पगडंडियाँ अब भी हैं
काव्य साहित्य | कविता नीरजा हेमेन्द्र15 Sep 2025 (अंक: 284, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
इस बार ख़ूब बरसा पानी
हम देखते रहे अपने गाँव में आने वाली
उस पगडंडी को
जो मेरे पीहर के गाँव से आती है
सूनी दिखती रही पगडंडी मुझे
मेरे गाँव में इस बार
खेत-बाग़ ख़ूब हरियाएँ हैं
मेरे साथ पलता-बढ़ता दालान में खड़ा
नीम का वृक्ष मेरे साथ ही
बूढ़ा होने लगा है मेरी तरह
सावन बीता जा रहा है
सावन में मुझे विदा कराने के लिए
किसे कह गये थे बाबू?
कोई नहीं आया, सावन बीता जा रहा है
गुड़िया और बहुला हम कैसे मनाएँगे बाबू
कोई नहीं आया
सावन के जाते ही हरी घास
सूखने लगेगी बाबू!
अब इन पगडंडियों से कोई नहीं आएगा?
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