साथ-साथ अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रिया देगा। आज की आपाधापी और भागदौड़ की ज़िन्दगी में किसके पास इतना समय है! मन ही मन डरते हुए मैंने इसकी सॉफ़्ट कॉपी इला जी के पास फ़ॉरवर्ड कर दी, इस अनुरोध के साथ कि आप कम से कम एक बार इसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँ। कभी भी मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ कि उन्होंने मेरे ई-मेल का उत्तर नहीं दिया हो, भले ही थोड़ा-बहुत विलंब क्यों न हुआ हो। एकाध महीने के बाद उनका जवाब आया कि उपन्यास का विषय बहुत ही अच्छा है, मगर उसमें से संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, लिंग-विभेद तथा कुछ अन्य हिन्दी व्याकरण संबंधित त्रुटियाँ हैं। अगर इन त्रुटियों का सही तरीक़े से संशोधन कर दिया जाता है तो यह रचना हिन्दी-साहित्य के लिए वरदान साबित होगी। यही नहीं, अपना एक विशिष्ट स्थान भी बनाएगी। परन्तु मेरे लिए व्याकरिणक त्रुटियों का संशोधन बहुत बड़ा पहाड़ था। लगभग हर विज्ञान-आभियांत्रिकी के विद्यार्थी के लिए यह जटिल समस्या थी। मगर इला जी के लिए यह कोई समस्या नहीं थी भले वह भी विज्ञान की छात्रा थीं। हिन्दी भाषा और साहित्य पर उनमें इतनी पकड़ कहाँ से आ गई, यह मेरे लिए सोचने का विषय था। अनुस्वार, अनुनासिक, चन्द्रबिन्दु, समास आदि की इतनी सूक्ष्म जानकारी मेरी समझ से परे थी। एक दिन जिज्ञासावश मैंने घुमा-फिराकर इस बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने अपने जवाबी ई-मेल में लिखा:

“मेरे पिताजी रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। आप चाहो तो उनसे मिलकर किसी भी समस्या, संदेह का निवारण कर सकते हो। मैं उन्हें आपके बारे में बता दूँगी। उन्हें राष्ट्रपति के द्वारा राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार के अतिरिक्त ढेरों छोटे–बड़े पुरस्कार/सम्मान मिल चुके हैं। फ़िलहाल काफ़ी उम्र हो चुकी हैं, मगर अभी भी प्रतिदिन एक दो घंटा अवश्य पढ़ते हैं। आजकल घुटनों के दर्द, गठिया (अर्थराइटिस) की बीमारी से पीड़ित हैं। सुनने की शक्ति भी कम हुई है। इसलिए मध्याह्न के समय फोन बंद करके सो जाते हैं। अच्छा होगा कि अगर आप उनसे या तो सुबह या फिर शाम के समय फोन पर अपनी समस्या के बारे में बातचीत कर सकते हो। वे अवश्य उनका निवारण करेंगे।” 

इस ई-मेल के साथ उन्होंने अपने पिताजी का पता, फोन नंबर तथा वहाँ पहुँचने की विस्तृत जानकारी दे दी थी। तब तक मैंने अपने मित्रों श्याम सुंदर खंडेलवाल, अशोक कुमार, विजय कुमार खरद तथा उदयपुर की प्रख्यात लेखिका विमला भंडारी की मदद से व्याकरण सम्बन्धित त्रुटियों का संशोधन कर एक नई पांडुलिपि प्रिंट आऊट करके सर्पिल बाइंडिंग बना ली थी। अब मेरे लिए सवाल यह था कि या तो मैं स्वयं रांची चला जाऊँ या फिर डाक अथवा कूरियर के माध्यम से उनके पास यह पांडुलिपि भेज दूँ। तभी मुझे पता चला कि हिलटाप कॉलोनी, ब्रजराजनगर में पड़ोस में रहने वाले मेरे मित्र श्री राजीव चंद्र झा, विद्युत अभियंता रांची के रहने वाले हैं और अगले हफ़्ते किसी घरेलू कम से रांची जाने वाले हैं। मुझे ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैंने उनके घर जाकर पांडुलिपि पकड़ाते हुए निवेदन किया कि वे मेरा छोटा-सा कम कर दें—यह पांडुलिपि डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के घर पर पहुँचा दे। उन्होंने बिना कुछ बोले मेरे यह कार्य स्वीकार कर लिया। बस वह दिन आ गया। जब झा साहब मेरी पांडुलिपि लेकर उनके घर पहुँचे। बाहर बरामदे में कुछ विज्ञजन बैठकर डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब झा साहब ने बात-बात में उत्सुकतावश उन लोगों के आने के उद्देश्य के बारे में पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया, “डॉ. दिनेश्वर प्रसाद हिन्दी-साहित्य के शिरोमणि हैं। यहाँ एक वृहद् स्तर पर साहित्यिक आयोजन होने जा रहा है उस समारोह में उनके अध्यक्ष पद की अनुमति लेने के लिए हम सभी यहाँ आए हैं।” 

झा साहब ने अनुभव किया कि वास्तव में डॉ. दिनेश्वर कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं। अवश्य ही, वह एक बहुत बड़ी हस्ती से मिलने जा रहे हैं। शायद वह वक़्त उनके सोने का रहा होगा। घर के भीतर घंटी बजाकर पूर्वागंतुकों ने पहले से ही उनके आने का संदेश दे दिया था। कुछ समय उपरांत जब दरवाज़ा खुला तो धोती पहने हुए, आँखों पर चश्मा लगाए, लंबी क़द-काठी के वयोवृद्ध, एक सौम्य व्यक्तित्व के धनी ने मुस्कुराते हुए उन्हें भीतर आने का इशारा किया और अपना-अपना आसन ग्रहण करने के बाद मृदुल स्वर में कहा, “कहिए, कैसे आना हुआ?” 

उन भद्र लोगों ने अपने आने का उद्देश्य विस्तार पूर्वक बता दिया। फिर कुछ समय तक इधर-उधर की बातें चली। शायद उस आयोजन की कुछ तकनीकी ख़ामियों तथा अपने-अपने ख़राब स्वास्थ्य के चलते उस समारोह में ज़्यादा समय देने में अपनी असमर्थता जताते हुए उन्होंने विनयपूर्वक असहमति प्रकट कर दी। उसके बाद वे लोग चले गए। अकेले पाकर झा साहब ने अपनी पांडुलिपि उनके सामने प्रस्तुत करते हुए कहा, “सर, मैं ब्रजराजनगर से राजीव चंद्र झा . . .” 

तभी उनकी बात काटते हुए वे कहने लगे, “अच्छा, तो आप हैं दिनेश जी, ब्रजराजनगर से आए हैं। इला ने फोन पर बताया था। ऐसे तो मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती हैं, फिर भी यह उपन्यास पूरा पढ़ूँगा और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूँगा। मुझे अर्थराइटिस की बीमारी हैं अतः ख़ुद लिख नहीं पाऊँगा। आप दस-बारह दिन के बाद घर आ जाइयेगा। मैं डिक्टेट कर दूँगा, और आप अपने हाथ से लिख देना। छोटी-मोटी अगर कुछ त्रुटि होगी तो मैं सुधार दूँगा।” 

यह सारा वृत्तांत झा साहब ने मुझे फोन पर सुनाया। मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। मेरी पहली किताब पर इतने बड़ी हस्ती का अभिमत छपना मेरे लिए किसी गौरव से कम बात नहीं थी। 

दस-पंद्रह दिनों के बाद जब झा साहब उनके घर गए तो उन्होंने उपन्यास का बहुत ही बेहतरीन समीक्षात्मक अभिमत लिखवाया। अभिमत देने के बाद उन्होंने फोन पर मुझसे बात की, “दिनेश, सचमुच में आप साधुवाद के पात्र हैं। इतने अच्छे ओड़िया उपन्यास को हिन्दी भाषा में लाने का आपने सार्थक प्रयास किया है। बहुत ही अच्छा अनुवाद हुआ है। व्याकरण संबन्धित एकाध जगह को छोड़कर कोई ग़लती नहीं है। इस प्रयास को जारी रखें। आपके मित्र को डिक्टेट करवाकर मैंने अभिमत लिखवा दिया है, टाइप करके लाने से मैं उस पर अपने हस्ताक्षर कर दूँगा।” 

