अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

घास का चोर

शंभू एक सीधा-साधा ग़रीब मज़दूर था। बूढ़े माँ बाप और पत्नी मीना। कुल मिलाकर चार सदस्यों का छोटा-सा परिवार। संपत्ति के नाम पर एक कच्चा मकान, एक बैलगाड़ी और एक गाय-झूमर। झूमर लाल रंग की बहुत ही सुंदर गाय थी। छोटा सा क़द, छोटे-छोटे सींग, माथे सफ़ेद टीका मानों ईश्वर ने पूरी फ़ुर्सत में बनाई हो। बछड़ा लालू तो इससे भी सुंदर था जैसे कोई हिरनी का बच्चा हो। झूमर और लालू के प्रति सबका बड़ा लगाव था। शंभू जैसे ही शाम को घर लौटता सबसे पहले झूमर के पास जाता। प्यार से उस पर हाथ फेरता और पूछता, ?घास तूड़ी धापकर खा लिया झूमर? यदि मीना कम डालती है तो बता देना। मैं अभी उसके फीते खींच दूँगा।” 

मीना हँसती हुई आई, “अजी आपके बिना कौन नीरता है। घर पर आप न हो तो झूमर भूखी-प्यासी ही मर जाए।” 

“मीना! एक रोटी लेके आओ,” शंभू ने झूमर के मुँह में रोटी दी और उसके माथे पर हाथ फेरने लगा। यह उसका प्रतिदिन का नियम था। 

जनवरी का महीना कड़ाके की सर्दी और शीतलहर से सबकी परीक्षा ले रहा था। कमज़ोर इस परीक्षा में झड़ रहे थे जो ठीक-ठाक थे वो बीमार थे। इसी परीक्षा की चपेट में एक दिन झूमर आ गई। शंभू ने सारा काम धंधा छोड़ दिया। सारे दिन झूमर की देखभाल करता। कभी गर्म बँटा खिलाता कभी रोटी के टुकड़े मुँह में देता लेकिन झूमर नाक मारते थोड़ा बहुत खाती। पशु चिकित्सक को बुलाया तो उसने देखकर बताया कि इसको काला निमोनिया हो गया। बच पाना काफ़ी मुश्किल है। इतना सुनते ही शंभू का दिल टूट सा गया। 

“डॉ. साहब आप टीका-दवाई से कोशिश तो कीजिए।” 

टीके-दवाई सब करने के बाद भी झूमर दिन प्रतिदिन बैठती जा रही थी। खाना पीना छूटता जा रहा था। आज सुबह से झूमर ने कुछ भी नहीं खाया इसलिए शंभू रात को झूमर के पास ही आग जलाए बैठा रहा ताकि उसे ठंड से बचा सके। लेकिन झूमर निश्चेष्ट सी पड़ी थी । ना उसे सरदी लग रही थी ना गर्मी। आठ दस बार उसने घूर्ड़ घूर्ड़ करके साँस ली और आँखें थम गई। शंभू का गला भर आया। 

“तो झूमर तू हमें छोड़कर चली गई,” एक लम्बी साँस लेते हुए बोला, “चलो भई! आपकी मर्ज़ी।” 

अब दूधमुहाँ लालू भी गले आ गया था। 

बेचारी मीना निपल से ऊपर का दूध पिलाती थी लेकिन लालू को ऊपर का दूध पचता न था न रुचता था। उसे दस्त लग गये और तीसरे ही दिन अपनी माँ झूमर के पास पहुँच गया। 

इस घटना ने शंभू को भीतर तक झकझोर दिया। वह सारे दिन उदास और गुमसुम पड़ा रहता। तब शंभू के पिता दीनदयाल ने उसे समझाया, “बेटा-होनी को कोई नहीं टाल सकता। इस तरह झूमर के शोक में पड़े रहोगे तो घर का गुज़ारा कैसे होगा। हाथ फुरेगा तो ऐसी गाय और ले आयेंगे।” 

शंभू अब काम पर जाने लगा। उसने देखा गलियों में फिरने वाली सूनी गायें भूख और सरदी से ढंकर हो गई हैं। उनकी पसलियाँ दो-दो अंगुल बाहर निकल आई थी। कोई गाय दो मुँह चारे की आस लेकर किसी घर में चली भी जाती तो दो-चार लट्ठों की चोट के सिवा कुछ भी नहीं पाती और बेचारी डगमगाते पैरों से वापस आ जाती। 

शंभू एक दिन देर शाम काम से घर लौट रहा था। उसने देखा पास की गली में ही एक गाय औटाल पड़ी थी और उसके चारों ओर कुत्तों का झुंड घूम रहा था। शंभू ने कुत्तों को भगाया। पास जाकर देखा तो गाय के शरीर पर दो तीन जगह कुत्तों ने नैस भी लगा दिए थे और गाय भूख के मारे खुरड़ा खोद रही थी फिर ज़ोर ज़ोर से घुर्ड़ घुर्ड़ कर साँस लेने लगी और थोड़ी देर बाद घुर्राटा बन्द हो गया। शंभू को को झूमर की याद आ गई। उसे ऐसे लगने लगा जैसे यही झूमर हो। उसके आसपास गली में ज़िन्दगी की तलाश में फिरने वाली सभी गायें झूमर हों। उसका माथा भारी हो गया। सिर में दर्द होने लगा। जल्दी से घर आया और सारी घटना मीना को बताई। 

मीना बोली, “हम क्या कर सकते हैं? यदि हमारे पास धपाऊगा नीरा-तूड़ी होता तो एक भी गाय को भूखी न मरने दूँ।” 

शंभू ने कहा, “चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े लेकिन आज के बाद इन सूनी गायों को भूख से नहीं मरने दूँगा। ये मेरी प्रतिज्ञा है मीना।” 

मीना ने पूछा, “वो तो ठीक है पर आप अपनी प्रतिज्ञा पूरी कैसे करेंगे? जरा मुझे भी तो बताएँ।” 

शंभू ने उत्साहित्य होकर कहा, “इसके लिए मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।” 

मीना बोली, “मुझे तो सातवाँ महीना लग गया। भला मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ?” 

शंभू झल्लाया, “अरे पगली तुम्हें कोई कुश्ती थोड़ी ही लड़नी है।” 

मीना अभी भी हैरान थी, “तो?” 

शंभू उसे समझाने लगा, “तुम सुबह चार बजे उठकर मेरे लिए गर्मागर्म चाय बना देना। मैं अपने बैल नंदू को लेकर निकल जाऊँगा और सूर्योदय से पहले ही घास का गाड़ा भरके ले आऊँगा। पांती आया सभी गायों को डाल दूँगा और फिर नहा धोकर काम पर चला जाऊँगा।” 

मीना ने फिर पूछा, “लेकिन घास लायेंगे कहाँ से? कोई खेत मालिक मना करेगा तो?” 

शंभू बोला, “अरे बावली! मना कौन करेगा? लोग तो अपने खेतों में उगे हुए बेकार घास को ध्याड़ी लगाकर कटाते हैं क्योंकि उससे फसल को नुक्सान होता है।” 

मीना मान गई, “तो मैं आपकी मदद के लिए तैयार हूँ।”  

शंभू बोला, “अब खाना खाओ, मुझे भी खिलाओ और अपने दिमाग में चार बजे का अलार्म लगाकर सो जाओ क्योंकि तुम्हें जल्दी उठना है।” 

सुबह मीना एक हाथ में चाय की बाटी दूसरे में गरम पानी का लौटा लिए पास आकर बोली, “अजी! उठकर मुँह धो लो। आपकी चाय तैयार है।” 

शंभू उठा और चाय पीकर बोला, “अब जल्दी से नंदू को खोलकर गाड़े के पास ले आ तब तक मैंं बीड़ी पी लेता हूँ।” 

शंभू बैलगाड़ा लेकर जाने लगा तो मीना दांती और कम्बल देते हुए बोली, “आज ठंड बहुत है कम्बल ओढ़ लो।” 

“अरे भई! आपके हाथों से बनी स्वादिष्ट और गर्मागर्म पी ली है। अब ठंड तो क्या हम लाट साहब के सारे नहींं। फिर भी मैंंने जो कोट पहन रखा है वही काफी है।” 

शंभू बैलगाड़ा लेकर निकल गया। हाड़ कँपा देने वाली सरदी और घनी धुँध। गाँव के पास ही पेड़ों के घने झुरमुट में राधाकृष्ण का मंदिर था। शंभू ने मंदिर के पास बैलगाड़ा रोककर नंदू को समझा दिया कि—जब तक मैंं घास लेकर नहीं आ जाता तब तक पैर भी मत हिलाना। शंभू दांती और पल्ली लेकर खेत में घुस गया। बथुआ, गाजरघास, जोईयाघास और कणकिया घास जो भी आगे आया काट लिया और गाड़े को पूरा भर कर सूर्योदय से पहले ही पीपल चौराहे पर ले आया जहाँ सूनी गायों का बगेलिया बैठता था। उसने सभी गाय और टोगड़ियों को एक एक थब्बा घास डाला और घर आ गया। ठंड से बुरी तरह काँप रहा था सारे कपड़े ओस से गीले हो गये थे। मीना ने झटपट आग जलाकर उसे तपाया तब जाकर कुछ कँपकँपी दूर हुई।  तब मीना ने कहा, “पानी गर्म पड़ा है आप गर्म गर्म पानी से नहा लो तब तक मैं आपके लिए चाय तैयार करती हूँ।” 

शंभू नहाकर चाय पी रहा था तब मीना बोली, “आपसे एक बात कहनी थी।” 

“तो संकोच कैसा? कहो।” 

“मैंं तो कहती हूँ तुम अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दो। जब तुम खेत से आये थे तब तुम्हारी हालत देखकर मेरा तो जी हाल गया था। सारा शरीर काँप उठा था।” 

“अरे पगली! मेरी पत्नी होकर इतना छोटा दिल! आपको पता है? प्रतिज्ञा तोड़ता कितना महापाप है? एक प्रतिज्ञा तोड़ना एक गाय की हत्या के बराबर है।”

मीना ने अपना डर ज़ाहिर किया, “आपकी बात ठीक है लेकिन सरदी देखो। काल की तरह मुँह फाड़े पड़ रही है। यदि बीमार पड़ गये तो?” 

शंभू ने तस्ल्ली दी, “तुम खामकाह चिंता करती हो। यदि तुम इस समय हिमालयी क्षेत्र में जाकर देखो ना तो वहाँ बर्फ़ पड़ती है। तो क्या वहाँ के सभी लोग बीमार होंगे? मस्त रहा करो। कुछ नहींं होगा। अब चलो जल्दी से टिफन तैयार करो । काम पर जाने का वक़्त हो गया। यदि थोड़ा सा भी लेट-सेट हो गया तो मिस्त्री फ़ालतू ही चीं चीं पीं पीं करेगा।” 

मीना ने तुरंत कहा, “ये लीजिए जी, मैंंने टिफन तो आपका पहले से ही तैयार कर रखा है।” 

शंभू काम पर जाते-जाते थोड़ा रुककर बोला, “नंदू को थोड़ा गुड़ और बँटा खिला देना । बेचारा काफ़ी थका हुआ है।” 

इस तरह से शंभू ने प्रतिदिन का नियम बना लिया। सुबह चार बजे उठ कर घास लाना, गायों को खिलाना और फिर अपने काम पर चले जाना। जिस दिन से शंभू ने यह काम शुरू किया, गायों की मौतों पर विराम लग गया जैसे उसने मौत की रस्सी को अपनी दांती से काट दिया हो। 

दस बारह दिन के बाद जो गायें सूखकर ढंकर हो गई, जो चलने-फिरने में भी असमर्थ थी, अब छलाँगें मारने लगीं। छोटे-छोटे मरियल टोगड़िये भी अब ज़ोर आज़माइश करने लगे। हालाँकि उन्हें थोड़ा-थोड़ा ही घास हिस्से आता था लेकिन उनके लिए संजीवनी बूटी का काम करता था। अब तो गायें नंदू के पैरों की आवाज़ भी पहचानने लगींं थीं। जैसे ही शंभू घास का गाड़ा लेकर आंगनबाड़ी पार करता गायें सामने ही दौड़ी चली आतीं थीं, जैसे बाज़ार से लौटते व्यक्ति को देखकर घर के बच्चे सामने ही दौड़े चले जाते हैं। 

