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मैं लिखती हूँ

मैं लिखती हूँ, 
तब जब रहूँ उदास, 
और तब भी जब हो कोई पास, 
मैं अक़्सर लिखती हूँ, 
जब हो कोई बात ख़ास।
 
मैं लिखती हूँ, 
तब भी जब टूट कर बिखरूँ, 
और तब भी जब फिर सिमट, 
बन जाऊँ नायाब। 
तब भी जब डर का हो आभास, 
और तब भी जब हर श्वास में 
हो फिर भी विश्वास। 
 
मैं लिखती हूँ, 
जब हवाओं में हो 
उसके होने की आस, 
और तब भी जब ना पता हो 
कि किसकी है तलाश। 
तब भी जब हो मन में हो 
शिकायतों का उल्लास, 
और तब भी, जब अपनी ही 
चाहते ना आएँ रास। 
 
मैं लिखती हूँ, 
तब भी जब आँखों में पानी हो, 
लेकिन ना हो वो पास, 
और तब जब मुड़कर देखूँ, 
मुझे हो उसके होने का उसका आभास। 

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टिप्पणियाँ

Ankita Joshi 2022/10/06 06:35 PM

आप बहुत सुंदर लिखती है।

कृपया टिप्पणी दें

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