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धूप और स्त्री

 

सूरज निकल आया है धीरे . . . धीरे . . . धीरे . . .
पुनः आसमान में
जैसे किसी स्त्री ने टाँग दिये हैं
सूखने के लिए कपड़े चुपचाप . . . अलगनी में
दालान में गेहूँ बीनती स्त्री
गाती है लोक गीत
आहिस्ता-आहिस्ता बिखर जाती हैं
स्वर्णिम किरणें वृक्षों पर
रोटियाँ बनाती मुस्कुराती है वह
झिलमिला उठती हैं ओस की बूँदें नर्म दूबों पर
घर, बाहर, दालान, खेत . . .
सुनहरी हो उठती है पूरी सृष्टि
सूरज चढ़ता जाता है
अलगनी पर सूखे कपड़े फड़फड़ा उठते हैं
माथे पर छलक आयी पीने की बूँदें
स्त्री समेट लेती है आँचल में
आसमान का सफ़र तय कर 
सूर्य चला जाता है विश्राम करने
गझिन वृक्षों के पीछे। 
अलगनी से सूखे वस्त्रों को समेटती स्त्री
आसमान में उग आये दूधिया चाँद के साथ
चल पड़ती है दालान में    
शेष कार्यों को . . . शेष जीवन . . . को समेटने। 

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