इस तरह से शंभू का यह कार्य महीने भर निर्बाध रूप से चलता रहा। गाँव में किसी को भनक तक नहींं थी सिवाय हरलाल के। क्योंकि हरलाल सुबह जल्दी अख़बार बाँटने जाता था तब अक़्सर कई बार शंभू को गायों को घास डालते हुए देखता था । 

एक दिन शंभू घास लाने के लिए चौधरी बिरजूराम के खेत में चला गया। चौधरी बिरजूराम के पास सवा सौ बीघा ज़मीन थी। वह गाँव का सबसे अमीर आदमी था। दो-दो, तीन-तीन नौकर तो उसके घर काम करते थे और बीसों मज़दूर प्रतिदिन खेत में। गाँव के पास वाले खेत में रखवाला फरसा था। 

शंभू ने तीन पाँड गाड़े डाल दी परन्तु चौथी पाँड उठाने की कोशिश कर रहा था। इतने में रखवाला फरसा जाग गया। आज धुँध नहींं थी इसलिए चाँद की रोशनी में उसने शंभू को देख लिया। वह शंभू के पीछे से चुपके से आया। शंभू ने पाँड को सीने तक ऊपर उठाया, इतने में उसने पीछे से आकर लाठी चला दी। शंभू के मुँह से दर्द की चीख निकली और पाँड छूटकर गिर गई। पूरा ब्रह्माण्ड उनकी आँखों के सामने से घूम गया और वह दोनों हाथों से अपने सिर को पकड़े धड़ाम से गिर गया तथा दर्द से कराहने लगा। फरसा गालियाँ निकालने लगा, “चौधरी के खेत से घास चुराकर बेचता है, बदमाश, तेरे को पता नहींं कि यहाँ का रखवाला कौन है। मेरी इजाज़त के बिना तो पंखेरू भी खेत के ऊपर से नहींं उड़ सकते। समझे। अब होता है दर्द। और चुराओ घास। नालायक कहीं का।” 

फरसा बकता हुआ अपने झोंपड़े की तरफ़ चला गया। 

शंभू के सिर में गहरी चोट लगी थी लेकिन कुछ समय बाद उसे कुछ होश आया तो लड़खड़ाते हुए गाड़े पर आकर पड़ गया। नंदू बड़ा समझदार था। अपने मालिक को गाड़े पर पड़ा देखकर फ़ौरन चल पड़ा। शंमू के सिर से काफ़ी रक्त बहने लगा था। 

शंभू अर्धचेतन अवस्था में था उसने देखा कि वह मंदिर के चौक पर लेटा हुआ है और मंदिर के घंटे अपने-आप ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे। मंदिर से श्रीकृष्ण और राधा चलकर उसके पास आकर खड़े हैं। श्रीकृष्ण अपना दुप्पटा फाड़कर चोट वाले स्थान पर पट्टी बाँध रहे हैं और राधा हाथ में दूध का गिलास लेकर उसे आवाज़ दे रही है—शंभू! ओ शंभू! आँखें खोलो। उठो बेटा, लो! थोड़ा दूध पी लो। 

शंभू चेतन अवस्था में आया और आँखें खोली तो उसने देखा कि वह अपने घर चारपाई पर लेटा हुआ है। राधा और श्रीकृष्ण उसके सामने खड़े हैं वह निर्निमेष देखता रहा। मन ही मन दोनों के चरण स्पर्श किए। फिर धीरे-धीरे बोला, “यहाँ आने का आपने जो कष्ट किया इसका ऋण तो मैंं सात जन्मों तक भी नहींं चुका सकता। आपने मुझे साक्षात्‌ दर्शन दे दिए है। मैंं धन्य हो गया हूँ।” 

“ऐसी कैसी बहकी बातें कर रहे हो शंभू। कौन है यहाँ प्रभु? लो! थोड़ा दूध पीओ।” 