फिर उन्होंने ओड़िशा के बारे में इधर-उधर की कुछ बातें की। भुवनेश्वर के उत्कल विश्वविद्यालय, सम्बलपुर की गंगाधर मेहेर महाविद्यालय और कोरापुट की डी.ए.वी. कॉलेज आदि में काम कर रहे अथवा सेवानिवृत्त अपने प्रोफ़ेसर मित्रों के बारे में जानना चाहा। मुझे उन विद्वान लोगों के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं थी, मगर वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय दिन था। कैसे भूल सकता था मैं, इतने बड़े इंसान से वार्तालाप करके मन ही मन एक आनंद की अनुभूति जो कर रहा था। उनके आशीर्वाद ने मेरे भीतर एक अमिट आत्म-विश्वास पैदा किया कि मेरे द्वारा किया गया अनुवाद कार्य किसी भी मायने में व्यर्थ साबित नहीं हुआ। और मेरे चेहरे पर आत्मसंतुष्टि की झलक स्पष्ट देखी जा सकती थी। मैं उनका अभिमत पाठकों की जानकारी के लिये नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:

“पक्षी-वास श्रीमती सरोजिनी साहू का ओड़िया उपन्यास है जिसका अनुवाद श्री दिनेश कुमार माली ने हिन्दी में किया है। डॉ. सरोजिनी साहू समकालीन भारतीय लेखन का एक सुपरिचित नाम हैं, किन्तु हिन्दी में इनकी किसी भी रचना का अनुवाद नहीं हुआ है। श्री माली ने उनके उपन्यास का अनुवाद कर वास्तव में हिन्दी और ओड़िया के बीच सुदृढ़ रचनात्मक सेतु बनाने का कार्य किया है; क्योंकि जो भी हिन्दी भाषी इसे पढ़ेंगे, लेखिका के सम्बन्ध में उसकी ‘धारणा’ एक बड़ी रचनाकार की बनेगी। आज पूरे भारत में ऐसे रचनात्मक क्षेत्र का संधान करने वाले विभिन्न भाषाओं के लेखक प्रयत्नशील हैं। हिन्दी में भी आज उन उपेक्षित क्षेत्रों पर कथा-साहित्य की रचना हो रही है, जिनका बोध हिन्दी पाठक संसार को नहीं था। डॉ. सरोजिनी साहू का पक्षी-वास इस खोज-परम्परा की एक मज़बूत कड़ी है। उन्होंने समाज के निम्नतर स्तर पर जीने वाले उन सतनामियों का चित्रण किया है, जो ओड़ीशा के कोरापुट से लेकर छत्तीसगढ़ तक फैले हुए हैं। ये सतनामी इतने विपन्न हैं कि इनकी जीवन कथा जाने बिना उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सतनामी परम्परा से अपनी मूलजाति रविदास के पेशे से जुड़े हुए हैं लेकिन गुरु घासीदास के वैष्णव आन्दोलन से जुड़ने के बाद इनका एक आध्यात्मिक पक्ष भी विकसित हुआ है, किन्तु इनके जीवन का कटु सामाजिक यथार्थ इनको जातिगत पेशे से मुक्त होने का न तो अवसर देता है और न इनका अध्यात्म इन्हें वृहत्तर समाज में सम्मान दिला पाता है। इन्हीं अन्तर्द्वन्दों में फँसे एक सतनामी परिवार की कथा पक्षी-वास है। अन्तरा और सरसी के तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। संन्यास सबसे बड़ा पुत्र है जो क्रिस्टोफर बन जाता है, दूसरा पुत्र डॉक्टर बँधुआ मज़दूर और तीसरा पुत्र वकील नक्सली बन जाता है एवं पुत्री परबा वेश्या बन जाती है। जाति के परम्परागत ढाँचे से मुक्ति की कामना इन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाती है। परन्तु समस्या के सीधे-सीधे साक्षात्कार और उससे मुक्ति की कामना नकारात्मक दिशा की ओर ले जाती है। भारत के विभिन्न राज्यों में नक्सलवाद क्यों पनप रहा है, इसका एक प्रामाणिक दस्तावेज़ पक्षी-वास है। 

पक्षी-वास समाज के जिस यथार्थ पर आधारित है, उसकी समस्त असहायता करुणा और विद्रोह का अविस्मरणीय दस्तावेज़ है। मेरा विश्वास है कि हिन्दी के पाठक इसके माध्यम से न केवल डॉ. सरोजिनी साहू के महत्त्वपूर्ण कृतित्व से परिचित होंगे, बल्कि उड़िया भाषा की बढ़ती हुई ऊँचाई का भी उनको बोध होगा। यदि यह सब सम्भव हो सका हो तो इसका सारा श्रेय श्री दिनेश कुमार माली जी को जाता है . . .। 

—डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, 
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष, 
राँची विश्वविद्यालय, राँची-834001” 

उस समय डॉ. दिनेश्वर प्रसाद, जिन्हें इला जी अपने पत्राचार में हमेशा बाबूजी के नाम से संबोधित करती थी, उम्र तक़रीबन अस्सी के आस-पास रही होगी। उनका वह प्रभावशाली अभिमत पढ़कर हार्दिक इच्छा हुई कि अगर कभी संयोग बना तो मैं उनसे मिलने अवश्य जाऊँगा। मन में दृढ़ संकल्प था, इसलिए शायद भगवान ने मेरी पुकार सुन ली। एक-दो महीने के बाद उनका फोन आया, “मैं रांची से दिनेश्वर प्रसाद बोल रहा हूँ  . . . ” 

इधर फोन के रिसीवर पर उनकी जानी-पहचानी गंभीर आवाज़ सुनकर मुझे अपने पिता की याद हो आई। पिताजी का भी ऐसा ही लहजा था। तुरंत ही मैं उन्हें पहचान गया। 

“हाँ सर, मैं दिनेश . . .।” 

“दिनेशजी . . . इला आई है यू.एस.ए. से। अगर मिलना चाहो तो आ जाओ। उसका दस-बारह दिन इंडिया में रहने का प्रोग्राम है।” 

“सर, अवश्य, मैं एक हफ़्ते के भीतर रांची आने का प्रोग्राम बनाता हूँ। मुझे उनसे मिलना बहुत ज़रूरी है।” फोन पर उत्तर देते समय मेरे चेहरे पर थिरकती मुस्कान को देखकर धर्मपत्नी शीतल से रहा नहीं गया और मुस्कुराते हुए वह पूछने लगी, “क्या बात है? आज बहुत ख़ुश नज़र आ रहे हो। किनका फोन था?” 

“रांची से प्रोफ़ेसर साहब का फोन था, जिन्होंने ‘पक्षीवास’ उपन्यास की भूमिका लिखी है। कह रहे थे, कैनेडा से उनकी बेटी इलाप्रसाद आई हुई है। मैं सोच रहा हूँ . . .” 

मेरी बात को बीच में काटते ही वह तपाक से बोल पड़ी, “हमें उन्हें मिलने जाना चाहिए। रांची में। हैं न?” 
उसकी आवाज़ में कोई कटाक्ष नहीं था, बल्कि एक अपरोक्ष सहमति थी। 

“बिलकुल सही, जानती हो न। इतने बड़े विद्वान लोगों से जब तुम मिलोगी, तब यह बात समझ में आएगी कि क्यों ‘विद्वान सर्वत्र पूज्यन्ते’ वाली उक्ति सही है। यह हमारा सौभाग्य है। यही नहीं, अगर अपने सोनू-मोनू को उनका आशीर्वाद मिल गया तो वे भी अच्छे संस्कार पाकर आगे जाकर भविष्य में कुछ बड़े इंसान बन सकते है।” 

दार्शनिक बातों के माध्यम से मैं किसी भी तरह उसका मन जीतना चाहता था। इला जी ने पहले ही थोड़ा बहुत अपने परिवार के बारे में मुझे बताया था कि उनकी एक और बहिन हैं, वह कोल इंडिया लिमिटेड के दिल्ली ऑफ़िस में कार्मिक विभाग में वरीय प्रबन्धक के रूप में कार्यरत है (इला प्रसाद की छोटी बहिन और कोई नहीं, बल्कि नीला प्रसाद थीं, जो कोल इंडिया के कोलकत्ता ऑफ़िस से महाप्रबंधक (कार्मिक) से एक-दो साल पहले ही सेवा-निवृत्त हुई हैं) और उनका एक भाई भी है जो आस्ट्रेलिया की किसी कंपनी में वैज्ञानिक है। इस प्रकार माता-पिता रांची में नितांत अकेले रहते हैं। सभी बच्चे “पक्षीवास” के पक्षियों की तरह इस घोंसले से अपने-अपने धंधों की तलाश में बाहर निकल गए थे। सुख-दुःख में अवश्य ही दोनों लोग एकाकीपन अनुभव कर रहे होंगे। ये ही सारी बातें मैं सोच रहा था, तभी धर्मपत्नी ने ख़ुश होते हुए कहा, मानो लाखों की लॉटरी खुल गई हो, “चलो, इसी बहाने हमें रांची घूमने का मौक़ा भी मिल जाएगा। लेकिन मेरी एक शर्त है कि कम से कम तीन-चार दिन वहाँ रुकेंगे।” 

मैंने उसकी यह शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली। तुरंत रांची स्थित सेन्ट्रल माइनिंग प्लानिंग डिज़ाइनिंग इंस्टीट्यूट में कार्यरत ब्रजराजनगर (ओडिशा) में मेरे पूर्व प्रभारी रहे महाप्रबंधक श्री आलोक कुमार धर को फोन पर मेरे इस प्रोग्राम की जानकारी देते हुए वहाँ के अतिथि-गृह में तीन दिन के लिए एक कमरा बुक करवा लिया। 

निश्चित दिन जब ब्रजराजनगर से रांची पहुँचे। शायद अक्टूबर या नवंबर का महीना रहा होगा, मगर बेमौसमी रिमझिम बारिश हो रही थी। हवा में काफ़ी ठंडक थी। हम सभी ने गरम कपड़े पहन रखे थे। सभी के मन में उनसे मिलने तथा रांची देखने की उमंग थी। बच्चों में कुछ ज़्यादा ही ऊर्जा व जोश था। हटिया रेलवे स्टेशन उतरकर टैक्सी किराए कर सीधे ही कांके रोड में स्थित सेन्ट्रल माइनिंग प्लानिंग डिज़ाइनिंग इंस्टीट्यूट के अतिथि-गृह में पहुँचकर अपना सामान रखकर लंच करने के बाद बच्चों समेत हम रिक्शे में बैठकर रांची के उद्धव बाबू लेन उनके निवास स्थान की ओर रवाना हो गए। शाम का समय था। बरसात पूरी तरह से रुकी नहीं थी। अभी भी आकाश में कहीं-कहीं दूर-दराज़ बिजली चमक रही थी। हल्की-हल्की फुहारें गिर रही थी। मौसम काफ़ी ठंडा हो गया था, ऐसा लग रहा था मानो हिमालय की बर्फ़ीली हवाएँ कहीं दस्तक दे रही हो। मैंने बच्चों से कहा कि यहाँ से हिमालय काफ़ी नज़दीक है। बच्चों ने अपनी कनपटी पर मफ़लर बाँध लिए थे। रांची की चौड़ी सड़कों तथा भीड़ भरे रास्तों को पार करके अपर बाज़ार की तंग गलियों से होते हुए रिक्शे वाले ने हमें उनके घर के सामने लाकर खड़ा कर दिया। घर भीड़ वाले इलाक़े में था। उनका एक मंज़िला छोटा-सा मकान था, लेकिन वह घर जिस जगह बना हुआ था, वह रांची की हृदयस्थली थी। घर के मुख्य दरवाज़े पर लगी कालबेल के बटन को जैसे ही मैंने बजाया। घर के अंदर से एक आवाज़ आई, “कौन?” 

“जी, हम ब्रजराजनगर से आए हैं इला जी को मिलने।” 

और क्या कहते, संक्षिप्त में मैंने उत्तर दिया। ऐसे मैंने इला जी को फोन पर आने की तारीख़ बता दी थी, मगर समय कैसे बता पाता। 

“इला तो अभी घर पर नहीं हैं। बाज़ार गई हुई है।” 

“जी, हमें डॉ. दिनेश्वर प्रसाद साहब से मिलना था,” नरम रुख़ से मैंने कहा। 

“आइए, आइए, भीतर आइए। अभी वे सो रहे हैं। आप लोग बैठिए, मैं उन्हें उठा लेती हूँ . . .” साड़ी का पल्लू सिर पर डाले एक भद्र महिला ने आदरपूर्वक हमें भीतर बुलाया। मैंने मन ही मन सोचा, ज़रूर इला जी की माताजी होगी और मेरी बात सही थी। कुछ समय बाद भीतर से पूरी बाज़ू वाले स्वेटर पहनकर उस पर शाल ओढ़े सिर पर मंकी केप लगाए एक बुज़ुर्ग व्यक्ति बैठक कक्ष में आए। हम सभी लोगों ने उनका चरण-स्पर्श कर अभिवादन किया। उन्होंने सोफ़े पर बैठने का संकेत किया। मुझे किसी भी प्रकार का असहज नहीं लग रहा था, बल्कि मुझे इतना आत्मीय लग रहा था मानो मैं अपने पिताजी की झलक उनमें देख रहा था। वही लंबी क़द-काठी, वही दुबला-पतला शरीर, वही सौम्य भाषा। इतनी समानता! कुछ समय के लिए मैं अपने अतीत में खो गया था। पिताजी अक़्सर कहा करते थे, “बच्चो, भाषाओं पर अधिकार प्राप्त करो। चाहे वह अंग्रेज़ी हो या फिर हिन्दी। जिनका भाषा पर अधिकार है, दुनिया उनकी मुट्ठी में है। और जिनके पास वाग्धारा का अभाव है, उन्हें विद्वानों की सभा में सम्मान नहीं मिलता है। ठीक उसी प्रकार की बात है ‘ते न शोभन्ते हंसों मध्ये बको यथा’।” 

“इला ने अब तक आप लोगों का इंतज़ार किया था। अभी-अभी वह बाज़ार गई है। थोड़े समय बाद आ जाएगी,” कहकर उन्होंने हमारे तथा बच्चों के बारे में पूछना शुरू किया। पूरी तरह से आत्मीय माहौल था। घर के बैठक रूम नीचे दरी बिछी हुई थी और सामने की दीवार में बनी अलमारी किताबों से ठूँस-ठूँस कर भरी हुई थीं। टेबल पर कुछ काग़ज़ बिखरे हुए थे। जैसे ही उपन्यास का ज़िक्र आया, प्रोफ़ेसर साहब ने प्रशंसा भरे लहजे में कहा, “बहुत बड़ी रचनाकार है सरोजिनी साहू! ऐसे रचनाकार को हिन्दी भाषा में लाकर आपने बहुत बड़ा काम किया है। अनुवादक दो भाषाओं की सरिताओं का सेतुबंध है।” 

उसके बाद उन्होंने हिन्दी भाषा के वर्तमान स्वरूप, उर्दू भाषा का उसमें सम्मिश्रण, फ़िल्मी-हिन्दी, आसपास की जन जातीय भाषा और बोलियों के अतिरिक्त लोक साहित्य पर इस विस्तार से चर्चा की। डॉ. दिनेश्वर प्रसाद पटना विश्वविद्यालय (नवम्बर 1955–जुलाई 1957) एवं रांची विश्वविद्यालय (अगस्त 1957–फरवरी 1993) के पूर्व प्रोफ़ेसर और हिंदी विभागाध्यक्ष तथा मानविकी संकायाध्यक्ष रह चुके थे। वे हिन्दी में एम.ए. (पटना), डी.लिट. (रांची) थे। बात-बात में उन्होंने बताया कि उनका जन्म 04.01.1932 को ग्राम मयादारियापुर, मुंगेर (बिहार) में हुआ। वे फ़ादर कामिल बुल्के का ज़िक्र करना नहीं भूले कि किस तरह एक विदेशी आदमी ने बेल्जियम से भारत आकर इलाहाबाद से सन्‌ 1947 में एम.ए. (हिन्दी) तथा ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ विषय पर गहन शोध कर डॉक्टर ऑफ़ फिलॉसफी की उपाधि प्राप्त की। फिर उन्होंने साहित्य अकादमी से प्रकाशित अपनी पुस्तक फ़ादर कामिल बुल्के के पहले पृष्ठ पर अपने हस्ताक्षर कर मुझे देते हुए कहा, “तुम इसे अवश्य पढ़ना। जिस कुर्सी पर तुम बैठे हो, उसी कुर्सी पर हमेशा फ़ादर कामिल बुल्के साहब बैठा करते थे। वे मेरे परम मित्र थे और मैं उनका वैयाकरण का काम करता था। जब वे बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद कर रहे थे और उन्हें किसी भी प्रकार की व्याकरण संबंधित समस्याएँ आती थीं तो मैं उनका निराकरण करता था। कहते हैं जब कोई संत पुरुष किसी के घर में आते हैं तो एक अद्भुत शान्ति का अनुभव होता है और ठीक वैसा ही अनुभव उनके आने पर होता था। सही मायने में वह बहुत बड़े संत थे। अंग्रेज़ी-हिंदीकोश और बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद कर भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक बिन्दु पर जोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।” 

ऐसे संस्मरण सुनाते-सुनाते वे कहीं खो से जाते थे। फिर वर्तमान में लौटकर कहना जारी रखते थे, “उन्हें कम सुनाई पड़ता था। कानों में सुनने की मशीन लगा रखी थी। इस वजह से वे संगीत का आनंद नहीं ले पाते थे। एक बार दिल्ली जाते समय हवाई जहाज़ में गिर गए थे, तब से उनके पाँव में एक घाव हो गया था, जो आगे जाकर उनकी मौत का कारण बना। भारत सरकार ने उन्हें इलाज के लिए बाहर भेजना चाहा, मगर उन्होंने स्वीकार नहीं किया। शायद उन्हें अपनी मौत का पूर्वानुमान हो चुका था। सही अर्थों में, वह सच्चे भारतीय थे।” 

तभी माताजी ने टेबल पर चाय लाकर रख दी। चाय पीने का संकेत करते हुए डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी ने कहना जारी रखा। मैं चाय की चुस्की लेते हुए तन्मय भाव से उन्हें सुन रहा था। 

“जब बनारस हिन्दी यूनिवर्सिटी में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने उन्हें तुलसीदास की राम चरित मानस पर डाक्टरेट करने से रोका, यह कहकर कि एक अँग्रेज़ आदमी तुलसी साहित्य पर पीएच. डी. कर पाएगा? फिर भी उनको परखने के लिए रामचरित मानस के किसी श्लोक का भावार्थ समझाने के लिए कहा गया, जिस तरीक़े से सविस्तार पूर्वक उन्होंने अर्थ समझाया। इतना सटीक और सही अर्थ सुनकर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा चकित रह गए और सहर्ष पीएच. डी. करने की अनुमति प्रदान कर दी। तुलसी दास की तुलना वह ईसा मसीह से करते थे और दोनों को भगवान का प्रिय पुत्र मानते थे।” . . .

ऐसे ही बातों का दौर चल रहा था कि छाता लिए हुए इला जी ने अपने घर में प्रवेश किया। बाहर अभी बारिश हो रही थी। हम सभी ने उनका अभिवादन करते हुए चरण स्पर्श किया तो वह सकुचाने लगी। उन्हें देखकर मैं सोचने लगा कि क्या वह वही इला जी है, जिन्हें मैं ‘अभिव्यक्ति और अनुभूति’ वेब-पत्रिका में पढ़ता था। आज भी मुझे उनकी ‘खिड़की’ जैसी मर्मान्तक कहानी और कई हृदय-स्पर्शी कविताएँ याद है। साँवला रंग, दुबला-पतला शरीर और मध्यम क़द। वही इला जी है, मेरे ब्लॉग पर जिनकी एक टिप्पणी ने मुझे आंदोलित किया था। वही इला जी है, आई.आई.टी. में जिनके शोधपरक वैज्ञानिक आलेख आज भी चर्चित है। क्या वही इला नरेन है, जिनके आकाशवाणी रांची से कई प्रोग्राम प्रसारित होते थे। बस, मानो मन के भीतर सवालों की झड़ी-सी लग गई थी। पहली बार देखने से, पता नहीं, मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि वह काफ़ी अंतर्मुखी और शर्मीली हैं। वह सीधे रसोई घर में चली गईं, हो न हो, वह बाज़ार से सब्ज़ी ख़रीद कर लाई हों। अपनी माँ के साथ मिलकर कुछ बनाने लगीं। बैठक-कक्ष में हमारी साहित्यिक चर्चा ज़ोरों पर थी। 

गरम-गरम पकौड़ी अपने हाथ से बनाकर उन्होंने हमारे सामने परोस दीं। विदेश से अभी-अभी इतने सालों के बाद भारत लौटी हैं, उन्हें कुछ समय के लिए विश्राम करना चाहिए था, मगर भारतीय संस्कृति और परिवेश में पली-बड़ी लड़की इतने बड़े ओहदे पर होने के बाद भी अपनी माँ के काम में हाथ बँटा रही है। अल्पाहार कर लेने के बाद इला जी ने हमसे पूछा, “आप ओड़िया हैं?” 

“नहीं, मैं राजस्थान से हूँ। जोधपुर से माइनिंग में आभियांत्रिकी का कोर्स करने के बाद ओड़िशा में नौकरी कर रहा हूँ।” 

“मतलब बेसिकली आप मारवाड़ी हैं। फिर ओड़िया भाषा . . .?” 

“यह प्रयोजनमूलक है। ओड़िशा में रहते-रहते पंद्रह साल हो गए, अतः यहाँ की कला, संस्कृति साहित्य से परिचित हूँ।” 

मैंने उनसे अमेरिका के बारे में पूछा। वह थकी हुई लग रही थीं। उन्होंने बताया कि कल वह अपने गुरु स्वामी सत्यानंद जी के दर्शनार्थ मुंगेर जाएगी, उनसे दीक्षा ले रखी थी। मैंने इधर-उधर देखा। सोनू-मोनू शायद बोर होने लगे थे। पत्नी भी थकान अनुभव कर रही थी, वह अपना इशारा अपनी थैली की तरफ़ कर रही थी, जिसमें उसने सम्बलपुर के नज़दीक रेंगाली गाँव से पीतल का एक छोटा-सा कलश उन्हें उपहार देने के लिए लाई थी। फिर भी, मैंने जिज्ञासावश उनसे काफ़ी बातें कीं। जैसे ही हम उठ खड़े हुए जाने के लिए, वैसे ही उस कलश को शीतल ने उनके हाथों में पकड़ा दिया। 

“अरे, यह क्या? क्या ज़रूरत थी इसकी?” 

“नहीं, यह तो कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ एक स्मृति-चिह्न है। आपको सात समंदर दूर उत्कल धरा की याद दिलाता रहेगा,” मुस्कुराते हुए शीतल ने कहा। 

वास्तव में उन्हें वह प्रतीक-चिह्न बहुत पसंद आया। बदले में वह सोनू-मोनू को कुछ देना चाह रही थीं। मैंने कहा, “आप चिंता मत कीजिए। आज से यह हमारा घर है। और कभी, हम तो यहाँ किसी न किसी काम की वजह से आते रहेंगे। आख़िर कितना दूर है रांची, ब्रजराजनगर से! पिताजी की तबीयत का ध्यान रखिएगा।” 

यह कहते हुए मैंने उनसे अनुरोध किया कि हम सभी का एक सामूहिक फोटोग्राफ हो जाए। जब कभी भी उसे देखेंगे तो सारी मधुर स्मृतियाँ ताज़ी हो जाएँगी और जब बच्चे बड़े हो जाएँगे तब फोटो देखकर वे अपने आपको भाग्यशाली समझेंगे। बात भी सही थी। जैसे ही इला जी का आलेख ‘स्मृति-शेष’ में बाबूजी के फोटोग्राफ देखे तो एक ही क्षण में सारी यादें मानस पटल पर उभरकर सामने आ गई। 

बाबूजी के दिवंगत होने की ख़बर मुझे फोन पर झा साहब ने रांची में अख़बार देखकर सूचित कर दिया था। उस समय मैं राजस्थान के दौरे पर था। मेरे लिए यह बहुत ही दुखद ख़बर थी। मैं आसानी से उस दर्द को अनुभव कर रहा था, जब मैंने अपने पिताजी से आख़िर बार सिरोही (राजस्थान) से ब्रजराजनगर (ओड़िशा) आने के लिए विदा ली थी और जैसे ही वहाँ पहुँचा ही था कि उनके मरने की ख़बर भाई ने फोन पर दी थी। मैं असहाय था, पूरी तरह लाचार था। मैं उनकी अन्त्येष्टि कर्म में शामिल नहीं हो पाऊँगा। मैं इतना भाग्यहीन था! हवाईजहाज़ से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता था। अच्छा हो, यह समय यहीं रुक जाएँ। मगर मौत और समय ने कब किसका इंतज़ार किया है? आज मैं इला जी की मनःस्थिति को अपने अंदर अनुभव कर रहा था। वह भी वही असहायपन अनुभव कर रही होंगी, जिसे मैंने चौदह साल पहले अनुभव किया था। यहाँ तक कि मेरे पिता की मृत्यु के दो दिन बाद चुपके से श्मशान जाकर उनके भस्मीभूत देह की राख को अपने साथ एक छोटी डिब्बी में लेकर आया था। वह अभी भी मेरे साथ है। अगर इला जी अमेरिका के ह्यूस्टन में नहीं होतीं तो कम से कम अपने बाबूजी की मृत्यु के समय आख़िर बार उनका चेहरा देख पाती। मगर समय किसका मोहताज है? वह अपने ईमेल में लिखती थी कि मेरा ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब मैं अपने बाबूजी से बात नहीं कर लेती हूँ। अब वह किसे फोन करेंगी? बाबूजी ही तो थे जो उसे दिल से चाहते थे और बचपन में कितना प्यार-दुलार किया था उन्होंने! मगर विधि का विधान पर किसका ज़ोर है? गीता के श्लोक की यथार्थता पर यक़ीन होने लगा, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। आज महान साहित्यकार डॉ. दिनेश्वर प्रसाद (इला जी के बाबूजी) का पार्थिव शरीर भले ही इस संसार में विद्यमान नहीं हो, लेकिन उनका ज्ञान हम सभी के भीतर प्रेरणा स्रोत के रूप में अमर है। भगवान उनकी दिवंगत आत्मा को शान्ति प्रदान करें! मेरी प्रेरणा के अजस्र स्रोत थे डॉ. दिनेश्वर प्रसाद। मैं उनकी आत्मा को शत-शत नमन करता हूँ और इला जी को भी सादर चरण-स्पर्श कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ कि एक महान साहित्यकार के घर जन्म लेने के बाद भी अंहकार से कोसों दूर थी वह और उनके माध्यम से ही मैं अपने गुरु पिता को खोज सका। 

स्वर्गीय प्रोफ़ेसर दिनेश्वर प्रसाद जी और उनकी बेटी इला प्रसाद जी के आशीर्वाद से इस महीने की 23 तारीख़ को सोनू अमेरिका की विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए रवाना हो रहा है। आज अदृश्य दिव्य-शक्तियों को याद कर मेरा मन अतीत स्मृतियों के अरण्य में कहीं भटक गया हैं। 

जब आप कोई भी पुस्तक पढ़ते हैं तो पढ़ते समय अक़्सर ऐसा लगता है मानो, कोई आपके सामने बैठकर बातें कर रहा हो, अपने सुख-दुख बता रहा हो और आप उस वर्चुअल दुनिया में ऐसे खो जाते हैं कि आपको लगने लगता है, सारे पात्र आपके इर्द-गिर्द मौजूद हैं या स्वयं आप उन पात्रों में से एक हैं और सारे दृश्य आँखों के सामने यथार्थ से प्रतीत होने लगते हैं। यह लेखक की सशक्त क़लम, भाषा-शैली और पाठक की सहृदयता पर निर्भर करता है। 

इन दिनों मेरे हाथों में है इला प्रसाद का उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी सी’। एकदम अनूठा और यथार्थ। 

मैंने ऐसा उपन्यास अपने जीवन में पहली बार पढ़ा। यह उपन्यास उन लड़कियों की दुनिया पर केन्द्रित है, जो उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वाली छात्राओं के व्यक्तिगत संघर्षों पर आधारित है। इस उपन्यास में रांची, बी.एच.यू., आई.आई.टी., मुंबई आदि का ज़िक्र आया है। भारत के इन उच्च तकनीकी सस्थानों के कॉलेज परिसर के यथार्थ वृत्तांत औपन्यासिक इला प्रसाद इस उपन्यास की मुख्य-पात्र शुचि एवं अन्य पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। इस प्रकार कॉलेज-परिसर के इर्द-गिर्द घूमने वाला भौतिकी संकाय की लड़कियों के जीवन-संघर्ष पर प्रकाश डालने वाला प्रथम उपन्यास है। भौतिक विज्ञान के कई शब्द भी इसमें प्रयुक्त हुए हैं जैसे: मेटल-सेमी-कंडक्टर डायोड, एक्सपेरिमेंटल इलेक्ट्रॉनिक्स, इंडियन फिजिक्स एसोसिएशन, सॉलिड स्टेट फिजिक्स एवं सिलिकॉन का बैंड गेप इत्यादि। यह उपन्यास न केवल भारत के उच्च शिक्षा-संस्थानों जैसे बी.एच.यू. और आई.टी.आई. में दी जाने वाली तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल उठाता है, बल्कि उन कॉलेजों के प्रोफ़ेसरों की पारस्परिक राजनीति, शिक्षा-पद्धति, शिक्षार्थियों के लिए शोध-सामग्री का अभाव और उनकी मानसिक प्रताड़ना आदि का भी सूक्ष्मता से अवलोकन करता है। उपन्यास के अंत में अमेरिका में नौकरी पाने की होड़ में लगे लालायित युवा-वर्ग के सपनों की टूटन और वहाँ रह रहे अप्रवासी भारतीयों की त्रिशंकु-अवस्था का मनोवैज्ञानिक चित्रण अंत्यन्त ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। 

इस उपन्यास को लेखिका ने तीन भागों में बाँटा है:

  • कोहरा

  • क़िंदील

  • रोशनी आधी अधूरी-सी

प्रथम भाग ‘कोहरा’ में शुचि रांची यानी बिहार से बी.एच.यू. में प्रोफ़ेसर रैणा के पास भौतिकी में पीएच.डी. करने के लिए आती है। उसके मन में हॉस्टल के परिवेश, रैगिंग का डर, स्टूडेंट्स यूनियन आदि के बारे में सोच-सोचकर मायूसी छा जाती है। एक तरफ़, जब उनका गाइड ‘सॉलिड स्टेट फिजिक्स’ और ‘सिलिकॉन बैंड गैप’ के बारे पूछता है तो वह सकपका जाती है, तो दूसरी तरफ़, उसे मन ही मन यह डर भी सताने लगता है कि क्या पीएच.डी. कर भी कर पाएगी अथवा नहीं? घर से बाहर निकलने के बाद उसे पहली बार अहसास हुआ कि सहपाठी उसे ‘बिहारी’ लड़की कहकर पुकारना पसंद करते हैं, व्यंग्य कसते हुए। जब उसे कोई कहता है कि बी.एच.यू. का सारा कल्चर बिहारियों ने ख़राब कर दिया है तो वह भीतर ही भीतर कूढ़ने लगती है। दूसरे लोग रांची को लेकर भी मज़ाक़ बनाते हैं क्योंकि रांची का कांके रोड स्थित पागलख़ाना पूरे देश में मशहूर है। इसलिए लोग रांची के हर आदमी को अप्रत्यक्ष तौर पर ‘पागल’ समझते हैं। इस प्रकार लेखिका भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में पनप रहे क्षेत्रीयवाद की ओर संकेत करती हैं। यही नहीं, भारत के हर विश्वविद्यालय में इस समस्या की झलक हर जगह दिखाई देने लगती है, चाहे वह उत्तर भारत हो या दक्षिण या किसी भी राज्य का विश्वविद्यालय क्यों न हो! 

आगे जाकर, वह जातिवाद की ओर भी इशारा करने से नहीं चूकती हैं, चूँकि वह कायस्थ परिवार की हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश में ‘लाला’ कहा जाता है और लाला का अर्थ वहाँ की भाषा में ‘ला, ला—जो केवल माँगते रहें।’ इस तरह शुचि नए परिवेश में नए-नए अर्थ समझने लगती है। हॉस्टल में रहते हुए पुरानी साइकिल चलाना सीखना, बसंत पंचमी के जुलूस का आँखों देखा वर्णन, हॉस्टल में पानी नहीं आने के कारण बाल्टियाँ बजाती लड़कियों के दृश्य, प्रेम-विवाह करने पर कट्टर जातिवादी भाइयों द्वारा बहिन को मारकर घर के आँगन में खोदकर गाड़ देना और प्रेमी के मुकर जाने पर किसी विक्षिप्त लड़की द्वारा हॉस्टल में अभिमंत्रित नरमुंड लाकर रखने की घटना तत्कालीन बी.एच.यू. के परिवेश और प्रगतिशील भारतीय समाज में फैले अंधविश्वास, जादू-टोना और टोटकों के बीच की संक्रमण अवस्था दर्शाती है। प्रोफ़ेसर रैणा अधिक व्यस्त रहने के कारण शुचि को अपने रिसर्च-वर्क के लिए प्रोफ़ेसर कुंद्रा के लैब में काम करना पड़ता है—जो सीधे तौर पर अत्यंत ही चापलूसी-पसंद और दुष्ट व्यक्ति है। न तो वे लैब का सामान मँगवाते हैं और न ही शुचि को अच्छी तरह से गाइड करते हैं। अगर आप कुछ कहते हैं तो आपको ‘टारगेट’ भी बना लिया जाता है। वाचाल प्रवृत्ति की होने के कारण शुचि भी टारगेट बन जाती है उनका और एक वैक्यूम मशीन ख़राब होने का झूठा आरोप शुचि पर लगा दिया जाता है। 

एक नए प्रकरण का भी लेखिका ने उल्लेख किया है सीजोफ्रेनिया के बारे में। उनकी एक सहेली पूर्णिमा के दिन हॉस्टल की छत पर चढ़कर आत्महत्या करने का प्रयास करती है—यह दृश्य पाठक को पढ़ते समय पूरी तरह से विचलित कर देता है। मंडल कमीशन के समय भी कई विद्यार्थियों ने अपना जीवन बर्बाद किया। इस दौरान कॉलेजों में नेतागिरी पनपी, मगर बी.एच.यू. के अडिग वाइस-चांसलर ने वहाँ ऐसा होने नहीं दिया, नतीजा यह निकला कि राजपूत छात्राओं का समूह धरने पर उतर आया। जिस तरह हॉस्टलों में आत्महत्या के केस सामान्य हैं, वैसे ही कुछ-कुछ होमोसेक्सुअलिटी के भी। इस उपन्यास में उल्लेखित लड़की के प्यार में विफल लड़के द्वारा आत्महत्या करने का केस भी सहृदय पाठकों को विचलित करता है। 

उपन्यासकार ने स्थानीय संरक्षकों की भी पोल खोली है। एक घटना है, उसकी सहेली सविता की, उसके डैडी द्वारा बताए गए लोकल गार्जियन, अकेला पाकर उस पर सेक्सुअल अटैक करता है; जिसे वह किसी को बता नहीं सकती थी, न घर में, न बाहर में। यह जानकर शुचि के मन में प्रश्न पैदा होता है कि क्या हर लड़की को उसके लड़की होने की क़ीमत चुकानी होती है! खाने की मेस में घोटाला, नए कोऑपरेटिव मेस का निर्माण और फिर उसमें भी घोटाला—क्या कुछ नहीं होता है कॉलेज जीवन में! 

लेखिका ने शिक्षा-पद्धति पर ही उँगली उठाई हो, ऐसी बात नहीं है। अच्छे अंक पाने के लिए अपनाए जाने वाले तिकड़मों, भ्रष्टाचार और विद्यार्थियों के अनैतिक आचरणों पर कुठाराघात किया है। बी.एच.यू. हॉस्टल में रहने वाले लड़कों पर भी लेखिका ने तीव्र प्रहार किया है—जब एक राह भटकी लड़की को एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल, दूसरे से तीसरे हॉस्टल वाले मिलकर सामूहिक बलात्कार करते हैं। कोई भी उसे बचाने के लिए आगे नहीं आता है। क्या यह है हमारा शिक्षा-तंत्र? लेखिका के शब्दों में वास्तव में वे विद्यार्थी न होकर विद्या की अर्थी निकालने वाले गुंडे, अपराधी और बदमाश चरित्र के लोग हैं। बदमाश लड़के ही नहीं, लड़कियाँ भी होती है। कुछ ग़लत अफ़ेयर करने वाली लड़कियाँ, कभी शादी-शुदा लड़कों के साथ, तो कोई टाइमपास करने के लिए किसी को ऐसे ही फँसाकर रखने वाली। मक़सद किसी को आई.ए.एस. की परीक्षा देनी है तो किसी को एम.एससी. या किसी को कोई दूसरी प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा। लड़कियों की सोच इतनी गिरी हुई रहती है कि अगर कोई पुरुष थोड़ा-बहुत अगर इधर-उधर हाथ लगा देने से नोट मिल जाते हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? ये तो थी आचरण से संबन्धित छोटी-मोटी बातें, मगर तकनीकी ख़ामियाँ अपनी जगह पर ज्यों-की-त्यों खड़ी है। एक बार शुचि के जीवन में भी ‘ब्लैक फ्राइडे’ आता है, जब प्रोफ़ेसर कुंद्रा वैक्यूम मशीन को ख़राब कर देने के झूठे आरोप में उसे लैब से बाहर निकाल देते हैं। ग़ुस्से में आकर शुचि सारा माजरा प्रोफ़ेसर रैणा को बताकर अपने घर रांची जाने का निर्णय लेती है। नीलांचल ट्रेन, बेहद भीड़भाड़, जगह तो मिल जाती है बैठने की, मगर वहाँ भी लड़की को देखकर लोगों के कटु व्यंग्य-बाण, वे भी सीधे चरित्र पर। उनका मानना है, हॉस्टल में रहने वाली लड़कियाँ घाट-घाट का पानी पीती हैं, फिर इतने नख़रे बाज़ी क्यों दिखाती हैं? 

जिस तरह मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता, उसी तरह बिना पीएच.डी. किए कैसे कोई जान सकता है, पीएच.डी. करने वाली छात्राओं की व्यथा, उनके दुख-दर्द, उनके आँसू। पहले-पहले तो गाइड बहुत घुमाता है, महीनों-महीनों आगे-पीछे। फिर शुरू हो जाता है सिलसिला, प्री.पीएच.डी. सेमिनार, थीसिस का काम, टाइपिस्ट के चक्कर, प्रूफ-रीडिंग, ट्रेसिंग्स इत्यादि। क्या कुछ नहीं करवाते गाइड? फिर भी ये गाइड तो अच्छों की श्रेणी में गिने जाते हैं, दूसरे कोटि के तो और भी बढ़कर होते हैं। कहते हैं–“थीसिस का करेक्शन तभी करूँगा जब तुम (लड़की) सामने बैठेगी। डरती क्यों हो? कुछ नहीं करूँगा। शादी-शुदा आदमी हूँ। बाल-बच्चे हैं, अपनी नौकरी थोड़ी गँवानी है। बस, तुम मुझे अच्छी लगती हो। देखते रहना चाहता हूँ। ज़रा सामने बैठ जाओगी तो क्या बिगड़ जाएगा?” 

ऐसे कई अनुभव शुचि को अपनी सहेलियों से सुनने को मिलते हैं। इन अर्जित अनुभवों के साथ जैसे-तैसे शुचि की पीएच.डी. पूरी हो जाती है। मगर अभी भी आगे बढ़ने की चाह मन के भीतर धधकती रहती है। 

उपन्यास का दूसरा भाग ‘किंदील’ है, जिसमें पीएच.डी. के बाद मुंबई के नए परिवेश का वर्णन है। शुचि अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है, प्रोफ़ेसर रैणा भी उसके लिए उसे प्रेरित करते रहते हैं। यह योग्यता परीक्षा पास कर चली जाती है आर.आई.टी.। शायद लेखिका ने जानबूझकर आई.आई.टी. की जगह नया शब्द आर.आई.टी. गढ़ा है। जब वह मुंबई की इस तकनीकी संस्थान में प्रवेश लेती है तो यहाँ की नई-नई शब्दावली से पाला पड़ता है। जैसे–विद्यार्थी, छात्र, स्टुडेंट्स के लिए प्रयुक्त शब्द ‘जनता’। पढ़ाते समय अध्यापक कहेंगे—‘सुनो जनता!’ इस तरह पढ़ाते-पढ़ाते प्रोफ़ेसर पूछने लगते हैं—‘चमका क्या?’ शुचि सोचने लगती है शायद दिमाग़ भी एक ट्यूबलाइट होती है। इसी तरह ‘फाट मार के आना’ का मतलब कुछ नहीं आ रहा था, फिर भी ग़म लिखकर आ जाना। संक्षिप्त शब्दावली का बहुत प्रचलन था जैसे डेमो प्रेम रखो माइक्रो शब्द ‘डेमो’, ‘प्रेप’ ‘रेको’, ‘माइक्रो’ शब्द डिमोन्सट्रेशन, प्रिपरेटरी, रिकोमेंडेशन और माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स आदि के लिए प्रयुक्त होते हैं। वहाँ गाइड अपने को गॉड कहता है ‘आई एम गॉड’ बाक़ी कुछ नहीं। शुचि यहाँ भी हँसी का पात्र बनती है, उसकी अच्छी हिंदी वहाँ के परिवेश को सूट नहीं करती। मराठी हिंदी और अंग्रेज़ी की मिली-जुली भाषा ही वहाँ सर्वमान्य है, सर्वोपरि है। 

लगता है शायद भाषा बहुल क्षेत्र होने के कारण कई भाषाओं के आपसी टकराव से पहले पिजिन, फिर क्रियोल भाषा बन गई होगी। मुंबई में बी.एच.यू. वालों को हर मोड़ पर नीचे दिखाने का प्रयास किया जाता है। शुचि को ईमेल करना भी नहीं आता था, इंटरनेट एक्सप्लोरर और लिनक्स मशीन के बारे में जानकारी नहीं थी तो—उसे कहा जाता था कि तुम बी.एच.यू. वाले यहाँ क्या ख़ाक करोगे? यहाँ बी.एच.यू. भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत जगह थी, वहाँ आई.आई.टी. मुंबई पश्चिमी रंग में डूबा प्रदेश। ऊँची ऊँची अट्टालिकाएँ, आधुनिकता के नशे में चूर लोग, वहीं सड़क के दूसरी ओर गंदी बस्तियाँ, पेड़ों की जटाओं को पकड़कर झूलते, मटमैले, अधनंगे, दुबले बच्चे . . . गंदगी का साम्राज्य। विचित्र विरोधाभास वाला नगर! अगर आपका कोई हॉस्पिटल में बॉयफ़्रेंड नहीं है तो पूछा जाता है क्यों नहीं है? कॉलेज की राजनीति भी विचित्र! पहले-पहले गाइड पूछते हैं—“मैं आपको क्यों गाइड करूँ? मेरा क्या फ़ायदा इससे? ऐसे छोटे-मोटे प्रोजेक्ट मैं नहीं लेता।” 

राजनीति की हद तो तब समझ में आएगी, जब एक पीएच.डी. के छात्र ने गोल्ड प्लेटेड क्वार्टस फरनेस (फार्मिंग गैस में अनीलिंग के लिए प्रयुक्त होती है) को केवल हाइड्रोजन गैस से हीट कर दिया तो वह टूट गई, जबकि पीएच.डी. स्तर के सभी विद्यार्थी जानते हैं कि उसे 80% नाइट्रोजन और 20% हाइड्रोजन से हीट करना होता है। ऐसे छात्र को आगे की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी भेज दिया गया। ज़रा सोचिए, बी.एच.यू. में वहाँ वैक्युम मशीन में गड़बड़ होने के कारण शुचि को प्रोफ़ेसर कुंद्रा ने बाहर निकाल दिया था। फ़र्क़ केवल इतना ही है, कौन स्टुडेंट किस के अंडर काम कर रहा है। 

शुचि के धीरे-धीरे मुंबई में नए-नए दोस्त भी बनने लगते हैं, जैसे सुनयना, जो उसे कंप्यूटर भी सिखाती है, उसके सेमिनार के लिए अपनी सहेलियों के साथ मिलकर टाइप भी कर देती है और एक दिन अचानक सुनयना अपने बॉयफ़्रेंड के साथ शादी के पक्के इरादे की घोषणा अपने घर में कर देने के बाद कैलिफ़ोर्निया उड़ जाती है। यह बात वह शुचि से छुपा कर रखती है। शुचि को मन ही मन लगता है, क्या वह उसे अपना ख़ास मित्र नहीं मानती थी? रविवार को कन्वोकेशन हॉल में मूवी, टेक-फेस्ट का आयोजन, कॉमन रूम में केवल अंग्रेज़ी अख़बारों का प्रचलन, बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की के हॉट टॉपिक की चर्चा, लेडी डायना की मौत और उसके प्रेम-प्रसंगों की ख़बर ही कैंपस का विषय हुआ करता था। शुचि या तो कंप्यूटर पर मेल चेक करती या सुनयना द्वारा दिए गए बुकर पुरस्कृत उपन्यास ‘गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ को पढ़ती रहती। वहाँ केवल एक ही लक्ष्य—पीएच.डी. लो, एम.टेक. करो, बी.टेक. करो और चलो अमेरिका। एक बार ऐसे ही कंप्यूटर पर चैटिंग करते समय एक्स आई.आई.टीयन इंद्र का मैसेज आ जाता है—“आई एम ए हैंडसम मैन, सैन हौज़, कैलिफ़ोर्निया।” यही मैसेज शुचि के जीवन का निर्णायक बिंदु बन जाता है और वह इंद्र की जीवनसंगिनी बन जाती है। भारतीय माइथोलॉजी में इंद्र शुचि की जोड़ी बहुत फबती है, इस तरह उपन्यास के पात्र इंद्र शुचि भी जीवन-पर्यंत उतार-चढ़ाव देखते हुए एक-दूसरे का हाथ थामे रहते हैं। 

उपन्यास का तीसरा पड़ाव ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ यानी अमेरिका में। शुचि को यहाँ नए सिरे से अमेरिकन अंग्रेज़ी लहजा सीखने का प्रयास करना पड़ता है। वहाँ के भारतीय न तो क़ायदे से पूरे अमेरिकन है और न ही पूरे भारतीय। अमेरिकन तो बिल्कुल है ही नहीं। क्या मूल गोरी चमड़ी वाले लोग उन्हें अपना स्वीकार कर पाएँगे? शुचि के लिए दोहरी चुनौती। इधर घर वालों की ओर से अस्वीकार्यता, उधर बाहर का विदेशी माहौल। बीच-बीच में मराठी और बिहारी की तुलना। कभी जेठ कह देते थे—‘ऑल बिहारिज़ आर स्टूपिड’ तो क्या करती शुचि! भौतिकी की दुनिया पीछे छूटती जा रही थी। कभी वह सिलिकॉन वेफ़र पर काम किया करती थी, और तो और, विभागीय अनियमितताओं को पोल भी खोल देती थी। उसी शुचि की शादी के कई साल बाद भी बाल बच्चे नहीं हुए तो ऊपर से लोगों के ताने सुनाना—तुम्हारे बाल-बच्चे नहीं है? अमेरिकी भारतीय समाज आज भी त्रिशंकु अवस्था झेल रहा है। एक दिन उसे ह्यूस्टन में वियतनामी बौद्ध मंदिर देखने का अवसर मिलता है तो उसके सामने भारतीय दर्शन-शास्त्र जाग उठता है। बौद्ध उसके देश के हैं, वह जानती है कि वे अपनी पूजा किया जाना पसंद नहीं करते थे? वे तो ख़ुद मूर्ति-पूजा के विरोधी थे। अगर वे ज़िन्दा होते तो उन्हें अपनी ऊँची-ऊँची प्रतिमाएँ और पथ-भ्रष्ट समाज को देखकर कैसा लगता? 

शुचि को लगता है कि अगर लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति लागू नहीं हुई होती तो उसका देश भी अपनी सांस्कृतिक गरिमा-गौरव पर इठलाता होता। क्या मैत्रेय बुद्ध के पुनर्जन्म की परिकल्पना हिंदू धर्म के कल्कि अवतार के समतुल्य नहीं है? प्राकृतिक विपदाएँ और मानव निर्मित विपदाएँ साथ-साथ चल रही होती हैं। समुद्री तूफ़ानों के दौर में कई इंश्योरेंस कंपनियों का दिवाला पिट गया था। धड़ा-धड़ कंपनियाँ बंद हुईं एक के बाद एक। हर क्षेत्र में बुरे हाल आर्थिक मंदी का दौर। सुनयना फिर से मिल गई, शुचि को अमेरिका आने के बाद। अलग-अलग स्थानों पर रहने के कारण सारे वार्तालाप केवल फोन पर ही। इंद्र पूछता है शुचि को, अगर तुम इंट्रोवर्ट हो तो टनल से चलो और अगर एक्सट्रोवर्ट हो तो ब्रिज से। शुचि कहती है, पहले मैं इंट्रोवर्ट थी अब तुम्हारे साथ रहते-रहते एक्सट्रोवर्ट बन गई हूँ। 

किसी ने स्वीकार नहीं किया शुचि और इंद्र को एक साथ। कितनी आलोचना, कितने व्यंग्य, कितनी कटुक्तियाँ सुनी थीं उसने! वहाँ के लोग फिर से भारत लौटना चाहते हैं, केवल डिप्रेशन ही डिप्रेशन, पाँचवीं कक्षा से ही सेक्स एजुकेशन, उन्मुक्त जीवन-यह भारतीयों को रास नहीं आता है। 

अमेरिका में स्कूल टीचर की नौकरी के लिए भी जॉब फ़ेयर लगते हैं। हज़ारों प्रतिभागी एक क़तार में, कोई नासा से तो कोई यूटा से। वहाँ भी बेरोज़गारी का ग्राफ हर रोज़ ऊपर चढ़ता जाता है। अमेरिका से शुचि ऊब चुकी थी, न तो उसे वहाँ की मिट्टी से सौंधी गंध आती थी, न फल-सब्जियों का स्वाद मिलता था, न ही जीवन में। रह-रहकर रांची में अपना गुज़रा जीवन याद करती है वह। वहाँ के मिट्टी की महक, बनारस में काग़ज़ की नाव बना बहते पानी में छोड़ना आदि अतीत को याद करना उसकी नोस्टॉलजिक संवेदना हैं, मगर कई सारे प्रश्न वर्तमान पीढ़ी के सामने रख जाती है। क्या अच्छा है? क्या बुरा है? कैसे परिस्थितियाँ बदलती हैं? जीवन जीने के लिए किन चीज़ों की ज़रूरत है? आधुनिकता की भागम-भाग या आध्यात्मिकता की आवश्यकता है जीवन जीने के लिए? 

कॉलेज जीवन के कथानक के माध्यम से उपन्यासकार इला प्रसाद जी ने जीवन तथा समाज की यथार्थ व्याख्या की है। उन्होंने आधुनिक जीवन की विशृंखलताओं का विशद चित्रण प्रस्तुत किया है, जो उनके लेखन-कला की सार्थकता दर्शाती है। यथार्थ के प्रति आग्रह, विज्ञान की विद्यार्थी होने के कारण व्यक्ति तथा समाज को सामान्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्ररेणा, जीवन की समस्याओं के प्रति एक नए बौद्धिक दृष्टिकोण के कारण उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए। उनका उपन्यास अब कला की समस्याओं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखता है। सामाजिक जीवन की विशद व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ ही साथ ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ उपन्यास में इला प्रसाद जी ने वैयक्तिक चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन किया है। 

यह सब जानते हुए भी जब मेरे बेटे सोनू को अमेरिका में पढ़ाई करने का अवसर मिला, तो आधी अधूरी रोशनी में उसे अपना भविष्य खोजने से मैं इंकार नहीं कर सका। आख़िर ब्रह्मांड और मनुष्यों की इस आपाधापी की दुनिया में कई सवाल अभी तक अनसुलझे हैं! शिक्षा, भविष्य। भारत, अमेरिका। आईआईटी, बीएचयू। जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रीयवाद। धर्म, अधर्म। 

अंत में, इतना ही कह सकता हूँ इला जी द्वारा यथार्थ धरातल पर लिखा हुआ यह उपन्यास न केवल विदेशों में पढ़ने के लिए लालायित हमारे विद्यार्थियों के लिए, बल्कि उनके माता-पिता के लिए एक प्रकार की मार्ग-दर्शिका है, जिसका मुख्य उद्देश्य भारत सरकार को अपने शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने की अपील के अतिरिक्त लड़कियों की उच्च स्तरीय तकनीकी अध्ययन में आने वाली समस्याओं से अवगत कराना है, ताकि सरकार नीति-निर्माण के तहत उनका समाधान कर सके और विश्व-स्तरीय शिक्षा मुहैया करवा सके। अगर ऐसा सम्भव हुआ तो उन्मुक्त संस्कृति वाले देशों में हमारे बच्चों को त्रिशंकु बनने की नौबत न आएगी, ब्रेन-ड्रेन रुकेगा और पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम की तरह देश के तकनीकी विकास में अहम भूमिका अदा करेंगे॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

बात-चीत

साहित्यिक आलेख

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

अनूदित कहानी

अनूदित कविता

यात्रा-संस्मरण

रिपोर्ताज

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. भिक्षुणी
  2. गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी
  3. त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 
  4. स्मृतियों में हार्वर्ड
  5. अंधा कवि

लेखक की अनूदित पुस्तकें

  1. अदिति की आत्मकथा
  2. पिताओं और पुत्रों की
  3. नंदिनी साहू की चुनिंदा कहानियाँ