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मुस्लिम परिवार की दुर्दशा को दर्शाता अनवर सुहैल का उपन्यास ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ 

 

यह ध्रुव सत्य है कि हमारे लेखन में आजकल वह ताक़त नहीं रही, जो हमारे अलग-अलग धर्मों वाले देश में ‘अनेकता में एकता’ का सूत्र प्रतिपादित करने की क्षमता पैदा कर सके। देश की आज़ादी से पहले वाले हमारे नेता हिंदू, मुस्लिम और अन्य धर्मावलम्बियों को जोड़कर रखते थे। गाँधी जी तो अल्लाह और ईश्वर दोनों में समानता की बात करते थे कि यह एक ही शक्ति के दो अलग-अलग नाम हैं। गीता का कर्मफल सिद्धांत भी इसी बात की पुष्टि करता है। मान लेते हैं कि आज हम जन्म से हिंदू हैं, हो सकता है पूर्व जन्म में मुस्लिम या ईसाई रहे होंगे; यह किसको पता है! और यह भी हो सकता है कि अगले जन्म में मुस्लिम या ईसाई या अन्य धर्मावलंबी बनें, तो फिर हमारे लिए धर्म के नाम पर युद्ध करने का अर्थ है अपने कुंटुंबियों को ख़त्म करना। अगर हम हमारे देश के भक्ति आंदोलन की ओर झाँकें तो देखेंगे कि ‘रहिमन धागा प्रेम का’ कहने वाले रहीम और ‘कर का मनका डारि दे, मन की मनका फेर’, कहकर हिंदुओं को और ‘ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय’ कहकर मुसलमानों को लताड़ने वाले कबीर हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल देते थे। मुहम्मद जायसी अलाऊदीन खिलजी और रानी पद्मावती का अपने ‘पदमावत’ में ज़िक्र करते थे। मुंशी प्रेमचंद हामिद के चिमटे को आधार बनाकर ‘ईदगाह’ जैसी संवेदनशील कहानी लिखकर हिंदू-मुस्लिम एकता में अपना योगदान देते हैं। लेकिन आधुनिक युग में इतिहास के गड़े विवादास्पद मुर्दे खोदकर न केवल आधुनिक लेखक, बल्कि सत्ताएँ भी वर्तमान पीढ़ी में प्रतिशोध की भावना पैदा कर रही है। 

परिणाम मंदिर-मंजिस्द का विवाद आए दिन टीवी, सोशल मीडिया, न्यूज़ में सुर्ख़ियों पर रहता है। जिससे न केवल सामाजिक सौहार्द्रता कम होने लगा है, बल्कि असहिष्णुता ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ रही है। ये सारी परिस्थितियाँ आधुनिक लेखकों की क़लम में उतरने लगी हैं। उदाहरण के तौर पर मंज़ूर एहतेशाम का प्रसिद्ध उपन्यास है—‘सूखा बरगद’—जिसमें लेखक ने रशीदा और सुहैल के माध्यम से देश के बदलते वातावरण का युवा वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव को गंभीरता से दर्शाया है और चेताया भी है कि आने वाला समय गृह-युद्ध जैसी घटनाओं से भरा होगा। इस उपन्यास के अनुसार अल्पसंख्यक समाज की अपनी समस्याएँ हैं—पहचान का संकट, सामाजिक गतिरोध, धार्मिक कट्टरता और आर्थिक असुरक्षा। ऐसी बात नहीं है कि देश की आज़ादी से पहले भी हिन्दू-मुस्लिम में फूट नहीं थी। उस समय भी थी, जिसका अँग्रेज़ों ने फ़ायदा उठाया और भारत के दो टुकड़े हुए। आज जहाँ दोनों हिन्दू और मुस्लिम समाज आंतरिक संघर्षों से गुज़र रहा है, वहाँ रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता, सामाजिक विकास के गतिरोध और कुत्सित राजनीति इस संकट की खाई को और ज़्यादा चौड़ा कर रही है। 