शंभू ने धीरे-धीरे पहचाना तो उसके सामने उसके पिताजी दीनदयाल खड़े है और माँ दूध का गिलास लेकर सिरहाने खड़ी है। शंभू ने दूध पी लिया लेकिन आश्चर्यचकित था। शंभू के पिताजी ने चोट का कारण पूछा तो शंभू ने सारी घटना बताई। 

दीनदयाल मन ही मन घबरा रहे थे कि बिरजूराम इतना बड़ा आदमी है उसके खेत से घास लाकर शंभू तुमने बहुत ग़लत किया। तुम्हें क्या ज़रूरत थी ये सब करने की । अब कलियुग है भला करने की सज़ा मिलती है और बुरा करने वाले पुरस्कार पाते हैं। 

अब तो शंभू भी पछता रहा था। मन ही मन सोचने लगा—जब तक चोट ठीक नहीं होती तब तक काम पर भी नहींं जा सकता। घर का ख़र्चा कैसे चलेगा। 

दूसरे ही दिन बिरजूराम उनके घर आए। बिरजूराम को देखते ही दीनदयाल के होंठ सूख गये। मन ही मन सोचने लगे—अब तो आफ़त ही आ गई। कोई ना कोई चट्टी लगाएगा और शानपट्टी करेगा सो अलग। 

बिरजूराम बोले, “राम राम दीनदयाल जी।” 

दीनदयाल ने हाथ जोड़कर राम-राम किया, लेकिन उनके हाथ काँप रहे थे। 

दीनदयाल ने विनती करनी शुरू कर दी, “चौधरी साहब मेरे निकम्मे लड़के के कुकर्म के कारण आपको यहाँ तक आने का कष्ट सहना पड़ा। भगवान चाहे ग़रीबी और कष्ट कितना ही दे दे लेकिन कपूत न दें। अब मैंं आपको क्या मुँह दिखाऊँ चौधरी साहब। अब तो गाँव का खोटे से खोटा आदमी भी मुझे चोर का पिता कहेगा।” 

बिरजूराम चुपचाप सुनते रहे। 

दीनदयाल अपना सिर झुकाकर हाथ जोड़ते हुए बोले, “चौधरी साहब! मैं आपके सामने अपनी गर्दन पसारता हूँ। इसके सिवाय कर ही क्या सकता हूँ जो एक चोर को जन्म दिया।” 

बिरजूराम मुस्काए, “दीनदयाल जी! वो सब कुछ मुझे हरलाल ने बता दिया था। शंभू ने जो काम किया है इसके बदले आपको कुछ तो करना ही पड़ेगा।” 

दीनदयाल घबरा गया, “चौधरी साहब! मैंं बिल्कुल ग़रीब इंसान हूँ। कृपया मेरी औक़ात के अनुसार बता दीजिए।” 

बिरजूराम ने अपना निर्णय सुनाया, “तो फिर आपके पुत्र को आजीवन एक काम करना पड़ेगा।” 

दीनदयाल के हृदय की धड़कन बढ़ गई और उनके मुँह से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला, “क्या?” 

बिरजूराम बोले, “काम वही करना है लेकिन चोरी की ज़रूरत नहींं। मैंं एक गौशाला खुलवा दूँगा जिसकी ज़िम्मेदारी शंभू को सँभालनी होगी। इसे प्रतिमाह दस हज़ार की तनख़्वाह मैंं दूँगा और इसकी सहायता के लिए दो मज़दूर दे दूँगा।” 

दीनदयाल की आँखों से कृतज्ञता के आँसू निकल पड़े और वे कुछ पल तक चौधरी साहब के चेहरे के देखते रहे फिर भर्राये गले से बोले, “चौधरी साहब . . .” 

बिरजूराम ने अपनी जेब से पाँच सौ का नोट निकालकर देते बोले, “दीनदयाल जी! लो अब अपने पुत्र को जल्दी ठीक करवाओ।” 

दीनदयाल की आँखों से लगातार आँसू टपक रहे थे हाथ जोड़कर बोले, “चौधरी साहब आपने मुझे भाग्य से भी अधिक सम्पत्ति दे दी है। अब और नहींं।” 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2022/12/21 07:57 AM

जैसे शंभू और दीनदयाल के दिन बहुरे वैसे ही सबके बहुरें।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

किशोर साहित्य आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं