सच्चा साधक
काव्य साहित्य | कविता रामदयाल रोहज1 Jun 2020 (अंक: 157, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
तड़पता मौतों से मरुदेश
अचानक तपसी का प्रवेश
जटाधारी था भगवा वेश
कमंडल में जल पावन शेष
चला आया प्रासाद द्वार
नादी है कंठों का हार
कर्ण कुंडल का है सिंगार
वचन थे मीठे शुद्ध विचार
स्वर भिक्षाम् देहि दोहराया
दौड़कर राज सेवक आया
भिक्षा को कटोरा फैलाया
नृप ने तत्पर पास बुलाया
आप राजाओं के महाराज
बचा लो आज हमारा ताज
गिरी भयंकर रोगों की गाज
बड़े संकट में प्रजा, राज
मिटा वर्षा का नाम निशान
भूख गाती चौतरफ़े गान
कूप सूखे, थे सबकी जान
प्यास से निकल रहे प्राण
शतत् बीते हैं सात साल
राज करता है यहाँ अकाल
जीव जन्तु को खाता काल
लोग खाते पेड़ों की छाल
नृप प्रजा ने जोड़े हाथ
खड़ी रानी भी उनके साथ
नमन को सभी झुकाए माथ
कोई प्रबंध करो हे ! नाथ
नाथ ने देखा, सभी निराश
लिए नयनों में छोटी आश
रुकी कंठों में सबकी साँस
हुआ है आज नया आभास
नाथ बैठे फिर पलथी मार
ओढ़ भगवी चादर इस बार
दिव्य दृष्टि से देखा सार
सभी उत्सुक देखे नर नार
फिर बोले थे घोटाधारी
नृप तुम पापी अत्याचारी
याद है संत निराहारी
जान उसकी थी वीणा प्यारी
किया था सिद्धियों से सिंगार
कठिन मंत्रों का कर उच्चार
छीनकर लाये तुम सरकार
किया ना तुमने कोई विचार
वीणा ही जिसका भगवान
समय आया करने संधान
छीनकर ले आए अनजान
विकल तपसी ने त्यागे प्राण
नृप ने सेवक को समझाया
तत्पर वीणा को मँगवाया
साधु के सम्मुख रखवाया
मृदुल मुख मंडल मुरझाया
हे नाथ मुझे दो सज़ा कड़ी
पहना दो मुझको हथकड़ी
जीना ना चाहता एक घड़ी
मैंने जो की है लूट बड़ी
नृप की आँखें भर आई
राजमंत्री ने आशा बंधाई
जटाधारी ने वीणा उठाई
शीश- पगड़ी से गर्द हटाई
कर वीणा को नमस्कार
गोद ले चूमा बारम्बार
जोड़ वीणा से मन के तार
अचंभित देख रहा दरबार
संत मन ही मन करता बात
आप है साधुजन के तात
नमन करता हूँ मेरे तात
परस स्वर्ग सुख देता गात
सैंकड़ों देखे मधुर वसंत
आप सचमुच संतों के संत
शरण में पलते जीव अनंत
विकट संकट का करते अंत
सिंह नित चरण चूमने आते
दृष्टि से दैत्य जल जाते
आप जब लंबी पलक लगाते
हार कर कामदेव पछताते
उर्वशी ध्यान तोड़ने आती
कुटिल कलाएँ कई दर्शाती
सारे यत्न विफल फिर पाती
हो मजबूर पुन: चल जाती
तपाग्नि से नीरद डरता था
स्वयं यमराज नमन करता था
पतझर चुपके पग धरता था
पाहन सुमन उत्पन्न करता था
आपने देखी प्रलय साकार
हुई थी जग में हाहाकार
धरा भी करती थी चीत्कार
कण-कण करता करुण पुकार
पेड़ कहते थे दिल की बात
आप उनके मित्र थे तात
आँधियों की वो काली रात
अटल बैठे रहते थे तात
स्वत: वीणा में हुआ कंपन
स्वर के शिशु उड़े गगन
अचंभित देख रहे थे जन
नृप कह उठे नाथ धन धन
अचानक पड़ने लगी थी थाप
नगाड़े बाजे अपने आप
विजय की लगा रहे थे छाप
पताका रही गगन को नाप
मृत जीवों में आए प्राण
उड़े मुर्दा पंछी आसमान
नृप चेहरे पर थी मुस्कान
औरतें करती मंगल गान
खिले सूखे सर में जलजात
शुष्क पेड़ों पर फूटे पात
नाचती फूलों की बारात
तितलियाँ लेती फेरे सात
तभी वीणा ने बदले स्वर
तेज़ गर्मी का उतरा ज्वर
पड़े वायु के धीमें पर
गगन में नाच उठे जलधर
हुई जब वर्षा मूसलाधार
नदी नालों ने बाँटा प्यार
नाचे मन के मयूर अपार
ख़ुशी उल्लास भरा दरबार
आपने किया बहुत उपकार
लीजिए छोटा सा उपहार
जड़ा मोती स्वर्ण का हार
आप सचमुच कोई अवतार
नाथ ने किया नहीं स्वीकार
मुझे ना धन दौलत से प्यार
नहीं इससे मेरा सरोकार
छुए ना मैंने वीणा तार
किया श्रद्धा से केवल ध्यान
दिया दिल से वीणा को मान
किया था मन ही मन गुणगान
मिला है मुझको दुर्लभ ज्ञान
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