बी.आर. चौपड़ा की ‘महाभारत’ के संवाद लेखक राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास ‘आधा गाँव’ में मुस्लिम और हिंदू समुदाय की सांस्कृतिक एकता और विभाजन की त्रासदी दर्शाते हैं। ऐसी ही उनकी कहानी ‘टोपी शुक्ला’ भी है। ईस्मत चुगताई का उपन्यास ‘टेड़ी लकीरें’ और कुर्रतल ऐन हैदर का उपन्यास ‘आग का दरिया’ भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सांस्कृतिक एकता का चित्रण करती हैं। लेकिन आज ऐसे लेखक पैदा नहीं हो रहे हैं क्योंकि कालांतर में परिस्थितियाँ बदल गईं और लेखकों की लेखनी भी बदल गई। हिंदू और मुस्लिम में एकता क़ायम करने की जगह खाई चौड़ी करने वाले वातावरण उनके कथानकों में उतरने लगे है। समकालीन लेखकों में प्रदीप श्रीवास्तव अपने कहानी संग्रह ‘जेहादन तथा अन्य कहानियाँ’ में हिंदुओं को मुसलमानों से भयभीत होते हुए दिखाया है कि आने वाली पीढ़ी धर्मांतरण के कारण कहीं मुस्लिम न हो जाए। जबकि वही लेखक अपने उपन्यास ‘बेनज़ीर’ में हिंदू लड़के का मुस्लिम लड़की से प्रेम दिखाते हैं तो ओड़िया लेखिका सरोजिनी साहू अपने उपन्यास ‘बंद कमरा’ में पाकिस्तान के नवयुवक का भारतीय महिला कली के साथ चैट द्वारा प्रेम-प्रसंग को आधार बनाया है। उसी तरह अनवर सुहैल इस उपन्यास में सलीमा के दुःख भरी ज़िन्दगी का उल्लेख अवश्य करते हैं, मगर उसकी माँ को मौलना कादरी के साथ भागते और सलीमा को हवस का शिकार बनाने वाले गंगाराम मास्टर और बैंक मैनेजर विश्वकर्मा दोनों को हिंदू जाति वाले बताते हैं। निस्संदेह, उनका उपन्यास यथार्थ पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, मगर संकीर्ण विचारधारा वाले हिन्दू-मुस्लिम पाठक इसे धार्मिक इशू भी बना सकते हैं। प्रदीप श्रीवास्तव, सरोजिनी साहू और अनवर हुसैन जैसे ख़तरों से खेलने वाले दिग्गज लेखकों ने आधुनिक युग के राजनैतिक परिदृश्य में अवश्य ही अपनी जान जोखिम में डालते हुए अपने लेखकीय धर्म को पूरी तरह से निभाया है। 

‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ उपन्यास का सारांश इस प्रकार हैः

“इब्राहिम पुरा में रहने वाले, एक ग़रीब मुसलमान महमूद मियाँ यानी मम्दू पहलवान की तीन लड़कियाँ हैं—सलीमा, सुरैया और रुकैया। ग़रीबी से परेशान होकर उसकी पत्नी किसी मौलाना कादरी के साथ भाग जाती है और उस समय घर चलाने की सारी ज़िम्मेदारियाँ बारह वर्षीय सलीमा के कंधों पर आ जाती है। उस समय वह आठवीं कक्षा की छात्रा होती है। सुरैया, रूकैया उससे एक-दो साल उम्र में छोटी होती हैं। घर की तनावपूर्ण परिस्थितियों के कारण पढ़ाई में ध्यान नहीं देने की वजह से मास्टर गंगाराम उसे कक्षा में बहुत मारता-पीटता है। बाद में वह उसके अब्बा को राज़ी कर ट्यूशन पर पढ़ाने के लिए घर बुलाता है। मास्टर घर में अकेले होते हैं, अपने हाथों से रोटी बना रहे होते तो सलीमा उनकी सहायता करती है। मौक़े का फ़ायदा उठाकर मास्टर जी उससे शारीरिक सम्बन्ध बना लेते हैं तो वह रोने लगती है। उसे चुप करने के लिए वे तीन सौ रुपए देते हैं। वहीं से इस तरह लेन-देन का यह सिलसिला चल पड़ता है। बाद में सलीमा को अपने बिज़नेस के लिए आटा-चक्की की दुकान खोलने के लिए ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती है तो मास्टर जी उसे बैंक मैनेजर विश्वकर्मा के पास भेज देता है, लोन लेने के लिए। उसके ख़ातिर उसे बैंक मैनेजर के साथ हम-बिस्तर होना पड़ता है। इस तरह एक ग़रीब मुस्लिम महिला को आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने के लिए दर्दनाक यौन-उत्पीड़न और मार्मिक घरेलू संघर्षों से होकर गुज़रना पड़ता है। 

धीरे-धीरे जब उसका बिज़नेस ठीक-ठाक चलने लगता हैं तो वह अपनी बहनों को अजमेर शरीफ़ घुमाने ले जाती है। तो वहाँ सुरैया की किसी लड़के से जान-पहचान हो जाती है। सलीमा सुरैया की अपने रिश्तेदारों से शादी कराना चाहती है, लेकिन इससे पहले ही वह अजमेर वाले लड़के के साथ भाग जाती है। बैंक से और लोन लेने के लिए वह फिर से उसी बैंक मैनेजर के पास जाती है तो वह उसे शराब-पिलाता है और ब्लू फ़िल्म दिखाता है, जिसमें उसे पॉर्न स्टार के रूप में सुरैया दिखाई देती है। यह देखकर सलीमा को रोते-रोते आँखें पथरा जाती है। सलीमा समझ जाती है कि जिस लड़के के साथ सुरैया भागी थी, उसने उसे किसी वेश्यालय में छोड़ दिया है। यहीं पर, अनवर सुहैल के उपन्यास का भले ही अंत हो जाता है, मगर सलीमा के अंतहीन दुःखों के अनेक अनुत्तरित सवाल पाठकों के सम्मुख छोड़ देता है। 

इस उपन्यास में अनवर सुहैल के अल्प संख्यक मुस्लिम परिवार को दोहरे ख़तरों से जूझते हुए दर्शाया है। पहला, आंतरिक ख़तरा—मम्दू पहलवान की पत्नी का मौलाना कादरी के साथ भाग जाना और दूसरा बाहरी ख़तरा—ग़रीब परिवार में जवान होती हुई लड़की का बाहरी समाज द्वारा यौन-शोषण। चक्की के इन दो पाटों के बीच क्या वह बेचारी लड़की बच सकती है? हड्डियों और नसों का अच्छा जानकार होने के बावजूद मम्दू पहलवान कमाता नहीं है। उसके घर की यह दुर्दशा ग़रीबी से तंग आकर उसकी पत्नी भाग जाती है, जिसका ख़म्याज़ा भुगतना पड़ता है उसकी मासूम लड़कियों को। सलीमा अपने परिवार के लिए सब-कुछ दाँव पर लगा देती है, ताकि उसकी छोटी बहिनें पढ़ाई कर सकें, मगर सुरैया लालच और पैसों के लिए किसी लड़के के साथ भाग जाती है। वह सलीमा के त्याग को नहीं समझ पाती है, बल्कि उसे गंदी निगाहों से देखती है। 

पुरुष प्रधान समाज और नारी उत्पीड़न जैसे सामाजिक मुद्दों पर आधारित उपन्यास ‘सलीमा’ सन् 2006 में संकेत प्रकाशन अनूपपुर से प्रकाशित हुआ था, जो बाद में सन् 2022 में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 

इस उपन्यास में घरेलू हिंसा, आर्थिक निर्भरता जैसी समस्याओं के अतिरिक्त ग्रामीण भारत की कठोर वास्तविकताओं जैसे बिजली कटौती, चूहों-खटमलों से भरी ज़िन्दगी को उजागर करने के साथ-साथ लेखक ने महिलाओं की आंतरिक शक्ति और प्रतिरोध को भी अभिव्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। 

अंत में, इतना ही कह सकता हूँ कि अनवर सुहैल ने अपने इस उपन्यास न केवल मुस्लिम नारी की असहनीय वेदना को उजागर किया है, बल्कि हिंदुओं के मन में उनके प्रति सहानुभूति पैदा करने का भरसक प्रयास किया है। दूसरे शब्दों में, भारतीय समाज तभी सुरक्षित रहेगा, जब दोनों समाज अपनी-अपनी कुरीतियों का निवारण कर अशिक्षित समाज को शिक्षित बनाएँ ताकि वे स्वावलंबी हो सकें और अपने जीवन के फ़ैसले ख़ुद ले सकें।

दिनेश कुमार माली
तालचेर, ओड़िशा 

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