स्वर्ण टीले
काव्य साहित्य | कविता रामदयाल रोहज1 Sep 2019
जब सूरज ने आँखें खोली
धरती बना रही रंगोली
मधुर मधुर गौरेया बोली
विचर रही मृगों की टोली
अहा! इधर पीले चमकीले
लगे मनोहर स्वर्ण टीले
धुले तुहिन से थोड़े गीले
देख रवि हो गए रंगीले
अंबर से यहाँ परियाँ आतीं
कनक देह आँखें मदमातीं
सुबह शाम को साथ नचातीं
भ्रमण कर वापिस उड़ जातीं
इन्द्र तब बरसाता फूल
माथे, शीश लगाता धूल
स्वर्ग को भी जाता भूल
घूमे कालिका - त्रिशूल
चरवाहों के मीठे गीत
घंटियों के टुन टुन संगीत
प्रकृति से सच्ची प्रीत
कथा सुनाता रहा अतीत
मस्त टहलती छिपकलियाँ
प्रसून बनाती छिप कलियाँ
जांटी पर ताँबे की फलियाँ
भर रही गोंद डलियाँ डलिया
पग पग पर नागमणि मिलती
रजनी को भी रोशन करती
सर्पों की जीभ शतत् चलती
ले नीलकंठ से विष फलती
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अग्निदेही
- अचला सुन्दरी
- अनमोल ओस के मोती
- कार्तिक पूर्णिमा
- गर्मी की चुड़ैल
- चाँद का जादू
- छोटा सा गाँव हमारा
- तलवार थाम बादल आया
- ताल ठोंकता अमलतास
- थार का सैनिक
- धनुष गगन में टाँग दिया
- नाचे बिजली गाते घन
- नीली छतरी वाली
- पर्वत
- पर्वत की ज़ुबानी
- पाँच बज गये
- पानी
- पैर व चप्पलें
- प्यासी धरती प्यासे लोग
- फूलों की गाड़ी
- बरसात के देवता
- बरसात के बाद
- मरुस्थल में वसंत
- रोहिड़ा के फूल
- वसंत
- सच्चा साधक
- साहित्य
- स्वर्ण टीले
- हवन करता जेष्ठ
- हिम्मत की क़ीमत
- हे! नववर्ष
कहानी
किशोर साहित्य आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं