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परिवर्तन

 

हवाएँ हो उठी हैं उन्मुक्त
बन्द खिड़की पर देने लगी हैं 
सरसराहट भरी मीठी ध्वनि की दस्तक
कदाचित् परिवर्तित हो चुकी हैं ऋतुएँ
हवाएँ खुलने लगी हैं
वो मिलने लगी हैं धूप भरे खेतों में
सूने खलिहानों और अस्त-व्यस्त चौपालों पर
अपनी गति से सब कुछ व्यवस्थित करतीं
काम पर जाती ग्रामीण स्त्री के
लहराते वस्त्रों में हवाओं ने दे दी है दस्तक
पतझड़ के पश्चात सूने पड़े वन-जंगल
धरती पर बिछे सूखे पत्तों की
कर्कश ध्वनि से जो काँप उठे थे
देखो तो कैसे भर गये हैं अब 
गुलमोहर के फूलों से
गुलमोहर के रक्ताभ पुष्प करने लगे हैं 
संचरण प्रेम और ऊर्जा का 
मैंने बन्द खिड़की खोल दी है
हवाओं के साथ, पुष्प गुलमोहर के
तुम भी आ जाओ, धीरे . . . धीरे . . . धीरे . . .
मेरे बन्द कमरे को कर दो व्यवस्थित
प्रेम का संचरण शेष है अभी . . .। 

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