पर्वत की ज़ुबानी
काव्य साहित्य | कविता रामदयाल रोहज1 Jul 2019
मैं सपरिवार बुन रहा था
अपने रंगीन सपने
प्रसन्नता की लालिमा
छलक रही थी गालों से
तभी अचानक आया
विकास का ज़ोरदार अंधड़
प्रसन्नता पंख फैला कर उड़ गई
तब आई मशीनों की फौज
और मेरे दिल को छलनी कर
भर दिया बारूद का ज़हर।
और मैंने सुनी
अपने दिल की दर्दभरी आह
पास खड़े देवताओं का मौन रोदन
जैसे वे रोते रोते कह रहे हो
"हमें कौन देगा आश्रय?"
फिर हुआ एक ज़ोरदार धमाका
और मेरा शरीर भीतर तक काँपा
मानो मुझे हो गया हो बहुत तेज़ बुखार
फिर? फिर मत पूछो
हाय! मेरे शरीर के कतरे कतरे हो गए।
प्राण निकलने को उतावले हो गए
पेड़ पौधे सब लम्बी नींद सो गए
और मेरे दोस्त पशु पक्षी सब खो गए।
क्या पर्वत प्रजाति लुप्त जाएगी?
क्या पृथ्वी पठार बन रह जाएगी?
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